‘‘अधिकांश तम्बाकू सेवन 18 वर्ष से पहले ही आरम्भ होता है। इसीलिए बच्चों एवं युवाओं को तम्बाकू जनित जानलेवा रोगों एवं व्याधियों के बारे में जानकारी देना अनिवार्य है जिससे कि वें जिन्दगी चुनें, तम्बाकू नहीं’’ कहा छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डा0 रमा कान्त ने। प्रो0 डा0 रमा कान्त, लक्ष्मणपुरी, फैज़ाबाद रोड स्थित फारमेटिव डे कालेज के छात्रों को सम्बोधित कर रहे थे। प्रो0 रमा कान्त भारत के पहले सर्जन हैं जिनको वर्ष 2005 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक का विशेष अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार मिला है।
फारमेटिव डे कालेज की प्राधानाचार्या सुश्री अर्चना सक्सेना ने कहा कि ‘‘मैं अपने शैक्षिक संस्थान परिसर को तम्बाकू मुक्त रखने का पूरा प्रयास करती हूँ। बच्चों और युवाओं को तम्बाकू से दूर रहना चाहिए’’।
प्रो0 डा0 रमा कान्त ने कहा कि ‘‘बच्चों एवं युवाओं में तम्बाकू नियंत्रण करना व्यापक तम्बाकू नियंत्रण योजना का एक अहम भाग है’’।
प्रो0 डा0 रमा कान्त ने कहा कि ‘‘भारत में तम्बाकू से हर वर्ष 10 लाख से अधिक लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं। बच्चों और युवाओं को तम्बाकू कम्पनियों के प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष भ्रामक प्रचार से दूर रहना चाहिए और उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। उनको तम्बाकू सेवन की असली तस्वीर जो जानलेवा बीमारियों से जुड़ी है उससे परिचित होना चाहिए जिससे कि वें जिन्दगी चुनें, तम्बाकू नहीं’’।
प्रो0 डा0 रमा कान्त जिनको केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का अनुशंसा पुरूस्कार भी 1997 में मिल चुका है उन्होंने कहा कि ‘‘लगभग आधी तम्बाकू जनित मृत्यु 35-69 वर्ष के दौरान होती है। धूम्रपान से अधिकांश मरने वाले लोग अत्याधिक धूमपान नहीं करते थे परन्तु अधिकांश ने तम्बाकू सेवन युवावस्था में आरम्भ किया था। 30-40 साल के लोग जो तम्बाकू सेवन करते हैं, उनको हृदय रोग होने का पांच गुणा अधिक खतरा रहता है। तम्बाकू जनित हृदय रोग एवं कैंसर तम्बाकू व्यसनियों की मौत का सबसे बड़ा कारण है’’।
आज छात्रों के लिए एक वृत्तचित्र ‘तम्बाकू सेवन से होने वाले नुकसान’ भी प्रदर्शित किया गया जिसमें तम्बाकू के जानलेवा रोगों से ग्रसित लोगों का दास्तान है।
भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ २०१० - अमन के बढ़ते क़दम
२००५ में दिल्ली से मुल्तान तक पदयात्रा के बाद अब समय आ गया है कि शांति कारवाँ को पुन: कायम किया जाए. इस भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ का कार्यक्रम अभी तय नहीं हुआ है, और इस बात पर संवाद जारी है. संभवत: यह कारवाँ जुलाई २०१० के अंतिम सप्ताह से ले कर अगस्त २०१० के प्रथम सप्ताह तक आयोजित किया जा सकता है.
इस भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ के लिए संस्थानिक अनुमोदन आमंत्रित हैं.
जो लोग इस भारत पाकिस्तान शांति कारवाँ में हिस्सा लेना चाहें, कृपया कर के अपना पासपोर्ट विवरण और अन्य आवश्यक जानकारी सईदा दीप, पाकिस्तान (saeedadiep@yahoo.com) और राजेश्वर ओझा, भारत (rajeshwar.ojha@gmail.com) को भेजें:
नाम (जैसा कि पासपोर्ट में है):
पिता का नाम:
पासपोर्ट नंबर:
राष्ट्रीयता:
जन्म-तिथि:
पासपोर्ट किस जगह से जारी हुआ:
पासपोर्ट जारी करने की तारीख:
पासपोर्ट की समापन अवधि:
भारत एवं पाकिस्तान के अलावा अन्य देशों के नागरिक भी इस कारवाँ में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित है. अधिक जानकारी के लिए कृपया करके ई-ग्रुप के सदस्य बने. सदस्य बनने के लिए, ई -मेल भेजिए: indopakpeacecaravan-subscribe@yahoogroups.com or send email to: bobbyramakant@yahoo.com
डॉ संदीप पाण्डेय
(समन्वयक: जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय)
-----------------------
भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ - अमन के बढ़ते क़दम
शायद ऐसा दुनिया में कहीं भी नहीं होगा जैसा कि भारत एवं पाकिस्तान में है, कि लोग भावनात्मक रूप से इतनी घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं. परन्तु उनपर भी दुश्मनी और वैमनस्य का जहर उडेला जा रहा है. इतिहास का वह एक क्रूर मोड़ था जब राजनीतिक बंटवारा हुआ, जिसकी वजह से खून-खराबा हुआ और असंख्य लोगों की जानें गयीं. इन हादसों ने गहरे घाव दिए हैं और दोनों देशों के चैतन्य में ये जख्म अभी भी हरे हैं.
बंटवारे के बाद भारत पाकिस्तान के अशांत इतिहास में चार युद्ध हुए और अनगिनत मासूमों की जानें गयीं. भारत-पाकिस्तान संबंधों में कश्मीर आज भी एक नाजुक रग़ बना हुआ है जो दोनों देशों को स्व: विनाश की ओर ले जाने के खतरे का कारण भी है. दक्षिण एशिया में जो कट्टरपंथी वर्ग हैं वो ये सुनिश्चित करते हैं कि नफरत और वैरभाव की आग धधकती रहे और दोनों ओर जान-माल का भारी नुक्सान होता रहे.
