सरकारी तनख्वाह लेने वाले व जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालय में पढ़ना अनिवार्य हो

मेगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि 18 अगस्त, 2015 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2013 की रिट याचिका संख्या 57476 व अन्य के संदर्भ में न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल का आदेश आया जिसके तहत छह माह की अवधि में ऐसी व्यवस्था बनानी थी कि सभी सरकारी तनख्वाह पाने वाले लोगों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी विद्यालयों में दाखिला लेना था।

यह भी कहा गया था कि उपर्युक्त व्यवस्था शैक्षणिक सत्र 2016-17 से लागू हो जानी चाहिए। सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005, के तहत जब 10 मार्च, 2016 को मुख्य सचिव, उ.प्र. शासन से यह पूछा गया कि उन्होंने इस दिशा में अभी तक क्या कार्यवाही की है तो कोई जवाब नहीं मिला।

फ्यूचर ऑफ़ इंडिया मंच के मजहर आजाद, 9721647045 और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के शरद पटेल, प्रवक्ता, 9506533722, पवन सिंह यादव, 9795000546, चुन्नीलाल, 9839422521, हफीज किदवई, 9795020932, और डॉ संदीप पाण्डेय, 0522 2347365 ने जारी विज्ञप्ति में यह कहा:

फ्यूचर ऑफ इण्डिया मंच के मजहर आजाद 18 अप्रैल, 2016, सोमवार से गांधी प्रतिमा, हजरतगंज, लखनऊ, पर अनिश्चिितकालीन अनशन पर बैठने जा रहे हैं।

जब हम किसी सड़क के किनारे दुकान पर कुछ खा रहे होते हैं अथवा चाय की दुकान पर चाय पी रहे होते हैं तो हमें कई बार यह अहसास ही नहीं होता कि जो हाथ हमें खिला-पिला रहे हैं उन हाथों में असल में पेंसिल-किताब होनी चाहिए। इन बच्चें को जिन्हें आम तौर पर छोटू कह कर सम्बोधित किया जाता है के हम कई बार नाम भी नहीं पूछने की जरूरत समझते। इनमें से कुछ हमें साइकिल-मोटरसाइकिल की मरम्मत की दुकानों पर मिल जाएंगे। कुछ पटाखें, शीशे व बुनाई के कारखानों में मिलेंगे तो कई घरों में काम करते हुए मिल जाएंगे।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24, 21-ए व 45 बाल दासता को रोकने के लिए पर्याप्त होने चाहिए थे। अब तो कई कानून भी बन गए हैं। कारखाना अधिनियम, 1948, खादान अधिनियम, 1952, बाल मजदूर (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986, नाबालिग बच्चों को न्याय (संरक्षा एवं सुरक्षा), 2000 व मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 का क्रियान्वयन ईमानदारी से हो जाता तो काम करते हुए बच्चे कहीं दिखाई नहीं पड़ते। इन कानूनों के होते हुए भी बाल मजदूरी धड़ल्ले से चल रही है। इसका मतलब है कि न तो सरकार उपर्युक्त कानूनों के क्रियान्वयन के प्रति गम्भीर है और न ही नागरिकों को बाल मजदूरी से कोई दिक्कत है। कभी बच्चे के परिवार की मजबूरी बता कर या शिक्षा की बच्चे की जिंदगी में निरर्थकता बता हम किसी न किसी तर्क से बाल मजदूरी को जायज ठहरा देते हैं।

यदि हम ऐसी किसी सेवा का उपभोग कर रहे हैं जिसमें बाल मजदूर ने काम किया है तो हम भी स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। इसके अलावा हमें अपने से नैतिक सवाल यह भी पूछने पड़ेगा कि हमें किसी का बचपन छीनने का अधिकार किसने दिया?

यदि हम बच्चे को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं तो हम उसके लिए जिंदगी में तरक्की के रास्ते बंद कर रहे हैं। कई बार यह कहा जाता है कि गरीबी के कारण बच्चा नहीं पढ़ पाता। किंतु यह भी तो सच है कि यदि उसे गरीबी का दुष्चक्र तोड़ना है तो शिक्षित होना पड़ेगा। ज्यादातर बाल मजदूर दलित एवं मुस्लिम समुदाय से हैं जो हमारे समाज के सबसे पिछड़े वर्ग हैं। इन्हें शिक्षा से वंचित रखने का मतलब होगा इनकी गरीबी की स्थिति बनाए रखना।

दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशाील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। इसमें से आधे बाल मजदूरी के शिकार हैं।

जिन देशों ने 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दरें हासिल की हैं उन्होंने अपने यहां समान शिक्षा प्रणाली लागू की है। इसके मायने यह हैं कि सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने के अवसर उपलब्ध है।

भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी। किंतु तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है। 2009 में (मुफ्त एवं अनिवार्य) शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने गरीब परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की। किंतु इस प्रावधान को लागू करने में सरकारें गम्भीर नहीं हैं।

भारत में अब दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं हैं - एक पैसे वालों के लिए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं तो दूसरी गरीब लोगों के लिए जो अपने बच्चे सरकारी विद्यालय में भेजने के लिए अभिशप्त हैं जहां पढ़ाई ही नहीं होती। इस तरह भारत में शिक्षा अमीर व गरीब के बीच दूरी को और बढ़ा देती है।

यदि भारत में सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध होनी है तो सिवाए समान शिक्षा प्रणाली को लागू करने के कोई उपाए नहीं है। सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता सुधारने का सबसे सीधा और एकमात्र तरीका यही है कि सभी सरकारी वेतन पाने वालों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ना अनिवार्य किया जाए। यदि सरकार और प्रशासन में बैठे लोग सरकारी विद्यालयों को अपना नहीं मानेंगे तो भला और कौन मानेगा? जब सरकारी अधिकारियों ने घाटे में चलने वाली एअर इण्डिया को यह नियम बना कर जिंदा रखा है कि सरकारी काम से यात्रा करने वाले लोगों को एअर इण्डिया से ही यात्रा करनी होगी तो सरकारी विद्यालयों को जिंदा रखने के लिए वे अपने बच्चों को इन विद्यालयों में भेजने का नियम क्यों नहीं बना सकते?

सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) जिसने इस मुद्दे पर कई धरने-प्रदर्शन पूर्व में किए हैं मजहर आजाद के समर्थन में रहेगी। हम यहां यह भी स्पष्ट का देना चाहते हैं कि संविधान में किसी भारतीय नागरिक को यह छूट नहीं कि वह जहां चाहे वहां अपने बच्चे को पढ़ाए। सरकार इसके लिए नीति तय कर सरकारी तनख्वाह पाने वाले व जन प्रतिनिधिओं के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ना अनिवार्य कर सकती है।

सिटीजन न्यूज़ सर्विस (सीएनएस)