केवल न्यूनतम आय ही नहीं, अधिकतम आय सीमा भी तय हो

शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत, डॉ संदीप पाण्डेय, सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस)
[English] यह तो सामान्य बात है कि अनेक सरकारी चिकित्सकों के संगठन अपना वेतन बढ़वाने की माँग करते रहते हैं। यह भी अक्सर देखने में आता है कि कुछ चिकित्सक, ज्यादा पैसे कमाने के लोभ में, अवसर पाते ही सरकारी स्वास्थ्य सेवा छोड़ कर, विदेशी या देशी, निजी या कॉर्पोरेट अस्पताल में पलायन कर जाते हैं। पर कनाडा के चिकित्सकों द्वारा चलाये जा रहे एक अनूठे अभियान ने पुनः विश्वास दिलाया है कि सैकड़ों चिकित्सक आज भी स्वास्थ्य सेवा को ‘सेवा’ मानते हैं, न कि एक व्यवसायिक कारोबार।

कनाडा के क्यूबेक राज्य के अभी तक 850 से अधिक चिकित्सकों और 150 से अधिक कनिष्ठ चिकित्सकों (जो स्नातकोत्तर अध्ययन अथवा प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं) ने सार्वजनिक रूप से अपनी वेतन वृद्धि नामंजूर कर दी है क्योंकि उनका कहना है कि उनकी अंतरात्मा को वेतन में बढ़ोतरी कैसे मंजूर हो सकती है जबकि नर्स, अन्य स्वास्थ्यकर्मी और मरीज, संसाधनों के अभाव में जूझ रहे हों (विरोध पत्र पढ़ें, वाशिंगटन पोस्ट न्यूज पढ़ें)। उनके अनुसार जब स्वास्थ्य सेवा बजट में कटौती हो रही हो तब चिकित्सकों का वेतन बढ़ाना किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है। इन चिकित्सकों का मानना है कि सशक्त स्वास्थ्य प्रणाली से ही जन-स्वास्थ्य सुरक्षा सम्भव है। जब नर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मी कम आय, चुनौतीपूर्ण व तनावपूर्ण स्थिति में कार्य करेंगे, और जीवन रक्षक स्वास्थ्य सेवाएँ मरीज की पहुँच के बाहर होती जाएँगी तो स्वास्थ्य सुरक्षा का सपना कैसे साकार होगा? इन चिकित्सकों ने अपील की है कि कनाडा सरकार चिकित्सकों का वेतन बढ़ाने के बजाय, इस धन से जन-स्वास्थ्य प्रणाली को सशक्त करे जिससे कि नर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मी बिना अनावश्यक तनाव के बेहतर व्यवस्था में कार्य कर सकें और स्वास्थ्य सेवाएँ सभी जरुरतमंदों तक पहुंच सकें।

कनाडा के चिकित्सकों ने यह महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है कि क्यों केवल उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों का ही वेतन बढ़ता रहता है जबकि स्वास्थ्य बजट में कटौती होती है, और स्वास्थ्य सेवा पर आश्रित अन्य लोग इसका कुपरिणाम झेलते हैं। यह भारत में भी हर क्षेत्र में देखने को मिलेगा कि वरिष्ठ अधिकारियों का वेतन ही नहीं बढ़ता बल्कि उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभ में भी इजाफा होता है और किसी पिछली तारीख से बढ़ा हुआ वेतन मिल जाता है परन्तु निचले पदों पर कार्यरत लोगों, खासकर संविदाकर्मी व दैनिक मजदूरी पर काम करने वालों पर वेतन आयोग की कृपा दृष्टि नहीं रहती। जब से ठेके पर संविदाकर्मी या मजदूर लिए जाने लगे हैं अब तो यह भी गारण्टी नहीं कि किए हुए काम का पूरा दाम भी मिलेगा।

