संदीप पाण्डेय, सिटिज़न न्यूज सर्विस - सीएनएस
रीता कनौजिया, एक घरेलू कामगार जो चेम्बूर, मुम्बई की एक झुग्गी बस्ती में रहती है अपने बेटे कार्तिक का दाखिला तिलक नगर के लोकमान्य तिलक हाई स्कूल के जूनियर के.जी. कक्षा में चाहती है। उसकी दो बेटियां पहले से ही इस विद्यालय की कक्षा 3 व 4 की छात्राएं हैं। विद्यालय लड़के के दाखिले के लिए रु. 19,500 मांग रहा था जो 2014 में अपने पति की मृत्यु के बाद अब रीता के लिए दे पाना सम्भव नहीं। वह न्यायालय की शरण में गई। न्यायालय के हस्तक्षेप से शुल्क कुछ कम हुआ किंतु रु. 10,500 की राशि भी उसके लिए एक मुश्त दे पाना आसान नहीं था।
विद्यालय किश्तों में पैसा लेने को तैयार नहीं। न्यायमूर्ति वी.एम. कनाडे व एम.एस. सोनक की खण्डपीठ ने विद्यालय को आदेश दिया कि वह सिर्फ मां की एक मुश्त शुल्क न दे पाने की क्षमता के कारण बच्चे को शिक्षा से वंचित न करे। न्यायमूर्ति कनाडे ने अपनी जेब से शुल्क अदा करने की पेशकश की। तमिल नाडू के इरोड जिले के जिलाधिकारी ए. आनंदकुमार ने अपनी पुत्री ए. गोपिका का दाखिला कुमुईलनकुट्टई के पंचायत संघ द्वारा संचालित तमिल माध्यम के प्राथमिक विद्यालय में कराया और प्रधानाचार्या को आदेश दिया कि उनकी लड़की को वही मध्यान्ह भोजन दिया जाए जो अन्य बच्चे खाएं, यानी उसे कोई विशेष महत्व न दिया जाए। अब इस विद्यालय के शौचालय की दिन में दो बार सफाई होती है और परिसर को प्रयासपूर्वक साफ-सुथरा रखा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात शिक्षक समय से आने लगे हैं। यह दिखाता है यदि वरिष्ठ अधिकारियों के बच्चे सरकारी विद्यालय में पढ़ने लगें तो विद्यालयों की दशा कैसे आश्चर्यजनक ढंग से सुधर सकती है। जब मैं 6 से 15 जून, 2016 के दौरान हजरतगंज, लखनऊ स्थित गांधी प्रतिमा पर हलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश कि सभी सरकारी वेतन पाने वालों के बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ें को लागू कराने के लिए दस दिवसीय अनशन पर बैठा था तो रमेश नामक सीतापुर जिले के मिश्रिख इलाके के नक्की मढ़िया गांव का रहने वाला व लखनऊ में जो रिक्श चलाता है मेरे समर्थन में अनशन स्थल पर नियमित रूप से आकर बैठता था। उसने हाल ही में अपने कुछ विचारों को कलमबद्ध किया।
उसके अनुसार, ’माननीय मुख्यमंत्री जी गरीबों के साथ खाना खा सकते हैं परन्तु गरीबों के बच्चों के साथ अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकते। गरीबों के साथ खाना कोई बड़ी बात नहीं है। अच्छा खाना तो पशुओं को भी खिलाया जाता है जिनके गले में रस्सी बांध कर उन्हें खूंटे से बांधा जाता है। ये गरीब पशुओं से कम नहीं हैं क्योंकि गरीब अशिक्षित है। बड़ी बात तो यह है जो गरीबों के बच्चों के लिए भूखों मरता हो मैं उसका समर्थन करता हूं।’ इस वक्तव्य को हाल के मेरे आंदोलन की मैं सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं। रमेश अपने गांव वालों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 की उस धारा के प्रति भी जागरूक कर रहा है जिसके तहत किसी भी विद्यालय में शुरुआती कक्षाओं में 25 प्रतिशत तक अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के बच्चे कक्षा 1 से 8 तक निशुल्क शिक्षा हेतु दाखिला पा सकते हैं। लखनऊ में मेरे अगल-बगल दोनों तरफ पड़ोस में रहने वाली दो गृहणियों ने इस कानून का इस्तेमाल कर अपने यहां काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के अच्छे विद्यालयों में दाखिले हेतु फार्म भरे हैं।
