चंद्रिका की कहानी, उन्हीं की जुबानी

चन्द्रिका गौड़ मुंबई निवासी एक 28 वर्षीय हिजड़ा है जो एचआईवी के साथ-साथ औषधि प्रतिरोधक अथवा ड्रग रेजिस्टेंट टीबी (डीआर-टीबी) से भी पीड़ित है | इस समय वो दूसरे स्तर की एंटी- रेट्रो वाइरल दवाओं और डीआर-टीबी के उपचार मेँ है | उसे अपने एचआईवी ग्रस्त होने का पता 2006 मे चला और डीआर–टीबी की पुष्टि 2010 मे हुई जब उसे एमएसएफ (Medicins Sans Frontiere)  मेँ जाने की सलाह दी गई | एमएसएफ मेँ आने से पूर्व वो दो बार टीबी का उपचार ले चुकी थी| अपनी दोहरी बीमारी के भार के अपने संघर्ष की कहानी उसने हाल ही मे एमएसएफ को बताई|

अपने निवास-स्थान के आस-पास की बस्ती में भीख मांगकर चन्द्रिका अपना जीवन-यापन करती है| (भारत में, आज भी हिजड़ों के लिए उन घरों में, जहाँ हाल ही में विवाह सम्पन्न हुआ हो या किसी बच्चे का जन्म हुआ हो, नाचने गाने की प्रथा है | इसके बदले में उन्हें धन और उपहार मिलते हें | भीख मांगने के अतिरिक्त यही उनका जीवकोपार्जन है|) वह अपने समुदाय के कुछ अन्य लोगों—अपनी दादी माँ और अपने कुछ शिष्यों के साथ रहती है| वे एक समूह में साथ-साथ रहते हैं, लेकिन चन्द्रिका इस बात पर जोर देते हुए बताती है कि,”मै अपने घर में अकेली रहती हूँ | मेरा घर अलग है | मेरा शयन-कक्ष और रसोई-घर सब अलग हैं | मैं दूसरों के साथ नहीं रहती हूँ |”उसको सन 2004 में छाती में दर्द के साथ भयंकर खाँसी होने लगी | उसने बताया कि,” मै अत्यधिक बलगम के साथ बहुत खाँसा करती थी | मैंने सोचा कि यह खांसी बेर खाने के कारण है | मेरे गुरु ,मेरे शिष्यों और अन्य सभी ने सोचा कि यह फल शीतकारी होता है | अतः मेरी खाँसी के लिए यही जिम्मेदार है | यह फल मुझे बहुत पसन्द था, लेकिन फिर भी मैंने इसे खाना बन्द कर दिया। पर मेरी खाँसी में कोई कमी नहीं आई | इसलिए मैं एक डाक्टर के पास गई जिसने मुझे बताया कि मुझे टीबी थी| उन्होने बताया कि खाँसी बेर के कारण नहीं, अपितु टीबी के कारण थी |)

चन्द्रिका उलझन में पड़ गई | उसे टीबी के विषय में तनिक सा भी ज्ञान नहीं था | “मुझे समझ में नहीं आया कि टीबी से उनका क्या तात्पर्य था ? यह क्या बीमारी थी? इसलिए मैं वहाँ चुपचाप खड़ी रही |” उसने 2004 में सेवरी अस्पताल से 9 महीने का निःशुल्क टीबी का उपचार लिया| (यह उसके रिकॉर्ड के अनुसार है, यद्यपि अपने साक्षात्कार में उसने बताया कि उसने 6 महीने तक दवा खाई)। किन्तु उसने सोचा कि उसका शरीर इस उपचार को स्वीकार नहीं कर रहा था | उसने बताया कि,”मुझे हर समय नींद आती थी| मैं कितनी भी दवाएं खाती थी मेरी दशा पर कोई भी अन्तर नहीं होता था | जीना चढ़ने पर बेहोशी होने लगती | सांस भी फूलने लगती थी |”
2006 में, चक्कर आने और भूख न लगने के कारण, वो पुनः बीमार महसूस करने लगी | अपनी दादी माँ तथा अपने गुरु द्वारा अधिक जोर देने पर वह एक डॉक्टर के पास गई जिन्होने उसे एचआईवी/एड्स होने की जानकारी दी | केईएम एआरटी सेंटर में, 2007 में उसे ऐन्टीरेट्रोवाइरल थेरेपी (एआरटी) पर रक्खा गया |

लेकिन कुछ समय बाद उसे फिर खाँसी आने लगी और वो काफी कमजोरी महसूस करने लगी | उसका वजन कम हो गया | उसे कुछ भी खाने का मन नहीं होता था और उल्टी महसूस होती थी | इसलिए वह फिर अस्पताल गई, जहाँ रक्त की जाँच हुई और उसे 2009 में सेवरी के उसी अस्पताल में दुबारा 6 माह के लिए एआरटी पर रहना पड़ा | उसने डाक्टर द्वारा बताई सभी सावधानियाँ बरती | उन्होने उसको ठंडी वस्तुओं से परहेज करने को कहा | अतः उसने ठंडा पानी पीना और  फ्रिज में रक्खा खाना या फल लेना बन्द कर दिया | उसने सोचा कि ऐसा करने पर उसकी बीमारी पर नियंत्रण हो जायेगा, लेकिन सभी सावधानियों के बाद भी उसकी खाँसी दूर नहीं हुई |