भारत में भी कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहाँ चिकित्सकों ने स्वास्थ्य सेवा को ’सेवा’ का काम माना है। तमिलनाडू राज्य में वेल्लोर स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (सीएमसी), भारत का दूसरे नंबर का शीर्षस्थ मेडिकल कॉलेज और अस्पताल है (दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) पहले नंबर पर है), जहाँ वेतन अन्य मेडिकल कॉलेजों की तुलना में संभवतः सबसे कम है। यहाँ कार्यरत चिकित्सक, निदेशक व छात्र प्रायः बस से चलते हैं, तमिलनाडु की भीषण गर्मी के बावजूद अस्पताल के निदेशक तक के पास वातानुकूलित कमरा नहीं है, परन्तु रोगियों के लिए पूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं। इतने कम वेतन और कम सुविधाओं में काम करने के बावजूद यहाँ के चिकित्सकों की उपलब्धियां बेमिसाल हैं - जैसे, भारत में अनेक अंग-प्रत्यारोपण, सबसे पहली बार एचआईवी की जांच, आदि, सब इसी अस्पताल में हुए, आज भी देश में एम्स के बाद यहीं सबसे अधिक मरीज स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करते हैं। यही एक अस्पताल है जहाँ अनेक दशकों से हर मेडिकल छात्र और चिकित्सक-प्रोफेसर को, अनिवार्य रूप से हर साल ग्रामीण और दुर्लभ इलाकों में जाकर स्वास्थ्य सेवा देनी होती है। इसके विपरीत भारत में अनेक निजी मेडिकल कॉलेज ऐसे हैं जहाँ वेतन तो बहुत अधिक है, पर चिकित्सकीय कुशलता, शोध कार्य और शिक्षण के साथ समझौता होता है। इससे यह जाहिर होता है कि चिकित्सकीय कुशलता, उद्यमिता, शोध कार्य और शिक्षण का वेतन से कोई सीधा ताल्लुक नहीं है। बाबा आमटे के दोनों पुत्र विकास और प्रकाश और दोनों पुत्रवधु भारती और मंदाकिनी, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक ठाकुरदास बंग के पुत्र अभय व पुत्रवधु रानी बंग, शहीद मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी द्वारा छत्तीसगढ़ के दल्ली राजहरा में स्थापित अस्पताल में काम करने वाले ऐसे कुछ चिकित्सकों के अनुकरणीय उदाहरण मिल जाएंगे जिन्होंने बजाए किसी बड़े शहर में रह कर पैसा कमाने के, गांवों में, कुष्ठ रोगियों तथा आदिवासियों के बीच रह कर भारत के गरीब ग्रामीण वर्ग को चिकित्सा सेवा प्रदान करने हेतु अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

क्यों आवश्यक है अधिकतम आय सीमा तय करना?

सिर्फ चिकित्सकों के लिए ही नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में- चाहे वह निजी हो या सरकारी- न्यूनतम और अधिकतम आय सीमा, दोनों का ही तय होना अनिवार्य है, यदि हम वास्तव में एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने में विश्वास रखते हैं जहाँ कोई भी व्यक्ति अमानवीयता का शिकार न हो। विख्यात समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि न्यूनतम और अधिकतम आय में अंतर 1:10 के अनुपात से अधिक नहीं होना चाहिए। यदि अंतर अधिक होगा तो जाहिर है कि समाज में गैर-बराबरी, शोषण, असंतुलन और अन्याय पनपेगा। ऑक्सफेम रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में विश्व की 82% सम्पत्ति पर मात्र 1% सबसे अमीर लोगों का कब्जा था। इसी रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में भारत की 58% सम्पत्ति पर 1% लोगों का स्वामित्व था और 2017 में इस 1% ने देश के 73% धन पर क़ब्ज़ा कर लिया। यदि केवल चंद लोग ही सर्वोत्तम स्वास्थ्य-शिक्षा-जीवनशैली का लाभ उठायेगें, और बाकी जनता जर्जर हालत वाली स्वास्थ्य-शिक्षा व अन्य मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति रहित हालत में जीने के लिए मजबूर होगी, तो समाज में बंधुत्व की भावना कैसे रहेगी?