61 वर्षीय रजनी सक्सेना ए-895 इंदिरा नगर, लखनऊ की निवासिनी हैं। उनके घर नगमा पिछले 20 वर्षों से काम कर रही है। नगमा की शिक्षा में इतनी रुचि थी कि उसने रजनी सक्सेना से धीरे-धीरे अंग्रेजी तक पढ़ना सीख लिया। राजू से शादी व अपने पहले बच्चे मोहम्मद इमरान के जन्म के बाद उसे बच्चे की शिक्षा के बारे में चिंता सताने लगी। पति की इस विषय में कोई रुचि नहीं थी। नगमा ने इमरान का दाखिला एक निजी विद्यालय डैबल एकेडमी में कराया जहां का शुल्क रु. 1,250 प्रति माह है। यह समझा जा सकता है कि रु. 4,000 प्रति माह कमाने वाली नगमा बच्चे का शुल्क देने के बाद कैसे घर का खर्च चलाती होगी? रजनी सक्सेना ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल कर इमरान का उसी विद्यालय में निशुल्क शिक्षा के प्रावधान के तहत फार्म भरने का फैसला लिया। उन्होंने नगमा को अपना आय व जाति प्रमाण पत्र जिलाधिकारी कार्यालय से बनवाने हेतु भेजा। फिर खुद जाकर लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी प्रवीण मणि त्रिपाठी को इमराम का फार्म 23 जून, 2016 को जमा कराया। फार्म पर इमरान के दाखिले हेतु प्राथमिकता के क्रम में गुरुकुल एकेडमी, सेण्ट डामिनिक, सिटी माण्टेसरी स्कूल व डैबल एकेडमी के नाम भरे गए हैं। यासीन महमूद ए-885 इंदिरा नगर की निवासिनी हैं। उनके घर काम करने वाली 27 वर्षीय जमरुल निशा शादी के बाद पहली बच्ची जुलेखा बानो के जन्म के बाद ही पति से अलग हो गई और कुछ समय अपने घर बड्डूपुर, जिला बाराबंकी में रहने के बाद लखनऊ चली आई। जुलेखा अब 7 वर्ष की है और जमरुल उसकी शिक्षा के लिए चिंतित है।
66 वर्षीय यासीन, जिन्होंने हाल ही में अपने पति, जो भारतीय रेल के सेवा निवृत अधिकारी थे, को खोया है ने फैसला लिया कि जुलेखा का दाखिला शिक्षा के अधिकार अधिनियम के निशुल्क शिक्षा के प्रावधान के तहत कराया जाए। उन्होंने अपनी बहु तसनीम महमूद को भेज कर जमरुल के आय व निवास प्रमाण पत्र हेतु प्रार्थना पत्र जमा करवाया व उसी दिन, 23 जून को, बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां विद्यालय में दाखिले हेतु भी फार्म जमा करवाया। जुलेखा के फार्म में जिन विद्यालयों को प्राथमिकता के क्रम में रखा गया है वे हैं स्प्रिंगडेल, सिटी माण्टेसरी स्कूल, सिटी इण्टरनेशनल व गुरुकुल एकेडमी। जब बेसिक शिक्षा अधिकारी बच्चों के पक्ष में फैसला लेंगे तो ये दोनों बच्चे अपने इलाके के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में पढ़ेंगे। देश के अलग-अलग इलाकों में होने वाली ये घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। ये देश में शिक्षा के प्रति सोच में आ रहे बदलाव की प्रतीक हैं। एक तरफ गरीब भी अपने बच्चे को अच्छे से अच्छे विद्यालयों में पढ़ाने हेतु प्रेरित है तो दूसरी तरफ आखिकार समाज के सम्पन्न वर्ग ने इस हकीकत को स्वीकार कर लिया है कि गरीब के बच्चे को भी उतनी ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है जितना कि उसके बच्चे का। मध्यम वर्ग की गृहणियां पहल लेकर अपने यहां काम करने वाली महिलाओं के बच्चों का अच्छे विद्यालयों के दाखिला करा यह कोशिश कर रही हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिख कर गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ कर अपनी जिन्दगी में कुछ सार्थक कर सकें। यह भी प्रतीत हो रहा है कि समान शिक्षा प्रणाली की पांच दशक पुरानी मांग को लागू कराने के लिए यदि विधायिका या कार्यपालिका देर करेंगी तो शायद न्यायपालिका स्वतः संज्ञान लेते हुए कुछ पहल करे।
संदीप पाण्डेय, सिटिज़न न्यूज सर्विस - सीएनएस
