योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में गरीबी रेखा की हास्यास्पद परिभाषा दी गई है। सरकार ने ऐसी नीतियां अपनाई हैं कि गरीब की कीमत पर पहले से ही सम्पन्न लोगों को ज्यादा लाभ मिला है। गरीबी या महंगाई पर कैसे काबू पाया जाए इसका उसे कोई अंदाजा नहीं है जिसकी वजह से गरीब का जीना बहुत ही मुश्किल हो गया है। सरकार किसानों की आत्महत्या, भुखमरी से मौतें, बच्चों का कुपोषण या प्रसव के दौरान मां की मृत्यु दर पर काबू पाने में नाकाम रही है। जबकि मंत्रियों ने भ्रष्टाचार में करोड़ों कमाए हैं सरकार गरीबों के प्रति संवेदनहीन रही है।
इन्हीं मॉंगों के समर्थन में मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ0 संदीप पाण्डेय एवं सैकड़ों अन्य नागरिक पांच दिवसीय उपवास पर हैं जिसका आज तीसरा दिन है - 22 अक्टूबर से 26 अक्टूबर, 2011 तक यह उपवास रहेगा। डॉ0 संदीप पाण्डेय उपवास पर आशा आश्रम, ग्राम लालपुर, पोस्ट अतरौली, जिला हरदोई, उ.प्र. में बैठे हैं। हरदोई के अलावा लखनऊ, अहमदाबाद, मुरादाबाद, आदि में भी लोग भारी मात्रा में उपवास पर हैं।
नर्मदा बचाव आंदोलन का नेतृत्व कर रहे आलोक अग्रवाल ने भी आशा आश्रम में उपवास में भाग लिया। तीन ग्राम प्रधानों ने भी इसका समर्थन किया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों।
हमारी मांगें हैं किः
(1) योजना आयोग अपना गरीबी का मानक - शहर में प्रति दिन 32 रु. व गांवों में 26 रु. खर्च करने वाला - वापस ले, (2) गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों, (3) सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोक व्यापीकरण हो यानी हर गरीब को कम कीमत पर अनाज मिले जैसे उसे रोजगार गारण्टी योजना में काम मिल सकता है, (4) अनाज के बदले जो नकद देने की योजना बनी है उसे वापस लिया जाए, (5) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में न्यूनतम मजदूरी 250 रु. प्रति दिन हो जो हरेक मूल्य वृद्धि व सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित हो तथा सारी कृषि मजदूरी रोजगार गारण्टी योजना से दी जाए और (6) समान शिक्षा प्रणाली को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का हिस्सा बनाया जाए।
यह बहुत जरूरी हो गया है कि गरीब के मुद्दे उठाए जाएं क्योंकि अभिजात्य शासक वर्ग लगातार उसके साथ खिलवाड़ करता जा रहा है और मध्य वर्ग इस पर चुुप रहता है। अमीर व गरीब के बीच बढ़ते अंतर के साथ अब पहले से ज्यादा विभिन्न वर्गों के लिए मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि, की गुणवत्ता में अंतर दिखाई पड़ने लगा है जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जायज नहीं ठहराया जा सकता।
इस बार हम काली दीवाली मनाएंगे। जो हालात सरकार की आर्थिक नीतियों ने पैदा किए हैं उसमें गरीब के लिए दीवाली मनाने की बहुत गुंजाइश नहीं रही है। यह उपवास गरीबों व ग्रमीण इलाकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध है।
आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, लोक राजनीति मंच