पिछले दिनों विभिन्न राजनीतिक दल अपनी-अपनी पसंद के राष्ट्रपति पद हेतु नाम प्रस्तावित करने में लगे रहे। शुरू में माना जा रहा था कि मुलायम सिंह यादव भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नाम का समर्थन करेंगे। यह धारणा तब और मजबूत हो गई जब शरद पवार के इस प्रस्ताव का कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार गैर-राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए मुलायम सिंह ने समर्थन किया। किन्तु फिर मुलायम सिंह इस बात से पीछे हटते दिखे। उधर लालू यादव ने उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के नाम का प्रस्ताव राष्ट्रपति पद के लिए रख दिया। लालू यादव कांग्रेस के इतना नजदीक हैं कि ऐसा प्रतीत हुआ कि कांग्रेस की पसंद भी हामिद अंसारी ही हों। पश्चिम बंगाल के भूतपूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी, ए.के. एंटनी, मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे और यहां तक कि डॉ मनमोहन सिंह,के नाम भी चर्चा में आए। किन्तु अब वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रणव मुखर्जी के नाम पर सहमति बनती दिखाई पड़ रही है। पक्ष-विपक्ष के कई दलों को अभी तक चर्चा में आए सभी नामों में से सबसे स्वीकार्य नाम यही मालूम पड़ रहा है।
किन्तु कांग्रेस के ही कुछ नेताओं, जैसे, सलमान खुर्शीद व रेणुका चौधरी, के बयानों से यह भी लगता है कि शायद कांग्रेस पार्टी, जो वर्तमान समय में विश्वसनीयता के गम्भीर संकट से गुजर रही है, के लिए प्रणव मुखर्जी जैसे संकट मोचक व्यक्ति की सेवाओं की पार्टी को ज्यादा जरूरत है। यह प्रणव मुखर्जी का दुर्भाग्य ही है कि नरसिंह राव के समय से प्रधान मंत्री पद के दावेदार होते हुए भी हमेशा उनसे अपेक्षा की गई है कि वे अपने व्यक्तिगत हित को पार्टी हितों के आधीन ही रखेंगे।
वैसे राष्ट्रपति पद की गरिमा और इस पद पर रहने वाले के लिए तटस्थता बनाए रखने की अवाश्यकता को देखते हुए यह व्यक्ति किसी मुख्य धारा के दल से न ही जुडा़ हो तो अच्छा रहेगा। लेकिन अब्दुल कलाम जैसा एकदम अराजनीतिक व्यक्ति भी ठीक नहीं है क्योंकि उसे देश की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति की ठीक-ठीक समझ तो रखनी चाहिए।
देश की राजनीतिक स्थिति की अच्छी समझ रखने वाले एक व्यक्ति जो दलीय राजनीतिक के दायरे से बंधे नहीं हैं और जो शायद इस समय देश के सबसे लोकप्रिय जन नायक हैं वे है अण्णा हजारे। उन्होंने लोकतंत्र में संसद की ताकत से सम्प्रभु जनता की ताकत है यह देशवासियों को दिखाया है। संसद ने भी उनको वो सम्मान दिया है जो किसी युग पुरुष को मिलना चाहिए। कायदे से तो सभी दलों को अण्णा के लिए सर्व सम्मति से राष्ट्रपति पद छोड़ देना चाहिए। किन्तु अण्णा ने किसी संवैधानिक पद को न ग्रहण करने का अपना फैसला पहले ही सुना दिया है। वैसे अण्णा हजारे के राष्ट्रपति बनने से उस प्रक्रिया की शुरुआत हो सकती थी जिसके लिए देशवासियों की अपेक्षा उनके आंदोलन से जग गई है - यानी भ्रष्टाचार से मुक्ति की।