यदि हम सच्चे देश-भक्त हैं तो भारत के संविधान में जो मूल्य निहित हैं, हम उन मूल्यों को तो चरितार्थ करें! भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्प्रुभतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य है। समाजवादी शब्द, हमारे संविधान की प्रस्तावना में इसलिए है क्योंकि भारत के सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित होना वांछित है, और जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि केवल कुछ लोगों के ही हाथों में अधिकांश धन जमा होने से रोके तथा सभी नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करे।

महात्मा गाँधी ने भी यही गुरुमंत्र दिया था कि हर इंसान की जरुरत पूरी करने के लिए तो संसाधन हैं, पर एक भी इंसान के लालच को पूरा करने के लिए संसाधन पर्याप्त नहीं हैं।

राजनीतिज्ञ वरुण गाँधी ने भी जनवरी 2018 में यह कहा (समाचार पढ़ें) कि संपन्न सांसदों को सरकारी वेतन नहीं लेना चाहिए। आशा है कि वे स्वयं इस पर अमल कर रहे होंगे पर सन्देश साफ हैः सरकारी सेवा दे रहे हर व्यक्ति को यह चिंतन करना चाहिए कि उसे कितना वेतन चाहिए, अथवा चाहिए भी या नहीं। आजकल तो दाता-एजेंसी द्वारा पोषित गैर सरकारी संस्थाओं में कार्यरत, तथाकथित ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ को भी, सेवा-क्षेत्र से अनेक गुना अधिक वेतन मिलने लगा है। सभी क्षेत्रों के लोगों को जरुरत से अधिक वेतन नहीं लेना चाहिए (इसमें लेखक भी शामिल हैं)।

हाल ही में समाचार पढ़ा कि उपभोग सामग्री पर निजी अस्पतालों ने 1700% मुनाफा कमाया। भारतीय सरकार ने 2016 में जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे में यह कहा कि स्वास्थ्य सबसे अधिक गति से तरक्की करने वाला उद्योग है। अपने देश में निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या अब सरकारी मेडिकल कॉलेजों से अधिक हो गयी है। यह वास्तव में चिंताजनक है कि निजी मेडिकल कॉलेज मोटा शुल्क ले कर चिकित्सक तैयार करते हैं। जबकि चिकित्सक बनने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना चाहिए जो सेवाभाव से चिकित्सकीय सेवा प्रदान कर सकें। जो चिकित्सक स्वास्थ्य-सेवा को धन कमाने के साधन के रूप में देखते हैं उनकी जन-स्वास्थ्य सेवा में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। हमारे देश में कितने ऐसे चिकित्सक हैं जो स्वास्थ्य सेवा का व्यवसायीकरण कर मोटापा कम कराने, शरीर को सुडोल बनाने, गंजे सर पर बाल उगाने, यौन शक्ति बढ़ाने, आदि का भ्रामक प्रलोभन देकर पैसा कमा रहे हैं, वे जन-स्वास्थ्य का काम नहीं कर रहे।

भारत सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 क्या एक जुमला मात्र है?

भारत सरकार ने 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति जारी की जिसमें अनेक वायदे किये गए हैं। विश्व के सभी देशों ने 2030 तक क्षय रोग या टी.बी. उन्मूलन का वायदा किया है। पर भारत प्रशंसा का पात्र है कि उसने 2025 तक ही क्षय रोग समाप्त करने का वायदा किया है। परन्तु विश्व भर में सबसे अधिक क्षय रोग के मरीज भारत में ही हैं। यदि वर्तमान दर से क्षय रोग में गिरावट आई तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 2184 तक ही क्षय रोग उन्मूलन का सपना साकार हो पायेगा। सरकार के भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् की पूर्व निदेशक डॉ सौम्या स्वामीनाथन ने कहा है कि कुपोषण, क्षय रोग का सबसे बड़ा कारण है। जब तक कुपोषण समाप्त नहीं होगा तब तक क्षय रोग समाप्त करने का स्वर्णिम स्वप्न भी पूरा नहीं होगा।

