वाह शाद वाह! – लखनऊ के एक बेहतरीन शायर से एक मुलाक़ात

वाह शाद वाह! – लखनऊ के एक बेहतरीन शायर से एक मुलाक़ात

(अंजली सिंह द्बारा लिए गए साक्षात्कार पर आधारित)


लखनऊ का ज़िक्र होते ही, यहाँ के जाने माने शायर खुशबीर सिंहशादका नाम खुद खुद जुबां पर ही जाता है
शाद साहब ने हिन्दी ओर उर्दू जुबां में शायरी की किताबें लिखने के अलावा महेश भट्ट द्वारा निर्मित फिल्म 'धोखा' के गाने लिख कर हजारों दिलों में हलचल मचा दी है

हाल ही में शाद साहब को अमरीका कीअंजुमने तरागुई उर्दूनामक संस्था नेवर्ष २००८ के सर्वशेष्ठ शायरके खिताब से नवाज़ा हैइस मुबारक मौके पर शाद साहब ने अपनी छठी किताबजहाँ तक जिंदगीका विमोचन भी किया
उन्होंने अपने सूफियाना कलाम से समारोह में उपस्थित श्रोताओं का मन मोह कर अपने शहर लखनऊ का नाम रौशन किया

सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की अंजली सिंह को दिए गए एक इन्टरव्यू में उन्होंने बताया कि उनके प्रवासी भारतीय प्रशंसकों कोमेरे लफ्जों में शायद उनको वतन की खुशबू आती है’। तभी तो वे उनसे इतनी बेपनाह मुहब्बत करते हैंहजारों मील दूर रहकर भी वे कला के माध्यम से खुद को अपने देश से जुड़ा हुआ महसूस करते हैंइसीलिए तो जांत पांत के बंधनों से ऊपर उठ कर, वे मुशायरों में शिरकत करते हुए, शाद साहब के शेरों पर दाद देते हैं

खुशबीर जी हिन्दी ओर उर्दू, दोनों ही भाषाओं में लिखते हैंपर उनके हिसाब सेउर्दू जान है शायरी की’। इसलिए, जिसे शेरो शायरी से प्यार हैं उसे थोड़ी बहुत उर्दू ज़रूर आनी चाहिए। और फिर उनको पढ़ने वाले, जो पाकिस्तान, अमरीका. यूं.के., नॉर्वे ओर अरब देशों में रहते हैं, वे हिन्दी ओर उर्दू दोनों ही जुबानें जानते हैं

शाद साहब का यह मानना है कि शायरी को गहराई से समझने के लिए, उर्दू भाषा का ज्ञान होना ज़रूरी हैउन्होंने खुद भी ४० साल की उम्र में उर्दू सीखीयह सन् १९९२ की बात है, जब उनकी पहली पुस्तकजाने कब ये मौसम बदलेप्रकाशित हुई । उस वक्त उनके गुरु वली असी साहब ने उनसे एक वायदा लिया कि वो एक साल के अन्दर उर्दू सीखकर अपनी अगली किताब उर्दू भाषा में ही लिखेंगे

इस वायदे को पूरा करने के लिए शाद साहब ने अवकाश प्राप्त सूचना अधिकारी सुलतान खान साहिब से उर्दू सीखनी शुरू करीतब उन्हें वली असी साहब की नसीहत का मतलब समझ आया। वाकई , शायरी का सार समझाने के लिए उर्दू जुबां को जानना ज़रूरी हैतभी शेर कहने का सही तरीका भी समझ आता है

शायरी लिखने का शौक शाद साहब को विरासत में नहीं मिलाउनके परिवार में कोई भी शख्स इसमें दिलचस्पी नहीं रखता था (हालांकि उनके पिताजी का तखल्लुसदिलगीरज़रूर था)। पर खुशबीर जी बचपन से ही बहुत भावुक होने के कारण कविता सुनना पसंद करते थेअपने ख्यालों की दुनिया में खोये हुए, वो घंटों अपने घर की छत पर चहलकदमी किया करतेफिर जब उन्होंने हिंद पाकेट बुक्स द्बारा प्रकाशित कविता की एक किताब खरीद कर पढ़ी, तब उनका कविता लिखने का शौक भी परवान चढ़ावो वली असी साहब के शागिर्द बन गए और फिर उनका कलाम धीरे धीरे आसमान की बुलंदियों को छूने लगा