दोनों ओर के आम लोग, जो हिंसा और वैरभाव के शिकार होते हैं, वे वास्तव में अमन, चैन और शांति चाहते हैं - उनका मत है कि दोनों ओर मैत्री और सामान्य संबंधों का माहौल बने. परन्तु दोनों देशों का जो कुलीन शासक वर्ग है वह एक दूसरे के प्रति शंका का भाव रखता है. परन्तु जब भी भारत पाकिस्तान के लोग आपस में मिलते हैं, तो ये सब दुर्भावनाएं विलिप्त हो जाती हैं और मुहब्बत, आपसी लगाव और सदभावना उमड़ती है - बिलकुल उसी तरह जैसे एक परिवार के लोग बरसों बिछड़ने के बाद आपस में मिल रहे हों. ऐतिहासिक कारणों की वजह से भौगोलिक सरहदें हमपर अवश्य थोपी गयी हैं, परन्तु दोनों देशों में लोगों के एक जैसे ही रीति-रिवाज़ और परम्पराएँ हैं, हमारी भाषा, संगीत, खान-पान, और जीवनशैली तक एक जैसी ही है - जिसके कारण नि:संदेह हो कर ये कहा जा सकता है कि दोनों ओर लोगों के मूल्य और चिंतन एक सा ही है. लोगों को सरहदों ने बांटा तो है, पर उनके दिल एक ही हैं.
हम लोगों का मानना है कि यदि दोनों देशों के मध्य सही अर्थों में शांति और दोस्ती कायम करनी है तो पहल लोगों को ही करनी होगी. अनेकों ऐसे प्रयास पिछले बरसों में हुए हैं जिनमें से भारत-पाकिस्तान (दिल्ली से मुल्तान तक) पदयात्रा २००५ एक है. सूफी संतों और कवियों ने प्रेम गीत गए थे जो आज भी दोनों देशों के लोगों के लिए प्रासंगिक हैं. इसी आपसी लगन और बंधुत्व के तारतम्य को मद्देनज़र रखते हुए २००५ दिल्ली-से-मुल्तान तक की पदयात्रा दिल्ली-स्थित सूफी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से आरंभ हुई और मुल्तान-स्थित संत बहाउद्दीन ज़कारिया की दरगाह पर समाप्त हुई थी. इस पदयात्रा ने दोनों देशों के शहरों, गाँव आदि से निकलते हुए प्रेम, शांति और बंधुत्व का सन्देश दिया. इसी के उपरांत अगस्त २००५ में दिल्ली में प्रथम परमाणु-रहित, वीसा-रहित दक्षिण एशिया सम्मलेन हुआ और दूसरा परमाणु-रहित, वीसा-रहित दक्षिण एशिया सम्मलेन २००७ में लाहोर में संपन्न हुआ. इस सम्मलेन को वार्षिक करने के प्रयासों को अनेकों अडचनों ने खंडित किया है, जिनमें से सबसे बड़ी चुनौती है दोनों देशों में व्याप्त वीसा प्रणाली.
जमीनी स्तर पर अनेकों ऐसी पहलों का होना अनिवार्य है जिससे कि दोनों देशों की सरकारों की सोच बदले. जो समस्याएँ दोनों देशों के लोग झेल रहे हैं वो सामान्य हैं - जैसे कि - गरीबी, बेरोज़गारी, वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की मार, स्वास्थ्य एवं शिक्षा से जुड़े हुए संगीन मुद्दे, आदि.
दोनों देशों के बीच व्यापार और वाणिज्य के लिए रुकावटों को क्रमिक रूप से ढीला करना और अंतत: हटाना, आम लोगों का सरहद पार आने-जाने में बढ़ोतरी करना, आदि जैसे कदम नि:संदेह शांति प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढ़ाएंगे. आर्थिक रूप से मजबूत भारत एवं पाकिस्तान ही संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिये शांति और समृद्धि का युग ला सकते हैं . लेन-देन एवं आपसी सहयोग से, कट्टर राष्ट्रवाद के बजाय दोस्ती एवं शांति के माहौल से ही दोनों देश विकास एवं उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होंगे.
बीते हुए दो सालों में दोनों सरकारों ने शान्ति की ओर कदम बढ़ाए हैं, परन्तु ये प्रयास शिथिल, धीमे, और रुक-रुक के हुए हैं. दोनों देश की सरकारों को आम शांति-प्रिय लोगों की आवाज़ को सुनाने के लिए ही हम सब एक और पहल करने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं - "भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ - अमन के बढ़ते क़दम" - जो मुंबई से कराची तक आयोजित किया जायेगा. इस शांति कारवाँ के जरिये, दोनों देशों के आम लोगों को अपनी शांति एवं दोस्ती की बात रखने का अवसर मिलेगा और ऐसा माहौल बनाने में मदद मिलेगी जिसमें दोनों देशों की सरकारों को वाजिब आवाजों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया जाए.
इस शांति कारवाँ के माध्यम से, हम लोगों से निम्नलिखत बिंदुओं पर सहयोग की अपेक्षा करते हैं:
१. सरहद के आर-पार लोगों के आने-जाने को आसान बनाया जाए. वर्तमान में सरहद के आर-पार आने-जाने पर अनेकों प्रकार के व्यवधान हैं - जिनमें से कुछ तो हास्यास्पद हैं. हम लोग चाहेंगे कि इन व्यवधानों को हटाया जाए, क्योंकि सरहद के आर पार लोगों के बीच प्रगाढ़ लगाव है. लोगों के बीच भावनात्मक जुडाव है - जो दोनों देशों की सरकारों के बीच व्याप्त नफरत और शंका के ठीक विपरीत है! दोनों देशों की सरकारों को लोगों की इच्छाओं एवं अरमानों को अनसुना नहीं करना चाहिए, और लोगों को बिना रोकटोक के आने-जाने और मिलने-जुलने के लिए छूट मिलनी चाहिए. असल में तो वीसा-पासपोर्ट प्रणाली को हटाना चाहिए.
