दलितों के साम्राज्यवाद से रिश्ते के प्रश्न पर 1857 याद आता है। ऐसा नहीं है कि दलित समाज हमेशा दया का पात्र था, साम्राज्यवाद के प्रतिरोध की उसकी कोई परंपरा नहीं है।मातादीन भंगी ने सिपाही मंगल पांडे से पानी पीने का लोटा माँगने का साहस दिखाया था। मंगल पांडे के फटकारने पर मातादीन ने उसकी खबर ली थी, बहुत जल्दी तुम्हारी पंडिताई निकल जाएगी, जब तुम दाँत से सुअर और गाय की चर्बी से बने कारतूस काटकर बंदूक से चलाओगे। सिपाहियों को भड़काने के जुर्म में मातादीन भंगी को फाँसी दे दी गई। उपर्युक्त घटना में मातादीन भंगी और मंगल पांडे वर्ण व्यवस्था के स्तर पर आमने-सामने खड़े दिखायी देते हैं-परस्पर विरोधी। इसके बावजूद मातादीन भंगी का फाँसी पर चढ़ना और विद्रोह के बाद मंगल पांडे का फाँसी पर चढ़ना साम्राज्यवाद के दौर में एक नियति की सूचना है।
मातादीन भंगी ही नहीं, इतिहासकारों के हवाले से झलकारी बाई, लोचन मल्लाह, महावीरी देवी और पासी जाति के वीरों की पेरणादायक भूमिका का पता चलता है। ऐसा नहीं है कि उनकी 1857 के योद्धाओं से कोई निजी हमदर्दी थी, वस्तुत: वे स्वाधीनता संग्राम में अपना एक नया भविष्य खोज रहे थे। यह सिलसिला महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन में भी बना हुआ था। यह सही है कि ज्योतिबा फुले ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम का समर्थन नहीं किया, क्योंकि ब्रिटिस राज में ब्राहमण दलितों का उत्पीड़न कर रहे थे। फुले सोचते थे कि इसकी क्या गारंटी है कि नाना राव पेशवा, जो महाराष्ट्र में इस संग्राम के नेता हैं, विदेशी शाशकों के जाने के बाद ब्राहमण होने के अधिकार से यही जुल्म नहीं करेंगे । उनको लगता था कि ब्राह्मणों के शोषण शासन से बिर्टिश शासन बेहतर है। दयालु बिर्टिश शासन ने “शुद्रो को शिक्षित करने में अग्री निभाई है। इस तरह महाराष्ट्र के समाज सुधारक फुले का नजरिया हिन्दी पटटी के दलित शहीदों से भिन्न था। उनके मन में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व के प्रति जो संदेह था, वह स्वाभाविक था। इसके साथ यह भी कहा जाना चाहिए कि भीषण साम्राज्यवादी दमन के दौर में दलितों की सामाजिक मुक्ति की परियोंजना को यदि फुले अंग्रेजी राज की आलोचना से थोड़ा भी जोड़ते हैं तो यह बड़ी बात है ।
फुले ने ”किसान का कोड़ा“ में दलित सोच को कई मुद्दों पर साम्राज्यवाद-विरोध से जोड़ा। “किसान“ दरअसल ”दलित“ से बड़ी कैटेगरी है, इसमें फुले बेहिचक प्रवेश करते हैं। उन्हें इसका दर्द है, “ किसान खेत छोड़कर जहां जीविकार्जन हो सके, वहां जा रहे हैं।”(महात्मा ज्योतिबा फुले रचनावली) दूसरी तरफ, अंग्रेजी शासन की दशा है, ”सरकारी गोरे अफ़सर आमतौर पर ऐशो -आराम में मदहोश रहते हैं। इस वजह से उनको किसानों की वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए फुरसत ही नहीं मिलती।“ फुले चनौती देते हैं कि यदि ब्रिटिश सरकार ने फिजूलखर्ची बंद करके दुर्बल शुद्र किसानों के विद्यादान का व्यापक प्रबंध नहीं किया, इस जुल्म का अंजाम अच्छा न होगा। फुले अंग्रेजी शासन को “ न्यायप्रिय सरकार ” दयालु कह कर संबोधित करते हैं। वह उसके साम्राज्यवादी शोषण की भी शिनाख्त करते हैं, जो किसान सभी देशवाशियों को सुख के आधार हैं, उनके इतने बुरे हाल हैं। उनको समय पर पेट भर रोटी और तन भर कपड़ा भी नहीं मिलता। उनकी गरदन पर सरकारी लगान देने की तलवार लटकी रहती है। उनकी दुर्गति को साहब लोगों का शिकारी कुत्ता भी नहीं सूँघता। (वही) ब्राह्मणों के पांखड और निर्दयता के साथ किसानों के शोषण के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना फुले की बहुआयामिता का चिह्न है।
अंबेडकर का दलितों के लिए संघर्ष अंग्रेजों की औपनिवेश -सामंती व्यवस्था से भारतीय जनता के संघर्ष का एक अंग था। वह कभी नहीं चाहते थे कि अंग्रेज भारत पर राज करें । निष्चय ही हम स्वाधीनता आंदोलन और दलितों के बीच दूरी पैदा करने के साम्राज्यवादी प्रयत्नों से वाकिफ़ है। अंग्रेजी राज के एक अफ़सर सर लीपेल ग्रिफिन का विचार था कि विद्रोह को फैलने से रोकने के लिए जाति प्रथा एक बहुत अच्छी चीज है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन जब उभार पर था, यह स्वाभाविक था कि अंग्रेज भारत के सामाजिक अंतर्विरोधों का अपने हित में अधिक से अधिक उपयोग करते। उतना ही यह भी स्वाभाविक था कि दलित हिन्दू वर्ण व्यवस्था को चुनौती देते, क्योंकि इसके बिना वे पूरी तरह स्वाधीन न हो पाते । हिन्दू समाज व्यवस्था की आलोचना और मनुवाद से विद्रोह किये बिना दलितों के लिए भारत की आजादी का ज्यादा मतलब न था, जिस तरह महाजनी- जमींदारी व्यवस्था से संघर्ष किये बिना किसानों के लिए भारत की आजादी का मतलब न था।