अपने नौनिहालों को अच्छा खाना खिलाइए और बढ़िया खेल खिलाइए
बढ़ती हुई आर्थिक सम्पन्नता तथा सामाजिक उथल पुथल के इस दौर में, अन्य देशों की भाँति, भारतीय बच्चों और तरुणों में भी मोटापा एक महामारी के रूप में फैल रहा है. एक अध्ययन के अनुसार केवल दिल्ली शहर में २००२ से २००६ के बीच स्थूलकाय बच्चों की संख्या में ८% की वृद्धि हुई है. अब तक तो यह प्रतिशत और भी बढ़ चुका होगा. देश के अन्य शहरों में भी कुछ ऎसी ही स्थिति है.
इस बढ़ती हुई स्थूलता के चलते उच्च रक्तचाप , ह्रदय रोग एवं मधुमेह जैसी अधिक आयु में होने वाली बीमारियाँ अब किशोरावस्था में ही आक्रमण करने लगी हैं. एक अनुमान के अनुसार, यदि इस विस्फोटक स्थिति पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो अगले ५ वर्षों में भारत को २३७ अरब डॉलर की आर्थिक हानि का भार वहन करना पड़ेगा.
हाल ही में,डायबिटीज़ फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस के तत्वाधान में, दिल्ली के दो स्कूलों में किये गए एक अध्ययन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं. इस अध्ययन में स्कूली छात्र एवं छात्राओं की शारीरिक नाप और जैव रासायनिक मापदंडों का ५ वर्षों (२००३-२००८) की अवधि में तुलनात्मक अध्ययन किया गया. लड़कियों में मोटापे के लक्षणों में काफी वृद्धि पाई गई -- बी.एम.आई. में ५% और कमर की नाप में ११% की बढ़ोतरी थी, जो लड़कों के मुकाबले कुछ अधिक थी. इसके विपरीत, लड़कों के हाई डेंसिटी कोलेस्ट्रोल (जो लाभकारी माना जाता है) में ९.१% की कमी पायी गयी जो लड़कियों में हुई १.२% कमी से कहीं अधिक थी.
ये आंकड़े चिंता का विषय हैं, तथा इस दिशा में अविलम्ब एवं उचित कदम उठाने का संकेत देते हैं. किशोर-किशोरिओं में इस बढ़ते हुए मोटापे एवं घटती हुई शारीरिक क्षमता का मुख्य कारण है चर्बी/वसा युक्त खाद्य पदार्थों का बढ़ता हुआ सेवन तथा शारीरिक क्रियाकलापों/व्यायाम का हास. बढ़ते हुए शहरीकरण और औद्योगीकरण ने हमारे दैनिक आहार में भयानक परिवर्तन किये हैं. अधिक वसा युक्त भोजन तथा अधिक शर्करा युक्त पेय पदार्थों का अनुचित मात्रा में सेवन करने के कारण हमारे शरीर में पोषक तत्वों की मात्रा असंतुलित हो गयी है. तिस पर ट्रांस फैटी एसिड ( जो फास्ट फ़ूड, बेकरी पदार्थ, तथा बाज़ार में बिकने वाली तली हुई खाद्य सामग्री में प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं) का विनाशकारी प्रभाव तो करेले को नीम पर चढ़ाने जैसा है. हमारे युवा वर्ग की अक्रियाशील जीवनशैली उनके स्वास्थ्य को कमज़ोर और रोग प्रदत्त बनाने में और भी सहायक होती है. जब तक बच्चों को पोषक आहार और शारीरिक व्यायाम का महत्त्व समझ में नहीं आएगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी, तथा वे वयस्क होने पर असमय ही अनेकों असंक्रामक रोगों के शिकार बन जायेगें.
अभी हाल ही में समाचार पत्रों में छपी एक खबर के अनुसार, खेल मंत्री श्री गिल ने इस बात को स्वीकार किया है कि खेल कूद हमारे स्कूलों के पाठ्यक्रम में उपेक्षित ही रहे हैं. उनका मानना है कि हर कक्षा में शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद के लिए रोजाना कम से कम एक पीरियड नियत होना ही चाहिए. उन्हें इस बात का खेद है कि १०० करोड़ की आबादी वाले इस देश में कोई बिरला ही उत्कृष्ट खिलाडी बन पाता है. इसका मुख्य कारण है, स्कूली स्तर पर खेलकूद और खेल स्पर्धाओं को बढ़ावा न मिलना. हम ओलम्पिक मेडल जीते या न जीतें, परन्तु स्कूलों में खेल के मैदानों का प्रावधान करने से छात्रों के स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव अवश्य पड़ेगा. दुर्भाग्यवश, अधिकतर स्कूलों में खेल कूद के साधनों एवं प्रशिक्षित खेल शिक्षकों का नितांत अभाव है. अभिभावक एवं शिक्षक, दोनों ही स्कूल के शैक्षिक पाठ्यक्रम में अधिक दिलचस्पी लेते हैं. उनके लिए खेल के मैदान के बजाय कम्प्यूटर लैब होना अधिक आवश्यक है. इस सोच को बदलना ही होगा. हमारे पूर्व स्वास्थ्य मंत्री, डा.रामादौस ने भी इस बात पर जोर दिया है कि बच्चों में बढ़ते हुए मोटापे और टाइप २ डायबिटीज़ के विस्तार को रोकने के लिए, स्कूलों में योग शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए.