२. आम लोगों की भावना का आदर करते हुए भारत-पाकिस्तान को बिना-शर्त दोस्ती कायम करनी चाहिए और सभी मुद्दों को बात-चीत से सुलझाना चाहिए जिससे कि अमन का वातावरण कायम हो सके. भारत-पाकिस्तान के मध्य सारे संगीन मुद्दों को शांति वार्ता के जरिये ही सुलझाना चाहिए. इन मुद्दों में कश्मीर का मुद्दा भी शामिल है (जिसका हल हमारी राय में जम्मू एवं कश्मीर के लोगों को शामिल करके ही ढूँढा जा सकता है), और आतंक-सम्बंधित गतिविधियाँ भी जिसके शिकार दोनों देश के लोग होते रहे हैं.
३. भारत एवं पाकिस्तान को अपने-अपने परमाणु कारखानों को जल्दी-से-जल्दी दुष्क्रियाशील करना चाहिए. दोनों देशों को बारूदी सुरंगों को नष्ट करना चाहिए और फौजों को वापस बैरकों में भेज देना चाहिए. हमारा मानना है कि दोनों देशों को अपने बहुमूल्य संसाधनों को रक्षा-बजट के नाम पर व्यर्थ गंवाना बंद करना चाहिए और इन संसाधनों से गरीबी हटाने में व्यय करना चाहिए. जो लोग इस शांति कारवाँ का हिस्सा हैं उनका मानना है कि सच्ची सुरक्षा हथियारों के ढेर इकठ्ठे करने से नहीं आती बल्कि सच्ची सुरक्षा आपसी विश्वास और भरोसे पर स्थापित संबंधों से ही आती है. हकीकत यह है कि परमाणु बम एवं बारूदी सुरंगों से 'दुश्मन' को क्षति पहुँचने के बजाय अपने ही लोगों को कहीं अधिक नुक्सान पहुँच रहा है, इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा की ये हथियार जन-विरोधी हैं.
४. दोनों देशों के बीच लुका-छुपी और लघु-तीव्रता वाला युद्ध समाप्त हो और दोनों देशों की गुप्तचर संस्थाएं पर रोक लगे, ताकि सरहद के पार अशांति उत्पन्न न हो.
शांति और विकास सिर्फ विश्वास और आपसी सद्भावना वाले वातावरण में ही संभव है - इस शांति कारवाँ का यह स्पष्ट सन्देश है. हम भलीभांति जानते हैं कि हमारे लक्ष्य सिर्फ इस प्रयास से नहीं हासिल हो सकते. हम यह भी मानते हैं कि दोनों देशों के लोगों द्वारा किये जा रहे अनेकों शांति प्रयासों में यह शांति कारवाँ एक है. आइये हम सब एकजुट हो कर इस शांति प्रक्रिया को निरंतर बढ़ाते रहे जिससे कि न केवल भारत-पाकिस्तान के मध्य बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशिया में भी आपसी विश्वास, सद्भावना और शांति का वातावरण बना रहे.
इस भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ के लिए संस्थानिक अनुमोदन आमंत्रित हैं.
जो लोग इस भारत पाकिस्तान शांति कारवाँ में हिस्सा लेना चाहें, कृपया कर के अपना पासपोर्ट विवरण और अन्य आवश्यक जानकारी सईदा दीप, पाकिस्तान (saeedadiep@yahoo.com) और राजेश्वर ओझा, भारत (rajeshwar.ojha@gmail.com) को भेजें:
नाम (जैसा कि पासपोर्ट में है):
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भारत एवं पाकिस्तान के अलावा अन्य देशों के नागरिक भी इस कारवाँ में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित है. अधिक जानकारी के लिए कृपया करके ई-ग्रुप के सदस्य बने. सदस्य बनने के लिए, ई -मेल भेजिए: indopakpeacecaravan-subscribe@yahoogroups.com or send email to: bobbyramakant@yahoo.com
डॉ संदीप पाण्डेय
(समन्वयक: जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय)
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भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ - अमन के बढ़ते क़दम
शायद ऐसा दुनिया में कहीं भी नहीं होगा जैसा कि भारत एवं पाकिस्तान में है, कि लोग भावनात्मक रूप से इतनी घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं. परन्तु उनपर भी दुश्मनी और वैमनस्य का जहर उडेला जा रहा है. इतिहास का वह एक क्रूर मोड़ था जब राजनीतिक बंटवारा हुआ, जिसकी वजह से खून-खराबा हुआ और असंख्य लोगों की जानें गयीं. इन हादसों ने गहरे घाव दिए हैं और दोनों देशों के चैतन्य में ये जख्म अभी भी हरे हैं.
बंटवारे के बाद भारत पाकिस्तान के अशांत इतिहास में चार युद्ध हुए और अनगिनत मासूमों की जानें गयीं. भारत-पाकिस्तान संबंधों में कश्मीर आज भी एक नाजुक रग़ बना हुआ है जो दोनों देशों को स्व: विनाश की ओर ले जाने के खतरे का कारण भी है. दक्षिण एशिया में जो कट्टरपंथी वर्ग हैं वो ये सुनिश्चित करते हैं कि नफरत और वैरभाव की आग धधकती रहे और दोनों ओर जान-माल का भारी नुक्सान होता रहे.
