सुखराम की एचआईवी और डीआर-टीबी के विरूद्ध जंग

39 वर्षीय सुखराम पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े जिले आजमगढ़ के मूल निवासी हैं|यद्यपि वो मुंबई में एक आटा-मिल में कार्य करते हैं, पर उनका परिवार, जिसमे उनकी पत्नी, उनके माता-पिता और 14 व 12 वर्षीय दो पुत्रियाँ हैं, आजमगढ़ में ही  रहते हैं | वो 2001 से एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी(एआरटी) पर हैं| ड्रग रेजीस्टेंट टीबी (डीआर-टीबी) के कारण 2006 में वो एमएसएफ चिकित्सा हेतु भेजे गये, जहाँ तबसे उनका सफलतापूर्वक इलाज चल रहा है | कुछ समय पूर्व उन्होने टीबी बेक्टीरिया-एचआईवी वाइरस के सह-संक्रमण और उसके बाद की अपनी जिन्दगी के बारे में  Medcins Sans Frontiere (एमएसएफ) से वार्ता की |

सुखराम की विषादपूर्ण जिन्दगी का आरम्भ 1993 में सूखी खाँसी से हुआ |एक माह तक निजी चिकित्सक से उपचार लेने के पश्चात जब कोई लाभ नहीं हुआ, तब उनको मुम्बई के म्यूनिसपल अस्पताल जाने की सलाह दी गई | थूक(कफ) की जाँच द्वारा फेफड़े की तपेदिक(टीबी) होने की पुष्टि हुई | तब उन्होने एक निजी चिकित्सक की देखरेख मे 6 महीने की चिकित्सा पूरी की | इसके बाद उनको अपने गाँव जाने की अनुमति दे दी गई | यह सोचकर कि उनकी टीबी ठीक हो चुकी थी, उन्होने न तो दुबारा जाँच करवाई और न ही डाक्टर ने उन्हें ऐसा करने की सलाह ही दी|

2000 में वो पुनः अस्वस्थ्य हो गये| वजन में कमी और भूख न लगने के साथ साथ  उनको खाँसी व तेज़ बुखार हो गया | उन्हे बहुत तेज़ सरदर्द भी हो जाया करता था | उनके बाल भी गिरने लगे| उनकी हालत धीरे-धीरे खराब होने लगी तथा सारे शरीर में गाँठें हो गई | तब वह उसी म्यूनिसपिल अस्पताल में गये, जहाँ पुनः उन्हें टीबी की पुष्टि की गई |इस बार उन्हें एक डाट्स केंद्र जाने की सलाह दी गई, जहाँ उन्होने दुबारा 6 माह का टीबी के इलाज का कोर्स पूरा किया| लेकिन उनकी गाँठें ठीक न होने के कारण उनको हिंदुजा अस्पताल भेजा गया जहा डॉक्टरों ने बताया कि ट्यूबर्कूलर ग्लैंड्स होने के कारण बिना दवाएँ खाये यह ठीक नहीं होंगी | वह उलझन में पड़ गये| उन्होने डॉक्टरों को बताया कि काफी लम्बे समय तक वो पहले भी टीबी की दवाएं खा चुके थे | इसलिए उन्हे केईएम एआरटी सेंटर भेजा गया जहाँ उन्हें अपने एचआईवी पॉज़िटिव होने का पता चला | उन्हें 2001 में पहले स्तर की ऐन्टीरेट्रोवाइरल थेरेपी(एआरटी) पर रक्खा गया |उन्होने टीबी का उपचार भी प्रारम्भ कर दिया |

धीरे-धीरे उनकी सारी ग्लेण्ड्स गायब हो गईं और उनकी हालत बेहतर हो गई | इसलिए उन्होने दवाएँ लेना बन्द कर दिया | कुछ समय पश्चात उनका सीडी4का स्तर गिरकर 20 हो गया | केईएम के चिकित्सकों ने बताया कि उपचार बीच में ही बन्द कर देने के कारण दवाएँ असर नहीं कर रही थीं, और अब उन्हें द्वितीय स्तर की दवाएँ चाहिए थीं जो कि उस अस्पताल में उपलब्ध नहीं थीं और उन्हें बाहर से खरीदना था | वह उन महंगी दवाओं को अपनी आमदनी से नहीं खरीद सकते थे | काफी परेशानियों के बाद वह प्रफुल्ल ट्रस्ट नामक एक गैर सरकारी संस्था से मिलने में कामयाब हो गये, जिसने उनको जे जे हॉस्पिटल भेजा, जहाँ से अंततः वह एमएसएफ पहुँच गये |