14 जुलाई, २०१६
रीता कनौजिया, एक घरेलू कामगार जो चेम्बूर, मुम्बई की एक झुग्गी बस्ती में रहती है अपने बेटे कार्तिक का दाखिला तिलक नगर के लोकमान्य तिलक हाई स्कूल के जूनियर के.जी. कक्षा में चाहती है। उसकी दो बेटियां पहले से ही इस विद्यालय की कक्षा 3 व 4 की छात्राएं हैं। विद्यालय लड़के के दाखिले के लिए रु. 19,500 मांग रहा था जो 2014 में अपने पति की मृत्यु के बाद अब रीता के लिए दे पाना सम्भव नहीं। वह न्यायालय की शरण में गई। न्यायालय के हस्तक्षेप से शुल्क कुछ कम हुआ किंतु रु. 10,500 की राशि भी उसके लिए एक मुश्त दे पाना आसान नहीं था।
विद्यालय किश्तों में पैसा लेने को तैयार नहीं। न्यायमूर्ति वी.एम. कनाडे व एम.एस. सोनक की खण्डपीठ ने विद्यालय को आदेश दिया कि वह सिर्फ मां की एक मुश्त शुल्क न दे पाने की क्षमता के कारण बच्चे को शिक्षा से वंचित न करे। न्यायमूर्ति कनाडे ने अपनी जेब से शुल्क अदा करने की पेशकश की। तमिल नाडू के इरोड जिले के जिलाधिकारी ए. आनंदकुमार ने अपनी पुत्री ए. गोपिका का दाखिला कुमुईलनकुट्टई के पंचायत संघ द्वारा संचालित तमिल माध्यम के प्राथमिक विद्यालय में कराया और प्रधानाचार्या को आदेश दिया कि उनकी लड़की को वही मध्यान्ह भोजन दिया जाए जो अन्य बच्चे खाएं, यानी उसे कोई विशेष महत्व न दिया जाए। अब इस विद्यालय के शौचालय की दिन में दो बार सफाई होती है और परिसर को प्रयासपूर्वक साफ-सुथरा रखा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात शिक्षक समय से आने लगे हैं। यह दिखाता है यदि वरिष्ठ अधिकारियों के बच्चे सरकारी विद्यालय में पढ़ने लगें तो विद्यालयों की दशा कैसे आश्चर्यजनक ढंग से सुधर सकती है। जब मैं 6 से 15 जून, 2016 के दौरान हजरतगंज, लखनऊ स्थित गांधी प्रतिमा पर हलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश कि सभी सरकारी वेतन पाने वालों के बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ें को लागू कराने के लिए दस दिवसीय अनशन पर बैठा था तो रमेश नामक सीतापुर जिले के मिश्रिख इलाके के नक्की मढ़िया गांव का रहने वाला व लखनऊ में जो रिक्श चलाता है मेरे समर्थन में अनशन स्थल पर नियमित रूप से आकर बैठता था। उसने हाल ही में अपने कुछ विचारों को कलमबद्ध किया।
उसके अनुसार, ’माननीय मुख्यमंत्री जी गरीबों के साथ खाना खा सकते हैं परन्तु गरीबों के बच्चों के साथ अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकते। गरीबों के साथ खाना कोई बड़ी बात नहीं है। अच्छा खाना तो पशुओं को भी खिलाया जाता है जिनके गले में रस्सी बांध कर उन्हें खूंटे से बांधा जाता है। ये गरीब पशुओं से कम नहीं हैं क्योंकि गरीब अशिक्षित है। बड़ी बात तो यह है जो गरीबों के बच्चों के लिए भूखों मरता हो मैं उसका समर्थन करता हूं।’ इस वक्तव्य को हाल के मेरे आंदोलन की मैं सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं। रमेश अपने गांव वालों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 की उस धारा के प्रति भी जागरूक कर रहा है जिसके तहत किसी भी विद्यालय में शुरुआती कक्षाओं में 25 प्रतिशत तक अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के बच्चे कक्षा 1 से 8 तक निशुल्क शिक्षा हेतु दाखिला पा सकते हैं। लखनऊ में मेरे अगल-बगल दोनों तरफ पड़ोस में रहने वाली दो गृहणियों ने इस कानून का इस्तेमाल कर अपने यहां काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के अच्छे विद्यालयों में दाखिले हेतु फार्म भरे हैं।