दोनों ओर के आम लोग, जो हिंसा और वैरभाव के शिकार होते हैं, वे वास्तव में अमन, चैन और शांति चाहते हैं - उनका मत है कि दोनों ओर मैत्री और सामान्य संबंधों का माहौल बने. परन्तु दोनों देशों का जो कुलीन शासक वर्ग है वह एक दूसरे के प्रति शंका का भाव रखता है. परन्तु जब भी भारत पाकिस्तान के लोग आपस में मिलते हैं, तो ये सब दुर्भावनाएं विलिप्त हो जाती हैं और मुहब्बत, आपसी लगाव और सदभावना उमड़ती है - बिलकुल उसी तरह जैसे एक परिवार के लोग बरसों बिछड़ने के बाद आपस में मिल रहे हों. ऐतिहासिक कारणों की वजह से भौगोलिक सरहदें हमपर अवश्य थोपी गयी हैं, परन्तु दोनों देशों में लोगों के एक जैसे ही रीति-रिवाज़ और परम्पराएँ हैं, हमारी भाषा, संगीत, खान-पान, और जीवनशैली तक एक जैसी ही है - जिसके कारण नि:संदेह हो कर ये कहा जा सकता है कि दोनों ओर लोगों के मूल्य और चिंतन एक सा ही है. लोगों को सरहदों ने बांटा तो है, पर उनके दिल एक ही हैं.
हम लोगों का मानना है कि यदि दोनों देशों के मध्य सही अर्थों में शांति और दोस्ती कायम करनी है तो पहल लोगों को ही करनी होगी. अनेकों ऐसे प्रयास पिछले बरसों में हुए हैं जिनमें से भारत-पाकिस्तान (दिल्ली से मुल्तान तक) पदयात्रा २००५ एक है. सूफी संतों और कवियों ने प्रेम गीत गए थे जो आज भी दोनों देशों के लोगों के लिए प्रासंगिक हैं. इसी आपसी लगन और बंधुत्व के तारतम्य को मद्देनज़र रखते हुए २००५ दिल्ली-से-मुल्तान तक की पदयात्रा दिल्ली-स्थित सूफी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से आरंभ हुई और मुल्तान-स्थित संत बहाउद्दीन ज़कारिया की दरगाह पर समाप्त हुई थी. इस पदयात्रा ने दोनों देशों के शहरों, गाँव आदि से निकलते हुए प्रेम, शांति और बंधुत्व का सन्देश दिया. इसी के उपरांत अगस्त २००५ में दिल्ली में प्रथम परमाणु-रहित, वीसा-रहित दक्षिण एशिया सम्मलेन हुआ और दूसरा परमाणु-रहित, वीसा-रहित दक्षिण एशिया सम्मलेन २००७ में लाहोर में संपन्न हुआ. इस सम्मलेन को वार्षिक करने के प्रयासों को अनेकों अडचनों ने खंडित किया है, जिनमें से सबसे बड़ी चुनौती है दोनों देशों में व्याप्त वीसा प्रणाली.
जमीनी स्तर पर अनेकों ऐसी पहलों का होना अनिवार्य है जिससे कि दोनों देशों की सरकारों की सोच बदले. जो समस्याएँ दोनों देशों के लोग झेल रहे हैं वो सामान्य हैं - जैसे कि - गरीबी, बेरोज़गारी, वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की मार, स्वास्थ्य एवं शिक्षा से जुड़े हुए संगीन मुद्दे, आदि.
दोनों देशों के बीच व्यापार और वाणिज्य के लिए रुकावटों को क्रमिक रूप से ढीला करना और अंतत: हटाना, आम लोगों का सरहद पार आने-जाने में बढ़ोतरी करना, आदि जैसे कदम नि:संदेह शांति प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढ़ाएंगे. आर्थिक रूप से मजबूत भारत एवं पाकिस्तान ही संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिये शांति और समृद्धि का युग ला सकते हैं . लेन-देन एवं आपसी सहयोग से, कट्टर राष्ट्रवाद के बजाय दोस्ती एवं शांति के माहौल से ही दोनों देश विकास एवं उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होंगे.
बीते हुए दो सालों में दोनों सरकारों ने शान्ति की ओर कदम बढ़ाए हैं, परन्तु ये प्रयास शिथिल, धीमे, और रुक-रुक के हुए हैं. दोनों देश की सरकारों को आम शांति-प्रिय लोगों की आवाज़ को सुनाने के लिए ही हम सब एक और पहल करने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं - "भारत-पाकिस्तान शांति कारवाँ - अमन के बढ़ते क़दम" - जो मुंबई से कराची तक आयोजित किया जायेगा. इस शांति कारवाँ के जरिये, दोनों देशों के आम लोगों को अपनी शांति एवं दोस्ती की बात रखने का अवसर मिलेगा और ऐसा माहौल बनाने में मदद मिलेगी जिसमें दोनों देशों की सरकारों को वाजिब आवाजों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया जाए.
इस शांति कारवाँ के माध्यम से, हम लोगों से निम्नलिखत बिंदुओं पर सहयोग की अपेक्षा करते हैं:
१. सरहद के आर-पार लोगों के आने-जाने को आसान बनाया जाए. वर्तमान में सरहद के आर-पार आने-जाने पर अनेकों प्रकार के व्यवधान हैं - जिनमें से कुछ तो हास्यास्पद हैं. हम लोग चाहेंगे कि इन व्यवधानों को हटाया जाए, क्योंकि सरहद के आर पार लोगों के बीच प्रगाढ़ लगाव है. लोगों के बीच भावनात्मक जुडाव है - जो दोनों देशों की सरकारों के बीच व्याप्त नफरत और शंका के ठीक विपरीत है! दोनों देशों की सरकारों को लोगों की इच्छाओं एवं अरमानों को अनसुना नहीं करना चाहिए, और लोगों को बिना रोकटोक के आने-जाने और मिलने-जुलने के लिए छूट मिलनी चाहिए. असल में तो वीसा-पासपोर्ट प्रणाली को हटाना चाहिए.
२. आम लोगों की भावना का आदर करते हुए भारत-पाकिस्तान को बिना-शर्त दोस्ती कायम करनी चाहिए और सभी मुद्दों को बात-चीत से सुलझाना चाहिए जिससे कि अमन का वातावरण कायम हो सके. भारत-पाकिस्तान के मध्य सारे संगीन मुद्दों को शांति वार्ता के जरिये ही सुलझाना चाहिए. इन मुद्दों में कश्मीर का मुद्दा भी शामिल है (जिसका हल हमारी राय में जम्मू एवं कश्मीर के लोगों को शामिल करके ही ढूँढा जा सकता है), और आतंक-सम्बंधित गतिविधियाँ भी जिसके शिकार दोनों देश के लोग होते रहे हैं.
