सुभाष गाताडे
उनके पास सम्पत्ति थी, लेकिन उनकी आत्मा नहीं थी, इसलिये पहाड़ वैसे ही बना रहा, उस पर खरोंच तक नहीं आयी। दरअसल, आप पहाड़ को तोड़ना चाहते हैं। तो आपको पहाड़ से छह फीट ऊँचा होना पड़ेगा। अगर आप समुद की गहराई नापना चाहते हैं, तो आपको समुद से थोड़ा गहरा होना पड़ेगा। असली सम्पदा होती है आत्मा का संकल्प। दशरथ मांझी ने अपनी बात आगे जारी करते हुए कहा पहाड़ मुझे उतना ऊँचा कभी नहीं लगा जितना लोग बताते हैं। मनुष्य से ज्यादा ऊँचा कोई नहीं होता। बिहार के गया जिले के गहलौर गांव में पंछिया देवी और मंगरू मांझी के यहाँ, जन्मे 1934 दशरथ मांझी से अगर युवावस्था में किसी ने यह सवाल पूछा होता कि 360 फीट लम्बा और 30 फीट चौड़ा पहाड़ काटने के लिए कितना वक्त लग सकता है,तो उन्होंने भी इस सवाल को अनदेखा किया होता। यह जुदा बात है कि गांव के जमींदार के यहां मजदूरी करने वाले और कभी-कभार मजदूरी का दूसरा कोई काम कर गुजर बसर करने वाले इन्हीं दशरथ मांझी ने इस पहेली का जवाब अपने बाजुओं से अपनी मेहनत से दिया और पहाड़ को चीर कर रख दिया । आज की तारीख में आप कह सकते हैं कि गहलौर से वजीरगंज जाने की अस्सी किलोमीटर की दूरी को 13 किलोमीटर ला देने वाला एक रास्ता एक श्रमिक के प्यार की निशानी है, एक अंगेजी पत्रकार ने लिखा पूअर मैन्स ताजमहल अर्थात गरीब व्यक्ति का ताजमहल। वर्ष 1966 की किसी अलसुबह जब छैनी-हथौड़ा लेकर दशरथ मांझी अपने गांव के पास स्थित छोटे से पहाड़ के पास पहुँचे तो बहुत कम लोगों को इस बात का अनुमान था कि इस 'शख्स' ने दिल में क्या ठान ली है। गांव के भूस्वामी के यहां मजदूरी करने वाले और कभी इधर-उधर काम करने वाले दशरथ मांझी ने जब पहाड़ पर अपना छैनी- हथौड़ा चलाना ’ शुरू किया तब आने-जाने वाले राहगीरों के लिए ही नहीं बल्कि उनके अपने गांव के लोगों के लिए भी वह एक हंसी का पात्र थे। चीनी नीतिकथा की तरह उनके गांव में भी कई सारे बुद्धिमान बूढ़े लोग थे, जिन्होंने उन्हें डिगाने की तमाम कोशिश की । लेकिन अपनी जीवनसंगिनी फगुनी देवी को समय पर इलाज न करा पाने से खो चुके दशरथ मांझी को आलोचनाओं से कोई लेना-देना न था। उनके सामने धुन के पक्के दशरथ मांझी की अथक मेहनत जो काफी हद एक एकांकी कोशिश थी, बाइस साल बाद रंग लायी,जब उस पहाड़ से एक छोटा रास्ता दूसरे गांव तक निकल गया।