इतने लोकप्रिय शायर होने के बावजूद, शाद साहब मुशायरों में शिरकत कम ही करते हैंउनका कहना है कि आजकल इस प्रकार के समारोहों का स्तर बहुत गिर गया हैजो शेर पढ़े जाते हैं वो दिल से नहीं निकलते, बल्कि श्रोताओं के मनोभावों को खुश करने के लिए होते हैंशायरी को समकालीन समाज का प्रतिबिम्ब होना चाहिए, कि भौंडी अशिष्टता काआज के श्रोता तोशायरी शिष्टाचारभी भूल चुके हैंजब कोई शेर पढ़ा जाता है तो उस पर ताली बजाना तहज़ीब के ख़िलाफ़ हैपर आजकल के शायर भी यही चाहते हैं कि उनके हर शेर की दाद तालियाँ बजा कर ही दी जाए ।
इसीलिए शाद साहब ऐसे समारोहों से दूर ही रहना पसंद करते हैंजो लोग उनके कलाम से परिचित हैं वो उनकी किताबें पढ़ कर उनके एहसासों को समझते हैंओर फिर सिर्फ़ मुशायरे में भाग ले कर ही तो कोई अच्छा शायार नहीं बन जातासंत कबीर भी तो गज़ब के शेर कहते थे, पर वो कभी किसी मुशायरे में नहीं गए

यह पूछे जाने पर कि उनका सबसे बड़ा आलोचक कौन है, उन्होंने अपने ही अंदाज़ में फरमाया, ‘मुझसे बढ़कर कौन है दुश्मन मेरा मेरे सिवा, है मुमकिन मेरी ही जात ले डूबे मुझको ’।
वो मानते हैं कि एक शायर को लम्हों में जीना सीख लेना चाहिएतभी उसकी शायरी परवान चढ़ पायेगीइसीलिए वो बड़ी ईमानदारी से अपने काम की खुद ही कडी आलोचना करते हैंउनका कहना है, ‘ क्यूँकी किरदार शेरों में अपना हक माँगते हैं मुझसे’। इसलिए अपने फन के जानिब ईमानदार होना निहायत ज़रूरी है

दर्द ओर उदासी से भारी हुई उनकी शायरी का अंदाज़े बयाँ कुछ और ही हैउनके ही लफ्जों में, ‘किया जिंदगी ने पहले मुस्तरद्द मुझको, फिर उसके बाद बख्शी मेरे होने की सनत मुझको’.
जिंदगी से उन्होंने जो कुछ भी सीखा है, उसी कशिश को उन्होंने अपनी शायरी में उतारा है

यह पूछे जाने पर कि उनके परिवार वाले उनकी शायरी के बारे में क्या सोचते हैं, उन्होंने ने कहा कि आज वो बुलंदी के जिस मुकाम पर पहुंचे हैं उसका सारा श्रेय उनकी पत्नी ओर बेटी अस्मित को जाता हैउन दोनों की मदद के बगैर वो कुछ भी नही कर सकते थेअपने परिवार के लिए उनके मन में जो एहसास हैं उन्हें वो इन दो शेरों में कितनी खूबसूरती से पिरोते हैं --- ‘मेरी खातिर जिसने दुनिया भर की खुशियाँ छोड़ दीं, सोचता हूँ उसको क्या मिला मेरे सिवा; कभी देखी नहीं कोई शिकायत उसकी आंखों में, वो मेरी बेबसी ओर बेकसी शायद समझता था’।

इतनी बढ़िया गुफ्तगू के बाद हम तो यही कह सकते हैं किवाह! शाद साहब वाह!'