३. भारत एवं पाकिस्तान को अपने-अपने परमाणु कारखानों को जल्दी-से-जल्दी दुष्क्रियाशील करना चाहिए. दोनों देशों को बारूदी सुरंगों को नष्ट करना चाहिए और फौजों को वापस बैरकों में भेज देना चाहिए. हमारा मानना है कि दोनों देशों को अपने बहुमूल्य संसाधनों को रक्षा-बजट के नाम पर व्यर्थ गंवाना बंद करना चाहिए और इन संसाधनों से गरीबी हटाने में व्यय करना चाहिए. जो लोग इस शांति कारवाँ का हिस्सा हैं उनका मानना है कि सच्ची सुरक्षा हथियारों के ढेर इकठ्ठे करने से नहीं आती बल्कि सच्ची सुरक्षा आपसी विश्वास और भरोसे पर स्थापित संबंधों से ही आती है. हकीकत यह है कि परमाणु बम एवं बारूदी सुरंगों से 'दुश्मन' को क्षति पहुँचने के बजाय अपने ही लोगों को कहीं अधिक नुक्सान पहुँच रहा है, इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा की ये हथियार जन-विरोधी हैं.
४. दोनों देशों के बीच लुका-छुपी और लघु-तीव्रता वाला युद्ध समाप्त हो और दोनों देशों की गुप्तचर संस्थाएं पर रोक लगे, ताकि सरहद के पार अशांति उत्पन्न न हो.
शांति और विकास सिर्फ विश्वास और आपसी सद्भावना वाले वातावरण में ही संभव है - इस शांति कारवाँ का यह स्पष्ट सन्देश है. हम भलीभांति जानते हैं कि हमारे लक्ष्य सिर्फ इस प्रयास से नहीं हासिल हो सकते. हम यह भी मानते हैं कि दोनों देशों के लोगों द्वारा किये जा रहे अनेकों शांति प्रयासों में यह शांति कारवाँ एक है. आइये हम सब एकजुट हो कर इस शांति प्रक्रिया को निरंतर बढ़ाते रहे जिससे कि न केवल भारत-पाकिस्तान के मध्य बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशिया में भी आपसी विश्वास, सद्भावना और शांति का वातावरण बना रहे.
विश्व स्वास्थ्य दिवस
विश्व स्वास्थ्य दिवस
विश्व स्वास्थ्य दिवस सात अप्रैल को मनाया जाता है. इसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) की स्थापना हुई थी. वर्ष २०१० का यह दिवस शहरीकरण एवं स्वास्थ्य को समर्पित है. इस वर्ष का अभियान '१००० शहर, १००० जीवन', मानव स्वास्थ्य पर शहरीकरण के प्रभावों को विशिष्ट रूप से दर्शाते हुए शहरों को एक बेहतर रहने लायक जगह बनाने पर जोर देता है.
आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आसपास के वातावरण को साफ़ सुथरा रखते हुए स्वयं को स्वस्थ रखें. स्वस्थ शरीर, स्वस्थ विचार एवं स्वस्थ बुद्धि का मूर्त रूप ही आरोग्य है. आरोग्य वह अवस्था है जिसमें हम प्रकृति एवं वातावरण से सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन का आनंद लेते हैं. हम वास्तविक रूप से तभी स्वस्थ होते हैं जब हम स्वयं को मानसिक, भौतिक, भावात्मक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पर स्वस्थ अनुभव करते हैं.
अपनी वर्त्तमान जीवन शैली में उचित बदलाव लाकर हम अपनी दवाइयों का खर्चा कम कर सकते हैं. केवल उचित खान पान ही नहीं, वरन उचित विचार एवं उचित आचरण द्वारा ही हम निरोग हो सकते हैं. माता पिता और अभिभावकों को बच्चों को सही आहार और साफ़ सफाई से रहने के साथ साथ एक अच्छा इंसान बनने की भी शिक्षा देनी चाहिए.
डायबिटीज़,उच्च रक्त चाप, एवं ह्रदय रोग जैसी बीमारियों के प्रमुख कारण हैं वसा युक्त एवं रेशा हीन आहार तथा शारीरिक श्रम का अभाव. पढ़े लिखे माता पिता भी अपने नन्हे मुन्नों को पिज्जा और बर्गर खिलाने तथा कोका कोला से कुल्ला कराने में अपनी शान समझते हैं. इस प्रकार उनका स्वाद फास्ट फ़ूड के लिए विकसित होकर, घर के पौष्टिक खाने को नकारने लगता है. अब तो गावों में भी कोकाकोला, चिप्स और डबलरोटी का खूब प्रचलन हो गया है. आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम जान बूझ कर रोगों के जाल में फंसते चले जा रहे हैं.
'न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन' में छपे एक नवीन अध्ययन के अनुसार चीन में, नागरिकों में बढ़ती हुई सम्पन्नता के चलते, डायबिटीज़ एक महामारी के रूप में फैल रही है. भारत तथा अन्य एशियाई देशों में भी स्थिति खराब है. भारत में स्थूल बच्चों के साथ साथ कुपोषण के शिकार बच्चों की भी बहुतायत है. मोटापा हमें शारीरिक रूप से ही क्षतिग्रस्त नहीं करता, वरन मानसिक रूप से भी अस्वस्थ बनाता है.