मार्च 2006 में जब वह एमएसएफ आये, उनकी सीडी4की गणना 20 थी | उनको 6 माह तक प्रथम स्तर की चिकित्सा पर रक्खा गया जिससे उनका सीडी4 लगभग 75-76 तक ही बढ़ सका | इसलिए डाक्टरों ने उन्हें दूसरे स्तर की एआरटी की चिकित्सा प्रदान की | वह याद करते हैं कि, “मैंने दो दिनों तक दवाएँ खायीं, और तीसरे दिन से खाँसी व उल्टी होना शुरू हो गया | कभी-कभी खाँसी के साथ खून भी आ जाता था | अब मुझे बुखार भी रहने लगा | जाँच करने पर पता चला कि मुझे टीबी थी| कल्चर की रिपोर्ट से टीबी की प्रकृति की पुष्टि होने तक मुझे टीबी की दवाएँ खाने को कहा गया | 8 सप्ताह बाद जब रिपोर्ट आयी तब इस बात की पुष्टि हुई कि मुझे एमडीआर-टीबी है| उस समय मैं बहुत बीमार था | इन दो महीनों में मेरी हालत काफी बिगड़ चुकी थी| खाँसी बहुत गंभीर हो चुकी थी और मैं चल तक नहीं सकता था | लेकिन मैंने एचआईवी की दवाएँ लेना बन्द नहीं किया | फिर मैंने दिसम्बर 2006 से एमडीआर-टीबी का उपचार भी शुरू कर दिया |”

उन दिनों के बारे मेँ सोचकर सुखराम के रोंगटे खड़े हो जाते हैं | वे बताते हैं – “जब 2006 मेँ इलाज शुरू हुआ तब दवाओं का बोझ बहुत था | मैं गोलियो की संख्या देखकर डर जाया करता था | डीआर-टीबी के लिए कई गोलियों के अलावा एचआईवी के लिए लगभग 8 गोलियां लेनी पड़ती थी – मुझे एक दिन मेँ 27-28 गोलियां खानी पड़ती थी | इन दवाओं का बहुत बुरा असर भी होता था | मुझे दस्त, उल्टी, चक्कर, और बहुत कमजोरी का अनुभव होता था | मुझे लगता था कि जैसे मैं अब कभी चल नहीं पाऊँगा | ऐसा लगता था कि जैसे दवाएं मेरे मस्तिष्क को भी प्रभावित कर रही थी क्योंकि मेरी याददाश्त कम होने लगी थी, मैं भूलने लगा था | मेरा शरीर उन इंजेक्शन के निशानों से भरा पड़ा था, जो मुझे साढ़े सात महीने तक लगवाने पड़े थे | दो माह तक मैं केवल तरल भोजन पर ही निर्भर था | मैं कोई ठोस पदार्थ नहीं ले पाता था क्योकि मेरा शरीर उसे पचा नहीं पा रहा था | कोई भी चीज, यहाँ तक कि पानी भी, मैं उलट दिया करता था | मैं वास्तव मेँ बड़ी मुसीबत मेँ था |लेकिन एक भी खुराक छोड़े बिना मैंने किसी तरह दवाएं जारी रक्खीं | एक गोली की चूक भी भारी मुसीबत पैदा कर सकती थी |”
तीन महिने के उपचार के बाद सेहत मेँ बहुत सुधार महसूस कर सुखराम ने प्रसन्नता एवं आश्चर्य का अनुभव किया| एमएसएफ मेँ 8 माह के उपचार के बाद वह एक बार फिर से हष्ट-पुष्ट हो गये और यह भी भूल गये कि उनको कभी टीबी थी |

सुखराम आज भी यह नहीं समझ पाते हैं कि दो बार चिकित्सा लेने के बाद भी उनको टीबी तीसरी बार क्यों हो गई ?एमएसएफ मेँ उनको बताया गया कि पहले यहाँ वहाँ लिये गये उनके उपचार और दवाओं मेँ शायद उनसे कोई चूक हुई जिसके कारण टीबी इतने भयावह रूप मेँ हो गई |सुखराम स्वीकार करते हैं कि,” शायद मेरे एचआईवी की गोलियां छोड़ने के कारण फिर से टीबी हो गई थी | वास्तव मेँ मैंने अनेकों बार गोलियां खाने मेँ चूक की – एक बार मैंने 6 माह तक दवा लेना छोड़ दिया था | मैं सोचता हूँ कि ऐसा करने से ही मेरे शरीर मेँ वाइरल के बोझ की अधिकता और सीडी4 मेँ कमी आ गई, और धीरे-धीरे कमजोरी के कारण इसी ने टीबी का रूप ले लिया |”