61 वर्षीय रजनी सक्सेना ए-895 इंदिरा नगर, लखनऊ की निवासिनी हैं। उनके घर नगमा पिछले 20 वर्षों से काम कर रही है। नगमा की शिक्षा में इतनी रुचि थी कि उसने रजनी सक्सेना से धीरे-धीरे अंग्रेजी तक पढ़ना सीख लिया। राजू से शादी व अपने पहले बच्चे मोहम्मद इमरान के जन्म के बाद उसे बच्चे की शिक्षा के बारे में चिंता सताने लगी। पति की इस विषय में कोई रुचि नहीं थी। नगमा ने इमरान का दाखिला एक निजी विद्यालय डैबल एकेडमी में कराया जहां का शुल्क रु. 1,250 प्रति माह है। यह समझा जा सकता है कि रु. 4,000 प्रति माह कमाने वाली नगमा बच्चे का शुल्क देने के बाद कैसे घर का खर्च चलाती होगी? रजनी सक्सेना ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल कर इमरान का उसी विद्यालय में निशुल्क शिक्षा के प्रावधान के तहत फार्म भरने का फैसला लिया। उन्होंने नगमा को अपना आय व जाति प्रमाण पत्र जिलाधिकारी कार्यालय से बनवाने हेतु भेजा। फिर खुद जाकर लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी प्रवीण मणि त्रिपाठी को इमराम का फार्म 23 जून, 2016 को जमा कराया। फार्म पर इमरान के दाखिले हेतु प्राथमिकता के क्रम में गुरुकुल एकेडमी, सेण्ट डामिनिक, सिटी माण्टेसरी स्कूल व डैबल एकेडमी के नाम भरे गए हैं। यासीन महमूद ए-885 इंदिरा नगर की निवासिनी हैं। उनके घर काम करने वाली 27 वर्षीय जमरुल निशा शादी के बाद पहली बच्ची जुलेखा बानो के जन्म के बाद ही पति से अलग हो गई और कुछ समय अपने घर बड्डूपुर, जिला बाराबंकी में रहने के बाद लखनऊ चली आई। जुलेखा अब 7 वर्ष की है और जमरुल उसकी शिक्षा के लिए चिंतित है।
66 वर्षीय यासीन, जिन्होंने हाल ही में अपने पति, जो भारतीय रेल के सेवा निवृत अधिकारी थे, को खोया है ने फैसला लिया कि जुलेखा का दाखिला शिक्षा के अधिकार अधिनियम के निशुल्क शिक्षा के प्रावधान के तहत कराया जाए। उन्होंने अपनी बहु तसनीम महमूद को भेज कर जमरुल के आय व निवास प्रमाण पत्र हेतु प्रार्थना पत्र जमा करवाया व उसी दिन, 23 जून को, बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां विद्यालय में दाखिले हेतु भी फार्म जमा करवाया। जुलेखा के फार्म में जिन विद्यालयों को प्राथमिकता के क्रम में रखा गया है वे हैं स्प्रिंगडेल, सिटी माण्टेसरी स्कूल, सिटी इण्टरनेशनल व गुरुकुल एकेडमी। जब बेसिक शिक्षा अधिकारी बच्चों के पक्ष में फैसला लेंगे तो ये दोनों बच्चे अपने इलाके के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में पढ़ेंगे। देश के अलग-अलग इलाकों में होने वाली ये घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। ये देश में शिक्षा के प्रति सोच में आ रहे बदलाव की प्रतीक हैं। एक तरफ गरीब भी अपने बच्चे को अच्छे से अच्छे विद्यालयों में पढ़ाने हेतु प्रेरित है तो दूसरी तरफ आखिकार समाज के सम्पन्न वर्ग ने इस हकीकत को स्वीकार कर लिया है कि गरीब के बच्चे को भी उतनी ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है जितना कि उसके बच्चे का। मध्यम वर्ग की गृहणियां पहल लेकर अपने यहां काम करने वाली महिलाओं के बच्चों का अच्छे विद्यालयों के दाखिला करा यह कोशिश कर रही हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिख कर गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ कर अपनी जिन्दगी में कुछ सार्थक कर सकें। यह भी प्रतीत हो रहा है कि समान शिक्षा प्रणाली की पांच दशक पुरानी मांग को लागू कराने के लिए यदि विधायिका या कार्यपालिका देर करेंगी तो शायद न्यायपालिका स्वतः संज्ञान लेते हुए कुछ पहल करे।
संदीप पाण्डेय, सिटिज़न न्यूज सर्विस - सीएनएस
14 जुलाई, २०१६