रही सही कसर कम्प्यूटर और मोबाइल फोन ने पूरी कर दी है. बच्चे अपने खाली समय में इन्ही उपकरणों से चिपके रहते हैं. दौड़ने, खेलने कूदने जैसे बाह्य क्रिया कलापों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं. इंटरनेट और वीडियो गेम की लत, एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है, जिसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. ज़िम्मेदार नागरिकों की हैसियत से हमें अपने रहने के स्थानों में 'उपवन संस्कृति' को फिर से वापस लाना होगा, ताकि खुली हवा में साँस लेते हुए, हम शारीरिक व्यायाम के लाभ उठा सकें. स्कूल कॉलेजों में खेलकूद और योगाभ्यास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. मोटर बाइक और कार के स्थान पर युवक युवतियों में सायकिल चलाना एक आधुनिक फैशन के रूप में विकसित करना होगा.
जहाँ एक ओर हम फास्ट फ़ूड के मामले में पश्चिमी देशों की नक़ल करते हैं, वहीं साफ़ सफाई के मामले में अपनी आँखें मूँद लेते हैं. अपने घर का कूड़ा पड़ोसी के घर के आगे अथवा सड़क पर फ़ेंक कर हम अपनी स्वच्छता का परिचय देने में गर्व का अनुभव करते हैं. यदि इस दिशा में हम सभी थोड़ी सी भी सावधानी बरत लें तो अनेक संक्रामक रोगों को नियंत्रित किया जा सकेगा. प्राय: उच्च वर्ग के बालक बालिकाएं भी सड़क पर चॉकलेट /आइसक्रीम के रैपर तथा संतरे/केले के छिलके फेंकते हुए देखे जा सकते हैं. झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों की बात तो जाने ही दीजिये.
सडकों पर, या कहीं पर भी, थूकना तो भारतीय पुरुषों का जन्म सिद्ध अधिकार है. भवनों के गलियारों और दीवारों को पान की पीक से लाल करने में हमें तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने बारहवीं कक्षा तक पर्यावरण शिक्षा विषय तो अनिवार्य बना दिया है , परन्तु हमारी कूड़े के ढ़ेर लगाने की आदत पर अंकुश लगाना भी अनिवार्य है.
अनुचित लाड़ प्यार के चलते, कई माता पिता अपने कम उम्र के बच्चों का ड्राइविंग लाइसेंस बनवा देते हैं, और कई बार अपनी गन/रिवॉल्वर उनकी पहुँच के अन्दर रखते हैं. इस असावधानी के कारण आये दिन अनेक दुर्घटनाएं घटती हैं और हादसे के शिकार व्यक्तियों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है.
जब हम स्वयं के साथ शान्ति अनुभव नहीं करते तो हम मानसिक एवम् भावात्मक व्याधियों से ग्रस्त हो जाते हैं. आक्रामक एवम् हिंसात्मक विचार हमारी सोच को नकारात्मक बना देते हैं, तथा हमारा ह्रदय क्रोध, द्वेष और ईर्ष्या से भर उठता है. टेलिविज़न तथा अन्य संस्थाओं द्वारा बच्चों /वयस्कों के लिए आयोजित रियालिटी शोज़ एवम् अनेक प्रकार कि प्रतिस्पर्धाएं अधिकाँश प्रतियोगियों की मानसिकता को गलत तरीके से प्रभावित करती हैं. रुपयों की इस अंधी दौड़ में भाग कर हम अपने मानसिक एवम् शारीरिक स्वास्थ्य का सत्यानाश कर रहे हैं. अपनी प्रतिभा का विकास करना अच्छी बात है. परन्तु केवल पैसे कमाने के उद्देश्य से नहीं. हम केवल निर्मल आनंद के लिए अपनी नृत्य,गायन, खेलकूद की रुचियों को विकसित क्यों नहीं करते? आधुनिक युग की 'चूहा दौड़' हमें एक स्वस्थ इंसान से एक बीमार जानवर बना रही है.
हाल ही में सिंगापुर में हुए एक स्वास्थ्य सेवा सम्मलेन में विशेषज्ञों ने माना कि एशिया की स्वास्थ्य सेवाएँ आधुनिक जीवन शैली की व्याधियों के बोझ तले दबी जा रही हैं. स्वाइन/बर्ड फ़्लू और तपेदिक जैसे संक्रामक रोगों के साथ साथ आर्थिक सम्पन्नता से जुड़ी हुई असंक्रामक बीमारियों का भार दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. तम्बाकू एवम् धूम्रपान का व्यसन भी भारत समेत अन्य देशों में लाखों लोगों की सेहत पर सवालिया निशान लगा रहा है. सिगरेट एवम् गुटखा निर्माताओं की आक्रामक विज्ञापन तकनीक के आगे, सारे तम्बाकू विरोधी अभियान असफल सिद्ध होते प्रतीत हो रहे हैं. ये कम्पनियां मर्दानगी, आधुनिकता और तनाव-मुक्ति के नाम पर जनता को विष बेच रही हैं, और इनके विरुद्ध कोई भी कार्यवाही नहीं की जा रही है. तम्बाकू सेवन का सीधा सम्बन्ध श्वास एवम् फेफड़े की बीमारियों से है, जैसे कि अस्थमा, तपेदिक आदि. क्या ही अच्छा होता यदि हम तम्बाकू युक्त पान मसाला चबाने के स्थान पर लौंग, इलाइची या सौंफ जैसी गुणकारी वस्तुओं का सेवन करने की बुद्धि रखते.
किसी भी देश का स्वास्थ्य उसके बच्चों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है. और केवल स्वस्थ माँ ही एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है. परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि अधिकाँश भारतीय परिवारों में महिलाओं के स्वास्थ्य को वरीयता नहीं दी जाती. पत्नी एवम् माता की परम्परागत भूमिका में, स्त्री का कर्त्तव्य परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल करना है, न कि स्वयं अपनी. भारतीय समाज आज के युग में भी लिंग के आधार पर भूमिकाएं निर्धारित करने में विश्वास रखता है. लड़कों को अविचारी और उग्रवादी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, तथा लड़कियों को शरमीला और सहनशील. आगे चल कर यह असामनता ढीठ/आडम्बरी पति तथा विचारों और मानसिक/शारीरिक रूप से कुपोषित पत्नी के रूप में प्रतिबिंबित होती है. महिलाओं को जीवन पर्यंत भिन्न प्रकार के तिरस्कारों का सामना करना पड़ता है, फिर चाहे वो लिंग आधारित भ्रूड हत्या हो,
दहेज़ न लाने के नाम पर जलाया जाना हो, अथवा बलात्कार का शिकार होना हो. जो देश महिलाओं का सम्मान करना नहीं जानता, वह वास्तव में एक रोगी देश है.