इसके अलावा, बचपन से ही हमें अपनी संतानों में पौष्टिक आहार के प्रति रूचि उत्पन्न करनी आवश्यक है. प्राय: देखा गया है कि अधिक लाड़ प्यार के चक्कर में, अभिभावक अपने बच्चों को छोटी उम्र से ही दिल खोल कर पिज्जा, बर्गर, कोका/पेप्सी कोला का रसास्वादन कराने में गर्व का अनुभव करते हैं. बाद में जब यही बच्चे घर के सुपाच्य एवं पोषक आहार से मुंह चुराने लगते हैं तब माता पिता पाश्चात्य संस्कृति को कोसने लगते हैं. अधिक तले भुने, वसा एवं शर्करा युक्त पदार्थों का सेवन बच्चों में अनेक प्रकार की अनियमितताओं को उत्पन्न करता है, जो आगे चल कर अनेक प्रकार के असंक्रामक रोगों को निमंत्रित करती हैं. आज की आराम देह और अति व्यस्त जीवन शैली के चलते संतुलित आहार का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. हम सभी के लिए अधिक शाक सब्जी, फल एवं मोटा अनाज खाना लाभप्रद है. आजकल चाइनीज़ और थाई फ़ूड बहुत प्रचलित है. इन दोनों पाक शैलियों में उबली हुई सब्जिओं और उबले चावल/नूडल्स की बहुतायत होती है. घी-तेल का प्रयोग बहुत कम होता है. ये व्यंजन सुपाच्य होने के साथ साथ अत्यधिक स्वास्थ्य वर्धक हैं. छोले भठूरे, चाट पकौड़ी, केक पेस्ट्री, फ्रेंच फ्राइज़ और फास्ट फ़ूड आदि का सेवन कम से कम करना चाहिए. कोकाकोला के स्थान पर घर का बना नींबू पानी या मट्ठा कहीं अधिक शीतलता प्रदान करेगा.
स्कूल/कॉलेज का प्रशासन भी बच्चों को स्वास्थ्यवर्धक जीवन अपनाने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है. अभिभावक, अध्यापक एवं विद्यार्थियों के सामूहिक प्रयासों से हम मोटापे, डायबिटीज़, और एक सुस्त, बीमार जीवन शैली के प्रकोप से भावी पीढ़ी को बचा सकते हैं. वर्ल्ड डायबिटीज फौन्डेशन के सौजन्य से दिल्ली और कुछ अन्य शहरों के स्कूलों में कुछ इसी प्रकार के कार्यक्रम ('मार्ग' और 'चेतना') चलाये जा रहे हैं. इनमें समूह संवाद, प्रदर्शनी, खान- पान प्रतियोगिता, तथा अन्य कार्यक्रमों के द्वारा, छात्रों में पौष्टिक आहार और व्यायाम के महत्त्व को उजागर किया जाता है, तथा विशेषज्ञों द्वारा प्रत्येक विद्यार्थी का हेल्थ कार्ड भी बनाया जाता है.
समझदार अभिभावक और शिक्षक के रूप में हमें स्वास्थ्यवर्धक एवं क्रियाशील रहन-सहन का प्रचार करना ही होगा. बच्चों में स्वादिष्ट, पौष्टिक खाने की आदत डाल कर उन्हें जंक फ़ूड का न्यूनतम इस्तेमाल करना सिखाना होगा. यह बहुत मुश्किल नहीं है. हम स्वयं ही अपने बच्चों के खान पान की आदत बिगाड़ने के ज़िम्मेदार हैं. कम्प्यूटर गेम्स खेलने, मोबाइल पर घंटों बात करने और टेलिविज़न सीरियल देखने के बजाय उन्हें दौड़ने, खेलने, साइकिल चलाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा. इस प्रकार हम उनके उग्र और आक्रामक व्यवहार को भी बदल पायेंगे, क्योंकि वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि जंक फ़ूड एवं इंटरनेट का अति उपयोग, हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म देता है. तभी हम एक सभ्य, सुसंस्कृत समाज की ओर अग्रसर हो पायेंगे.
शोभा शुक्ला
एडिटर, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस