राजनीति और टीबी: क्या है सम्बन्ध?

हाल ही में टीबी रोग से सम्बंधित एक जो सबसे सटीक टिप्पणी लगी वह ट्विटर पर ‘लैन्सेट’ (विश्व-विख्यात चिकित्सकीय शोध पत्रिका) के मुख्य सम्पादक, रिचर्ड होर्टन, की रही। डॉ रिचर्ड होर्टन ने कहा कि हम कितने स्वस्थ हैं यह अंतत: राजनीति से तय होता है। राजनीतिक निर्णयों का सीधा असर इस बात पर पड़ता है कि आम जनता कितनी स्वस्थ रहे। जनता द्वारा चुने हुए राजनीतिक प्रतिनिधियों को ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए कि लोकतंत्र में ऐसा क्यों है कि समाज में अमीरों को उच्चतम स्वास्थ्यसेवा मिलती है परंतु अधिकांश जनता बुनियादी सेवाओं के अभाव में ऐसी ज़िन्दगी जीने को मज़बूर है कि न केवल उनके अस्वस्थ होने की सम्भावना बढ़ती है बल्कि ज़रूरत पड़ने पर स्वास्थ्य सेवा भी जर्जर हालत वाली मिलती है (यदि मिली तो)।

भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जगत प्रकाश नद्दा ने भी यही कहा कि अब समय आ गया है कि टीबी का अंत हो. स्वास्थ्य को वोट अभियान और सीएनएस से जुड़ीं वरिष्ठ शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता शोभा शुक्ला ने कहा कि "टीबी के अंत के लिए यह भी तो ज़रूरी है कि जिन कारणों से टीबी फैलने का खतरा बढ़ता है उनपर भी पर्याप्त कार्य हो. उदाहरण के लिए कुपोषण: जब तक कुपोषण रहेगा और हर नागरिक को खाद्य सुरक्षा नहीं मिलेगी, टीबी का अंत कैसे होगा? संक्रमण नियंत्रण: न केवल स्वास्थ्य केंद्र पर संक्रमण नियंत्रण को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है बल्कि समुदाय और घर परिवार में भी संक्रमण नियंत्रण अक्सर प्राथमिकता नहीं पाता. इसी प्रकार से तम्बाकू नियंत्रण, अनुचित दवाओं के उपयोग से चुनौती बन रही दवा प्रतिरोधकता, आदि पर भी ध्यान देना होगा यदि टीबी का अंत करना है तो".

टीबी और ग़रीबी में गहरा सम्बंध 

उदाहरण के तौर पर, निमोनिया से बचाव मुमकिन है और इलाज भी। इसके बावजूद 5 साल से कम आयु के बच्चों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण निमोनिया है। ज़रा यह सोचें कि निमोनिया से मृत होने वाले अधिकांश बच्चे किसके हैं: अमीर या ग़रीब के? यह भी सोचें कि क्यों राजनीतिक निर्णयों की वजह से, अमीर, और अधिक अमीर हो रहा है, और ग़रीब, और अधिक ग़रीब? टीबी और ग़रीबी में गहरा सम्बंध है हालाँकि टीबी एक संक्रामक रोग है और अमीरों को भी प्रभावित करता है। पर इस बात में कोई शंका नहीं है कि ग़रीबों और समाज के हाशिए पर रह रहे वंचित तबक़ों को टीबी और अन्य ऐसे रोग, जिनसे बचाव मुमकिन है, का सबसे भीषण प्रकोप झेलना पड़ता है।

जब राजनीतिक निर्णय हमारे स्वास्थ और विकास को सीधी तरीक़े से अंतत: निर्धारित करते हैं तो राजनीति में आम लोगों के स्वास्थ और विकास को प्राथमिकता क्यों नहीं?

आख़िरकार, राजनीतिक रडार पर आ रही है टीबी

देर से ही सही पर राजनीतिक रडार पर टीबी अब आ तो रही है पर अभी टीबी या स्वास्थ्य सुरक्षा राजनीतिक मुद्दा तो नहीं बना है। क्या 2019 के आम चुनाव स्वास्थ्य सुरक्षा को केंद्र में रख कर होंगे? ज़ाहिर है कि अभी स्वास्थ्य सुरक्षा को राजनीतिक रूप से प्राथमिकता मिलना शेष है। यह बदलाव जनता भी ला सकती है यदि 2019 आम चुनाव में वोट अपनी स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को ध्यान में रख कर डाले।

इस हफ्ते जून 2018 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित वैश्विक सुनवाई में टीबी एजेंडा पर तो है: सितम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान भी टीबी पर देश के प्रमुखों के लिए एक उच्च स्तरीय विशेष सत्र होगा.