समाज में ऐसे सुधार लाने की आवश्यकता है जिनके द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं न केवल टीकाकरण और स्वच्छता को बढ़ावा दें, वरन जन मानस को संतुलित आहार, स्वस्थ जीवन शैली और नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा भी प्रदान करें. यदि हमारे मन में शान्ति, प्रेम, अहिंसा के भाव होंगे, तथा हम अमीरी के भड़कीले दिखावे से दूर रहेंगे,तो वास्तव में हमारा जीवन रोगमुक्त हो सकेगा. स्वस्थ रहने के लिए प्रसन्न रहना आवश्यक है. और प्रसन्नता तभी मिलेगी जब हम द्वेष के स्थान पर आनंद बाँटे. तभी गाँव गाँव और शहर शहर में एक स्वस्थ और खुशहाल वातावरण बन पायेगा.
शोभा शुक्ला,
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
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विश्व स्वास्थ्य दिवस सात अप्रैल को मनाया जाता है. इसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) की स्थापना हुई थी. वर्ष २०१० का यह दिवस शहरीकरण एवं स्वास्थ्य को समर्पित है. इस वर्ष का अभियान '१००० शहर, १००० जीवन', मानव स्वास्थ्य पर शहरीकरण के प्रभावों को विशिष्ट रूप से दर्शाते हुए शहरों को एक बेहतर रहने लायक जगह बनाने पर जोर देता है.
आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आसपास के वातावरण को साफ़ सुथरा रखते हुए स्वयं को स्वस्थ रखें. स्वस्थ शरीर, स्वस्थ विचार एवं स्वस्थ बुद्धि का मूर्त रूप ही आरोग्य है. आरोग्य वह अवस्था है जिसमें हम प्रकृति एवं वातावरण से सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन का आनंद लेते हैं. हम वास्तविक रूप से तभी स्वस्थ होते हैं जब हम स्वयं को मानसिक, भौतिक, भावात्मक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पर स्वस्थ अनुभव करते हैं.
अपनी वर्त्तमान जीवन शैली में उचित बदलाव लाकर हम अपनी दवाइयों का खर्चा कम कर सकते हैं. केवल उचित खान पान ही नहीं, वरन उचित विचार एवं उचित आचरण द्वारा ही हम निरोग हो सकते हैं. माता पिता और अभिभावकों को बच्चों को सही आहार और साफ़ सफाई से रहने के साथ साथ एक अच्छा इंसान बनने की भी शिक्षा देनी चाहिए.
डायबिटीज़,उच्च रक्त चाप, एवं ह्रदय रोग जैसी बीमारियों के प्रमुख कारण हैं वसा युक्त एवं रेशा हीन आहार तथा शारीरिक श्रम का अभाव. पढ़े लिखे माता पिता भी अपने नन्हे मुन्नों को पिज्जा और बर्गर खिलाने तथा कोका कोला से कुल्ला कराने में अपनी शान समझते हैं. इस प्रकार उनका स्वाद फास्ट फ़ूड के लिए विकसित होकर, घर के पौष्टिक खाने को नकारने लगता है. अब तो गावों में भी कोकाकोला, चिप्स और डबलरोटी का खूब प्रचलन हो गया है. आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम जान बूझ कर रोगों के जाल में फंसते चले जा रहे हैं.
'न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन' में छपे एक नवीन अध्ययन के अनुसार चीन में, नागरिकों में बढ़ती हुई सम्पन्नता के चलते, डायबिटीज़ एक महामारी के रूप में फैल रही है. भारत तथा अन्य एशियाई देशों में भी स्थिति खराब है. भारत में स्थूल बच्चों के साथ साथ कुपोषण के शिकार बच्चों की भी बहुतायत है. मोटापा हमें शारीरिक रूप से ही क्षतिग्रस्त नहीं करता, वरन मानसिक रूप से भी अस्वस्थ बनाता है.
रही सही कसर कम्प्यूटर और मोबाइल फोन ने पूरी कर दी है. बच्चे अपने खाली समय में इन्ही उपकरणों से चिपके रहते हैं. दौड़ने, खेलने कूदने जैसे बाह्य क्रिया कलापों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हैं. इंटरनेट और वीडियो गेम की लत, एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है, जिसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. ज़िम्मेदार नागरिकों की हैसियत से हमें अपने रहने के स्थानों में 'उपवन संस्कृति' को फिर से वापस लाना होगा, ताकि खुली हवा में साँस लेते हुए, हम शारीरिक व्यायाम के लाभ उठा सकें. स्कूल कॉलेजों में खेलकूद और योगाभ्यास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. मोटर बाइक और कार के स्थान पर युवक युवतियों में सायकिल चलाना एक आधुनिक फैशन के रूप में विकसित करना होगा.
जहाँ एक ओर हम फास्ट फ़ूड के मामले में पश्चिमी देशों की नक़ल करते हैं, वहीं साफ़ सफाई के मामले में अपनी आँखें मूँद लेते हैं. अपने घर का कूड़ा पड़ोसी के घर के आगे अथवा सड़क पर फ़ेंक कर हम अपनी स्वच्छता का परिचय देने में गर्व का अनुभव करते हैं. यदि इस दिशा में हम सभी थोड़ी सी भी सावधानी बरत लें तो अनेक संक्रामक रोगों को नियंत्रित किया जा सकेगा. प्राय: उच्च वर्ग के बालक बालिकाएं भी सड़क पर चॉकलेट /आइसक्रीम के रैपर तथा संतरे/केले के छिलके फेंकते हुए देखे जा सकते हैं. झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों की बात तो जाने ही दीजिये.