चन्द्रिका यह न समझ सकी कि इतनी अच्छी दवाएँ लेने के बाद भी उसको दवा का दूसरा कोर्स क्यों लेना पड़ा ? जब उसने डॉक्टर से पूछा तो उन्होने बताया कि उनको यह विश्वास नहीं है कि उसने पहले दवाएँ सुचारु रूप से ली थीं | डॉक्टर ने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी खाँसी 6-7 माह बाद ठीक हो जायेगी| लेकिन ऐसा नहीं हुआ| उसकी हालत नहीं सुधरी और वो बहुत बीमार महसूस करने लगी | तब वह केईएम अस्पताल गई, जहाँ एआरटी पर वह पहले रह चुकी थी | लेकिन वहाँ केवल जांच और एचआईवी की चिकित्सा की गई ,टीबी की नहीं | वहाँ से 2010 में वह एमएसएफ भेजी गई | एमएसएफ में उनको डीआर-टीबी होने का संदेह हुआ, कल्चर जाँच की गई जो पॉज़िटिव निकली| अब उसकी डीआर-टीबी की चिकित्सा आरम्भ हुई|

इस प्रकार काफी जद्दोजहद के पश्चात सन 2010 में उसका डीआर-टीबी के लिये दो वर्षो का उपयुक्त उपचार प्रारम्भ हो सका | डीआर-टीबी की चिकित्सा के प्रारम्भ में उसे अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ा| उसके शब्दों में, “मुझे हर समय उल्टी सी महसूसहोती थी, भूख नहीं लगती थी | 9 गोलियां खाना वास्तव में एक यंत्रणा थी| मैं सोचती थी कि इतनी अधिक दवाएँ खाने से तो मर जाना बेहतर है | मुझे रोज़ इंजेक्शन भी लगवाने होते थे |” लेकिन अपनी दादी माँ के प्यार और देखभाल के कारण वह यह सब झेलती गई| वह उन दिनों की याद करते हुए बताती है कि,”मेरी दादी दवाएँ खाने के लिये मुझे जोर देती रहती थीं |वो कहती थीं कि ठीक होने के लिये मुझे दवा अवश्य खानी चाहिये| अतः उनके जोर देने के बाद दवा खाने के बाद मैं एक से तीन घंटे चलती थी और एक घंटा सोती थी | इस एक घंटे की नींद के बाद मैं बेहतर महसूस करती थी |”

चन्द्रिका ने अपनी चिकित्सा का कठिन दौर पूरा कर लिया है पर अभी उपचार जारी है | अब उसने दवाओं का पूरा कोर्स लेने का द्रढ़-निश्चय कर लिया है | उसे डर है कि, “यदि मैं दवा छोड़ती हूँ तो मर जाऊँगी और अब दवा छोड़ने पर इतने सालों से उपचार करने का क्या लाभ होगा? यदि पूरा कोर्स नहीं करती हूँ तो टीबी फिर से हो सकती है | मैं चिकित्सा जारी रक्खूंगी और इसे बीच में नहीं छोड़ूँगी|” अपनी बीमारी के कारण, अपनी बिरादरी में हुये भेदभाव को वह याद करते हुये बताती है कि उसके अपने ही लोग उसे नीचा देखते थे और उसके साथ अछूत-सा व्यवहार करते थे| वो सब उससे दूर रहते थे | अगर वह किसी से अपने बालों में तेल लगाने को कहती थी तो वो उसे भगा देते थे |वह अपने गाँव या अन्य कहीं भी नहीं जा सकती थी | वह घर के अंदर ही रहती थी और किसी के साथ नहीं बैठ सकती थी | वह काम के लिये भी बाहर नहीं जा सकती थी |

एमएसएफ में आने के कारण अब उसकी हालत में सुधार हो गया है | उसे लगता है कि यहाँ मिलने वाली दवा दूसरे तरह की हैं | अब खाँसी नहीं है और उसे भूख भी लगने लगी है | सबसे अच्छी बात तो यह है कि उसकी बिरादरी ने भी अब उसे स्वीकार कर लिया है | उनके द्वारा अब वह अपमानित नहीं होती है |एक बार पुनः उन लोगों ने उससे अच्छी तरह से बात करना शुरू कर दिया है | वे उसकी प्रशंसा में कहते हैं,”अब तुम बहुत खूबसूरत लगती हो चंद्रिका, तुम अपने पुराने रूप में आ गई हो | अब तुम्हें नज़र न लगे |”

वह बहुत खुश है कि उसके परिचित अब उसको पहले की भाँति प्यार करते हैं और अब वह भी अपनी जिन्दगी में रुचि लेने लगी है | इसके लिए वह एमएसएफ के सारे कार्यकर्ताओं की आभारी है | उसका सबके लिये यह संदेश है कि किसी को टीबी के प्रति लापरवाह नहीं होना चाहिए उसके अनुसार,” कुछ लोग टीबी के उपचार में ध्यान नहीं देते हैं और अपनी जिन्दगी दांव पर लगा देते हैं | लेकिन मैं सोचती हूँ कि दवाएं खाकर तथा चिकित्सा का कोर्स पूरा  कर के स्वस्थ रहना, व्यर्थ में मरने से बेहतर है| इसलिए उन सबको, जिन्हें इसकी आवश्यकता हो, टीबी का उपचार जरूर लेना चाहिये|”

(अंग्रेजी में शोभा शुक्ला के   मूल लेख का  सुश्री माया जोशी द्वारा हिंदी में अनुवाद)