टीबी को राजनीतिक प्राथमिकता बनाने के आशय से आयोजित हुई सबसे महत्वपूर्ण बैठक थी: नवम्बर 2017 की वैश्विक मिनिस्टीरीयल कॉन्फ़्रेन्स जो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मास्को रूस में आयोजित की थी। इस कॉन्फ़्रेन्स में 75 से अधिक सरकारों ने मास्को घोषणापत्र को पारित किया कि टीबी उन्मूलन के लिए स्वास्थ्य और अन्य मंत्रालयों और वर्गों की भूमिका और जवाबदेही तय की जाएगी। हर वर्ग की भूमिका और जवाबदेही तय होना आवश्यक है जिससे कि टीबी उन्मूलन का सपना साकार हो सके। इस मास्को बैठक में रूस राष्ट्रपति वलादिमीर पुतिन भी शामिल रहे। सितम्बर 2015 में 190 देशों से अधिक ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में सतत विकास लक्ष्य को 2030 तक हासिल करने का वादा किया था, जिनमें टीबी उन्मूलन शामिल है। मार्च 2018 के दौरान, दिल्ली में भारतीय प्रधान मंत्री ने भारत में 2025 तक टीबी समाप्त करने का वादा दोहराया। यह वादा 2017 राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य में भी शामिल हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम के पूर्व निदेशक डॉ मारिओ रविलीयोने ने बताया कि वैश्विक स्तर पर, 2030 तक टीबी उन्मूलन का वादा, अनेक राजनीतिक बैठकों में दोहराया गया है जैसे कि जी-20 बैठक (जर्मनी 2017), जी-7 बैठक (इटली 2017), एशिया पैसिफ़िक इकोनोमिक कोआपरेशन बैठक (वेतनाम 2017), आदि। यह जन-स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण क़दम है। सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) द्वारा आयोजित विश्व टीबी दिवस 2018 वेबिनार में डॉ मारिओ विशेषज्ञ थे।

नर्म राजनीतिक वादे और अपर्याप्त आर्थिक व्यय

डॉ मारिओ ने कहा कि टीबी नियंत्रण के लिए पिछले सालों में सराहनीय काम तो हुआ है परंतु वह टीबी उन्मूलन के लिए कदापि पर्याप्त नहीं है। नर्म राजनीतिक वादे और कम आर्थिक व्यय टीबी नियंत्रण के समक्ष बड़ी चुनौती गहराता  रहा है।

2000-2016 के दौरान विश्व में 5.3 करोड़ लोगों का जीवन टीबी से बच सका, और टीबी मृत्यु दर में 22% गिरावट आयी। पर अभी भी टीबी रोग दर, और मृत्यु दर, अत्यधिक है: टीबी आज भी, दुनिया की सबसे बड़ी घातक संक्रामक रोग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 17 लाख टीबी रोगी पिछले साल मृत हुए - 5000 मृत्यु रोज़ाना! पिछले साल, 4 लाख एचआईवी के साथ जीवित लोग टीबी के कारण मृत हुए। दवा प्रतिरोधक टीबी अब आपात स्थिति उत्पन्न कर रहा है: सिर्फ़ 1 में से 4 दवा प्रतिरोधक टीबी के रोगी को जाँच- दवा उपलब्ध हो पाती है। 5 लाख महिलाएँ और 2.5 लाख बच्चे टीबी के कारण पिछले साल मृत हुए। विश्व स्वास्थ्य संगठन और विशेषज्ञों के अनुसार, टीबी दर में गिरावट इतनी कम है कि इस गति से तो 2184 तक टीबी ख़त्म होगी। आकास्मक आवश्यकता है कि टीबी दर में गिरावट अनेक गुणा अधिक बढ़े, जिससे कि टीबी उन्मूलन का सपना पूरा हो सके।

सतत विकास के लिए टीबी का अंत ज़रूरी

टीबी का नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकते क्योंकि विकास और स्वास्थ्य के अन्य लक्ष्य भी टीबी से प्रभावित होते हैं: उदाहरण के तौर पर एचआईवी के साथ लोग जीवित हैं और सामान्य ज़िन्दगी जी सकते हैं क्योंकि एंटीरेटरोवाइरल दवा (एआरटी) और एचआईवी सम्बंधित ज़रूरी सेवाएँ उपलब्ध हैं परंतु टीबी के कारण 4 लाख एचआईवी पॉज़िटिव लोग एक साल में मृत हुए। इसीलिए सभी कार्यक्रमों में आवश्यक सामंजस्य ज़रूरी है कि सतत विकास लक्ष्य हर एक इंसान के लिये हकीकत बन सकें।

बॉबी रमाकांत, सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
4 जून 2018
(विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक द्वारा पुरुस्कृत, बॉबी रमाकांत वर्त्तमान में सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस) के नीति निदेशक हैं. ट्विटर @bobbyramakant, वेबसाइट: www.citizen-news.org)  

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