सडकों पर, या कहीं पर भी, थूकना तो भारतीय पुरुषों का जन्म सिद्ध अधिकार है. भवनों के गलियारों और दीवारों को पान की पीक से लाल करने में हमें तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने बारहवीं कक्षा तक पर्यावरण शिक्षा विषय तो अनिवार्य बना दिया है , परन्तु हमारी कूड़े के ढ़ेर लगाने की आदत पर अंकुश लगाना भी अनिवार्य है.
अनुचित लाड़ प्यार के चलते, कई माता पिता अपने कम उम्र के बच्चों का ड्राइविंग लाइसेंस बनवा देते हैं, और कई बार अपनी गन/रिवॉल्वर उनकी पहुँच के अन्दर रखते हैं. इस असावधानी के कारण आये दिन अनेक दुर्घटनाएं घटती हैं और हादसे के शिकार व्यक्तियों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है.
जब हम स्वयं के साथ शान्ति अनुभव नहीं करते तो हम मानसिक एवम् भावात्मक व्याधियों से ग्रस्त हो जाते हैं. आक्रामक एवम् हिंसात्मक विचार हमारी सोच को नकारात्मक बना देते हैं, तथा हमारा ह्रदय क्रोध, द्वेष और ईर्ष्या से भर उठता है. टेलिविज़न तथा अन्य संस्थाओं द्वारा बच्चों /वयस्कों के लिए आयोजित रियालिटी शोज़ एवम् अनेक प्रकार कि प्रतिस्पर्धाएं अधिकाँश प्रतियोगियों की मानसिकता को गलत तरीके से प्रभावित करती हैं. रुपयों की इस अंधी दौड़ में भाग कर हम अपने मानसिक एवम् शारीरिक स्वास्थ्य का सत्यानाश कर रहे हैं. अपनी प्रतिभा का विकास करना अच्छी बात है. परन्तु केवल पैसे कमाने के उद्देश्य से नहीं. हम केवल निर्मल आनंद के लिए अपनी नृत्य,गायन, खेलकूद की रुचियों को विकसित क्यों नहीं करते? आधुनिक युग की 'चूहा दौड़' हमें एक स्वस्थ इंसान से एक बीमार जानवर बना रही है.
हाल ही में सिंगापुर में हुए एक स्वास्थ्य सेवा सम्मलेन में विशेषज्ञों ने माना कि एशिया की स्वास्थ्य सेवाएँ आधुनिक जीवन शैली की व्याधियों के बोझ तले दबी जा रही हैं. स्वाइन/बर्ड फ़्लू और तपेदिक जैसे संक्रामक रोगों के साथ साथ आर्थिक सम्पन्नता से जुड़ी हुई असंक्रामक बीमारियों का भार दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. तम्बाकू एवम् धूम्रपान का व्यसन भी भारत समेत अन्य देशों में लाखों लोगों की सेहत पर सवालिया निशान लगा रहा है. सिगरेट एवम् गुटखा निर्माताओं की आक्रामक विज्ञापन तकनीक के आगे, सारे तम्बाकू विरोधी अभियान असफल सिद्ध होते प्रतीत हो रहे हैं. ये कम्पनियां मर्दानगी, आधुनिकता और तनाव-मुक्ति के नाम पर जनता को विष बेच रही हैं, और इनके विरुद्ध कोई भी कार्यवाही नहीं की जा रही है. तम्बाकू सेवन का सीधा सम्बन्ध श्वास एवम् फेफड़े की बीमारियों से है, जैसे कि अस्थमा, तपेदिक आदि. क्या ही अच्छा होता यदि हम तम्बाकू युक्त पान मसाला चबाने के स्थान पर लौंग, इलाइची या सौंफ जैसी गुणकारी वस्तुओं का सेवन करने की बुद्धि रखते.
किसी भी देश का स्वास्थ्य उसके बच्चों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है. और केवल स्वस्थ माँ ही एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है. परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि अधिकाँश भारतीय परिवारों में महिलाओं के स्वास्थ्य को वरीयता नहीं दी जाती. पत्नी एवम् माता की परम्परागत भूमिका में, स्त्री का कर्त्तव्य परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल करना है, न कि स्वयं अपनी. भारतीय समाज आज के युग में भी लिंग के आधार पर भूमिकाएं निर्धारित करने में विश्वास रखता है. लड़कों को अविचारी और उग्रवादी बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, तथा लड़कियों को शरमीला और सहनशील. आगे चल कर यह असामनता ढीठ/आडम्बरी पति तथा विचारों और मानसिक/शारीरिक रूप से कुपोषित पत्नी के रूप में प्रतिबिंबित होती है. महिलाओं को जीवन पर्यंत भिन्न प्रकार के तिरस्कारों का सामना करना पड़ता है, फिर चाहे वो लिंग आधारित भ्रूड हत्या हो,
दहेज़ न लाने के नाम पर जलाया जाना हो, अथवा बलात्कार का शिकार होना हो. जो देश महिलाओं का सम्मान करना नहीं जानता, वह वास्तव में एक रोगी देश है.
समाज में ऐसे सुधार लाने की आवश्यकता है जिनके द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं न केवल टीकाकरण और स्वच्छता को बढ़ावा दें, वरन जन मानस को संतुलित आहार, स्वस्थ जीवन शैली और नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा भी प्रदान करें. यदि हमारे मन में शान्ति, प्रेम, अहिंसा के भाव होंगे, तथा हम अमीरी के भड़कीले दिखावे से दूर रहेंगे,तो वास्तव में हमारा जीवन रोगमुक्त हो सकेगा. स्वस्थ रहने के लिए प्रसन्न रहना आवश्यक है. और प्रसन्नता तभी मिलेगी जब हम द्वेष के स्थान पर आनंद बाँटे. तभी गाँव गाँव और शहर शहर में एक स्वस्थ और खुशहाल वातावरण बन पायेगा.
शोभा शुक्ला,
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
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