लेकिन पहली बार टीबी उन्हे क्यों हो गई? वह इसके लिये अपने व्यवसाय को दोष देते हुये बताते हैं –“मैं एक आटा-मिल मेँ काम करता हूँ | यह बहुत धूल-भरा कार्य है | वहाँ पर चारों ओर इतना अधिक आटा उड़ता रहता है कि हम लोग सफेद भूतों की तरह दिखते हैं | आटे के कण हमारे फेफड़ों मेँ प्रवेश करते रहते हैं | इसलिए, इन मिलों मेँ काम करने वाले लोग अक्सर 55-56 वर्ष की उम्र के बाद दमा और टीबी के मरीज बन जाते हैं | इसलिए टीबी हम लोगों के लिये एक व्यवसाय-जनित खतरा है।“

वह दु:खी होकर बताते हैं कि,” यदि मुझे कोई नया काम मिल सकता, तो मैं यह काम छोड़ देता और अपने गाँव वापस चला जाता |लेकिन अब मैं कोई नया हुनर नहीं सीख सकता हूँ | मैं अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इस मिल से ही धनोपार्जन करता हूँ | मैं किसी अन्य नौकरी के लिए अधिक शिक्षित भी नहीं हूँ | इसलिए मैं यही हूँ क्योकि अब मुझे अपनी दवाएं लगातार लेनी हैं | अब मेरे गाँव वापस जाने का कोई मौका नहीं हैं |” यद्यपि सुखराम एचआईवी/टीबी से ग्रस्त लोगों की मदद करना चाहते हैं, लेकिन अपनी एचआईवी अवस्था को दूसरों को बताने में संकोच का अनुभव करते हैं | वह इस बीमारी के बारे में अधिक जागरूकता फैलाना चाहते हैं, लेकिन लोगो द्वारा यह पूछना कि वह इस बीमारी के विषय में इतना अधिक कैसे जानते हैं, उनको ऐसा करने के लिए रोकता है| उन्होने अपने गाँव के कुछ लोगों का एचआईवी के उपचार के लिए बनारस मेडिकल कॉलेज जाने में मार्ग-दर्शन किया, लेकिन अपने गाँव में एचआईवी-ग्रस्त कुछ परिचितों का नियमित व उचित इलाज के अभाव में म्रत्यु को प्राप्त होने का वो खेद महसूस करते हैं |

लेकिन वो एमएसएफ की मुक्त-कंठ से प्रशंसा करते हैं |उनके अनुसार—“ एमएसएफ ने मुझे नई जिंदगी दी है | यहाँ आने पर एमएसएफ के चिकित्सकों और परामर्शदाताओं द्वारा मुझे एचआईवी/टीबी के बारे में, दवाओं के नियमित सेवन करने के बारे में, एचआईवी से ग्रस्त होने के कारणों के बारे में, सम्पूर्ण जानकारी दी गई| सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों तक पहुंचना ही काफी कठिन होता था| वे मुझे छूते तक नहीं थे-- केवल नुस्खा लिख देते और दवाएं बाहर से खरीदने को कहते | वे हमारे साथ बुरा और अमानवीय व्यवहार करते | यदि मैं यहाँ न आता तो अभी तक मेरे लिए सब कुछ समाप्त हो चुका होता और मैं मर चुका होता | यहाँ आने से पूर्व, मेरी सारी कमाई दवाओं में खर्च हो जाती थी | मैं कंगाल हो गया था | एमएसएफ ने मुझे जिंदगी का नया सवेरा दिया है |”

सुखराम अब डीआर-टीबी से मुक्त हो चुके है | अब उनकी प्राथमिकता अपनी पुत्रियों की शिक्षा है | यद्यपि वह पढ़ नहीं सके, किन्तु महसूस करते हैं कि “आज के संसार में शिक्षा बहुत आवश्यक है |” उनको इस बात का गर्व है कि उनकी पुत्रियाँ अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही हैं| उनकी बड़ी पुत्री काफी बुद्धिमान है और विज्ञान वर्ग से शिक्षा ग्रहण कर रही है | वह चाहते हैं कि उनकी पढ़ाई और विवाह के लिए पर्याप्त धन जुटाने में वह सक्षम हो सकें|

(अंग्रेजी में शोभा शुक्ला के   मूल लेख का  सुश्री माया जोशी द्वारा हिंदी में अनुवाद)