उसी तरह, 2017 राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और सतत विकास लक्ष्य 2030 के चलते भारत सरकार ने वायदा किया है कि गैर संक्रामक रोगों की मृत्यु दर 2025 तक 25% कम होगी और 2030 तक 33%। गौरतलब बात यह है कि, आम जनता जिन स्वास्थ्य चुनौतियों, आपदाओं से जूझ रही है, उनमें से अधिकांश से बचाव मुमकिन है। उदाहरण के लिए, 5 साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण निमोनिया है, जिससे बचाव और इलाज मुमकिन है. फिर भी विश्व-स्तर पर सबसे अधिक बच्चे निमोनिया से भारत में ही मरते हैं। गैर-संक्रामक रोगों से 70% मृत्यु होती है जिनमें ह्रदय रोग, पक्षाघात, अनेक प्रकार के कैंसर, श्वास संबंधी रोग, आदि, शामिल हैं। इन गैर-संक्रामक रोगों का खतरा काफी हद तक टाला जा सकता है यदि तम्बाकू और शराब सेवन बंद हो, सभी नागरिकों को शारीरिक व्यायाम व श्रम करने का अवसर मिले, पौष्टिक आहार मिले, स्वच्छ हवा में सांस लेने को मिले, आदि। एक ओर सरकार की छत्रछाया में ऐसे अनेक उद्योग पनप रहे हैं जिनके उत्पाद गैर संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ाते हैं जैसे कि शराब और तम्बाकू उद्योग, वहीं दूसरी ओर, जो विकास मॉडल और नीतियाँ हमारी सरकार अपना रही है वो अधिकांश नागरिकों के लिए, स्वच्छ हवा में श्वास लेना, रोजाना व्यायाम व श्रम करना, पौष्टिक आहार लेना, आदि, दुर्लभ कर रही है। जहाँ एक ओर अमीर वर्ग के लिए व्यायामशाला (जिम) आदि खुल रहे हैं, एक कंपनी स्वच्छ हवा के सिलेंडर बेच रही है, वहीं दूसरी ओर अधिकांश नागरिक नारकीय हालत में जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। न तो उनके पास रहने के लिए हवादार घर हैं व न ही उनके बच्चों के खेलने के लिए सुरक्षित सार्वजानिक स्थान।

कनाडा के चिकित्सकों द्वारा उठाया गया यह ऐतिहासिक कदम वास्तव में सराहनीय एवं अनुकरणीय है। परंतु यह केवल चिकित्सकों तक ही नहीं सीमित रहना चाहिए। चाहे वे राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि हों (जो समाज सेवी होने का दावा करते हैं), या फिर वे सरकार के अधिकारीगण हों, वकील हों या अन्य पेशेवर, उद्योगपति हों या व्यापारी सबके वेतन की अधिकतम सीमा तय करनी होगी, तभी समाज में व्याप्त विषमताएँ दूर हो पाएँगीं।

सरकार से वेतन पाने वाले, सरकारी अस्पताल में इलाज करवाएं

इसके अलावा हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल व न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने अपने फैसले में कहा है कि सरकार से वेतन पाने वालों को सरकारी अस्पतालों में ही इलाज कराना चाहिए और बड़े अधिकारियों या मंत्रियों को कोई विशेष सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। वे भी सामान्य लोगों की तरह ही इलाज कराएं। यदि ऐसा हो जाए तो सरकारी चिकित्सालयों की स्थिति काफी सुधर जाएगी और इस देश के गरीब को भी अच्छी चिकित्सा सेवा मुहैया हो जाएगी। साथ ही न्यायलय ने सरकारी अस्पतालों में रिक्त पदों पर भर्ती के आदेश भी दिए।

भारत ने अन्य 190 से अधिक देशों के साथ, संयुक्त राष्ट्र महासभा में 2030 तक सतत विकास लक्ष्य पूरा करने का वायदा किया है। हमारा मानना है कि बिना समाजवादी व्यवस्था कायम किए, प्रत्येक व्यक्ति का सतत विकास मुमकिन नहीं।

शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत, डॉ संदीप पाण्डेय
सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस)
12 मार्च 2018
डॉ संदीप पाण्डेय, मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं (twitter @sandeep4justice); शोभा शुक्ला, सीएनएस की संपादिका और लोरेटो कान्वेंट से सेवा निवृत्त वरिष्ठ शिक्षिका हैं (twitter @shobha1shukla); और बॉबी रमाकांत विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पुरुस्कृत, सीएनएस से जुड़े हैं (twitter @bobbyramakant)

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