कहीं देश आर्थिक गुलामी की तरफ तो नही?

किसी भी देश को अपनी व्यवस्था संचालित करने के लिए वार्षिक बजट बनाना पड़ता है, प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी हमारे देश में 28 फरवरी 2011 को लोकसभा में वर्ष 2011-12 के लिए 12,57,729 करोड़ की भारी भरकम राशि का आम बजट पेश हुआ जो पिछले वर्ष 2010-11 की तुलना में 13.04 प्रतिशत अधिक था। दुनिया भर में भारत के अलावा 12 देश ही 10 लाख करोड़ से ऊपर का बजट बनाते हैं। बजट के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जी0डी0पी0) की विकास दर का आंकलन किया जाता है। जो वर्ष 2010-11 के लिए हमारी विकास दर 8.6 प्रतिशत मानी गई, वहीं 2011-12 में 9 प्रतिशत से ऊपर रखने का लक्ष्य रखा गया यदि हम दुनिया के कुछ बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों की सकल घरेलू उत्पाद (जी0डी0पी0) की विकास दर पर नजर डालें तो चीन की 2011 के लिए विकास दर 8.7 प्रतिशत जो 2012 में घटकर 8.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है वहीं अमेरिका की 2011 के लिए विकास दर 2.8 प्रतिशत है जो 2012 में 2.9 प्रतिशत हो सकती है और जापान की 2011 में 1.8 प्रतिशत है जो बढ़कर 2.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है। जब विश्व के परिवेश में हम अपनी अर्थव्यवस्था और विकास दर पर गौर करते हैं तो उसके महत्व का पता चलता है।

इसी बजट से विभिन्न मंत्रालयों को विकास के लिये धनराशि आवंटित की जाती है जिसका दुरूपयोग होना भारत में आम बात है पूरा खर्च न कर पाना नौकरशाही की आकर्मणता का प्रमाण है। जिससे सरकार के पास वित्तीय वर्ष के अन्त में धनराशि का बड़ा हिस्सा वापस आ जाता है। शर्मनाक यह है कि भारत में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक एवं एशियाई विकास बैंक जैसी संस्थानों से उधार लिया गया धन भी पूरा खर्च नही कर पाते हैं, जिसके कारण हमारी सरकार को दायित्व शुल्क और वचनबद्धता शुल्क के रूप मे जुर्माना भरना पड़ता है जिसका भुगतान सरकारी खजाने से किया जाता है। वर्ष 2008 में विदेशी सहायता के रूप में हमें 78,000 करोड़ रूपए मिले थे  जिसे पूरा खर्च न कर पाने के कारण दायित्व शुल्क व वचनबद्धता शुल्क के रूप में 124.54 करोड़ और 2009-10 में 86.11 करोड़ जुर्माना देना पड़ा है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी0ए0जी0) को पता लगा है कि इस वर्ष एक लाख करोड़ की विदेशी मदद का इस्तेमाल नही किया जा सका है। अगर इस पैसे का इस्तेमाल किया गया होता तो समाज के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन स्तर में जरूर सुधार हो सकता था। अफसोस की बात है कि इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कोई कार्यवाही नही की जाती है।

हम विदेशी सहायता के कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो पहली योजना में विदेशी सहायता 5.8 प्रतिशत दूसरी योजना में 21 प्रतिशत और तीसरी में 25 प्रतिशत लगभग रही थी। जब विदेशी सहायता बढ़ रही है तब राष्ट्रीय आमदनी का क्या हाल हो रहा है? पहली योजना में हमारी राष्ट्रीय आमदनी 18 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ी दूसरी में 4 प्रतिशत और तीसरी में लक्ष्य 5 प्रतिशत रखा गया था लेकिन वृद्धि 2.5 प्रतिशत ही हो सकी। अर्थात विदेशी सहायता बढ़ती गई और राष्ट्रीय आमदनी घटती गई जिससे भुगतान का संतुलन इतना बिगड़ गया कि पहली योजना में जहां केवल 3 अरब रूपए की कमी रही वहीं वर्ष 2010-11 में 4,08,408 करोड़ रूपए की कमी होने का अनुमान है।

आज हमारा देश विश्व व्यापार में शामिल है जिसके कारण हमें वर्ष 2010-11 में व्यापार घाटा 4 लाख करोड़ हो रहा है। विदेश व्यापार के मोर्चे पर कहा जा रहा है कि निर्यात 200 अरब डालर का लक्ष्य पार करके 220 अरब डालर तक पहुंच जायेगा। लेकिन केवल निर्यात बढ़ने से घाटा कम नही हो सकता जब तक आयात न घटे। जब आयात 350 अरब डॉलर से ऊपर होने का अनुमान है तब घाटा कैसे कम हो सकता है? व्यापार सचिव राहुल खुल्लर ने 1 फरवरी, 2011 को कहा कि व्यापार घाटा 135 अरब डालर तक पहुंच सकता है यह राशि भारतीय मुद्रा में 6,07,500 करोड़ हो जाती है। जिसकी भरपाई कैसे होगी? विचार करने की जरूरत है। हमारी इन्ही नीतियों के चलते वर्ष 2010-11 के अन्त तक सरकार पर आन्तरिक व विदेशी कर्ज सहित कुल देनदारी 39,30,408 करोड़ से अधिक हो जाएगी।

आज हमारी अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान 55.3 प्रतिशत उद्योगों का 28.6 प्रतिशत कृषि का 16.1 प्रतिशत है। कृषि का योगदान जहां निम्नतम वहीं इस पर निर्भर लोगों की संख्या सार्वाधिक है कृषि से 60 प्रतिशत रोजगार मिल रहा है और 85 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है जो हमारी व्यवस्था मे बड़ी असमानता दर्शाती है। सेवा क्षेत्र कभी स्थाई विकास का आधार नही हो सकता है। इन असमानताओं के रहते हुए हमारे अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति औसत आय की गणना करते हैं जिसके आधार पर वर्ष 2010-11 में प्रति व्यक्ति औसत आय 54,527 रूपए होने का अनुमान है। इस औसत आय में वह व्यक्ति नजर नही आता जिसकी आमदनी एक भी पैसा नही है या कुछ रूपए हैं। देश की 75 प्रतिशत जनता के साथ इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है?

हमारी नजर में अब तो यही आता है कि सरकारें विदेशी सहायता लेना बन्द कर, देश के सभी लोगों को बजट में हिस्सेदारी देकर नौकरशाही का दायरा सीमित करके लोकतांत्रिक व्यवस्था को संचालित करने के लिए प्रतिबद्ध हों। जिससे देश में शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में चल रही दोहरी नीतियां बंद होंगी। अमीरी गरीबी का अन्तर जो दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है जिससे समाज में असंतोष पनप रहा है उस पर लगाम लगेगी। हाशिये पर खड़े आम आदमी को विकास की धारा में जुड़ने का अवसर प्राप्त हो सकेगा।

देवेश पटेल