इस कड़ी में एक अन्य नाम है न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर का। दिल्ली उच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश होने की वजह से संविधान एवं विधि के ज्ञाता होने के साथ-साथ राजिन्दर सच्चर समाज की भी बहुत गहरी समझ रखते हैं जैसा उन्होंने मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर अपनी अध्यक्षता में बनी समिति की रपट प्रस्तुत कर दिखाया है। आजादी के पहले, 1946, में ही वे सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे और डॉ राम मनोहर लोहिया के साथ काम करने का उनको बहुमूल्य अनुभव प्राप्त है। उनके पिता भीमसेन सच्चर अविभाजित पंजाब में मंत्री तथा आजादी के बाद भारतीय पंजाब के पहले मुख्य मंत्री रहे। इसलिए राजिन्दर सच्चर को राजनीति को काफी करीब से देखने का मौका मिला है। राजिन्दर सच्चर उस दौर के व्यक्ति हैं जब लोग अपने राजनीतिक मूल्यों में निष्ठा की वजह से अपने को राजनीतिक प्रलोभन से दूर रखना जानते थे।
भारतीय राजनीति में जो सबसे बड़ा क्षरण हुआ है वह है मूल्यों का। जिस किस्म की अवसरवादी राजनीति हमारे देश पर हावी है उससे किसी का भला तो नहीं हो सकता। इस देश की राजनीति को पटरी पर लाने का महत्वपूर्ण काम अण्णा हजारे और राजिन्दर सच्चर जैसे व्यक्ति ही कर सकते हैं जिनकी देश के संविधान में निहित मूल्यों में गहरी आस्था हो। कोई मुख्य धारा की राजनीति से आया हुआ व्यक्ति तो यह काम नहीं कर सकता न हम आज दावे के साथ यह कह सकते हैं कि उसकी संवैधानिक मूल्यों में आस्था ही है।
राजिन्दर सच्चर का इस देश के लिए सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि जब आतंकवाद की राजनीति ने इस देश को सशंकित कर दिया था और मध्य वर्ग और संचार माध्यम देश के हरेक मुसलमान में आतंकवादी की छवि देखने लगे थे तो मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का वास्तविक चित्रण जनता के सामने रख इस देश को बताया कि मुसलमान दोषी नहीं बल्कि पीड़ित है। रातों-रात देश के मन में मुसलमान का चित्रण बदल गया। इससे राजिन्दर सच्चर ने न सिर्फ मुसलमानों का भला किया बल्कि देश का भी भला किया। समस्या को ठीक से समझे बिना उसका हल नहीं खोजा जा सकता है। अब देश ने यह समझ लिया है कि आंतकवाद का किसी धर्म विशेष से ताल्लुक नहीं है और मुसलमानों का पिछड़ापन उनकी असुरक्षा का कारण बनता है।
यह राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता वाली रपट का ही परिणाम है कि मुस्लिम आरक्षण का सवाल अब भाजपा को छोड़ लगभग सभी दल उठा रहे हैं। बल्कि इस बात की होड़ लगी है कि कौन मुसलमानों का ज्यादा भला कर दे। इस दृष्टि से राजिन्दर सच्चर का योगदान ऐतिहासिक है।
यदि सभी दल मिल कर न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर का चुनाव राष्ट्रपति पद के लिए करते हैं तो इस देश में एक नए राजनीतिक अध्याय की शुरुआत हो सकती है जिसमें वे मूल्य पुनः स्थापित होंगे जिनके बिना हमारे लोकतंत्र का लाभ आम इंसान को नहीं मिल पा रहा। राजनीतिज्ञ न होते हुए भी गहरी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समझ रखने वाला और जीवन में सादगी के मूल्य को जीने वाला व्यक्ति भारतीय राजनीति को वह दिशा दे सकता है जिसका सपना हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा था।
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक, मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं। संदीप जी, लोक राजनीति मंच के अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं. वें पूर्व आई.आई.टी. कानपुर और आई.आई.टी. गांधीनगर में पढ़ा चुके हैं, और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के समन्वयक हैं)