तीसरा लिंग समाज में बहिष्कृत क्यो?

रवीना बरिहा छत्तीसगढ़ की एक पढ़ी लिखी मितभाषी आदिवासी हिजड़ा हैं। उनकी दुबली पतली काया से यह पता ही नहीं लगता कि वो एक तेज़ तर्रार कार्यकर्ता हैं जो हिंजड़ों/किन्नरों को सभ्य समाज में एक सम्मानित स्थान दिलाने के लिए दृण संकल्प हैं। अन्य कार्यकर्ता उन्हें छोटा रॉकेट के नाम से बुलाते हैं। अपने पहनावे और बातचीत के तौर तरीकों से रवीना कहीं से भी एक किन्नर जैसी नहीं दिखती हैं। हाल ही में दिल्ली में आयोजित हिजड़ा हब्बा सम्मेलन में उनसे बात करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जहाँ उन्होने किन्नर समुदाय की आकांक्षाओं और आशाओं की; उनके दारुण दु:खों और पीड़ा के बारे में खुल कर चर्चा की। 


प्रस्तुत है उनकी व्यथा कथा--

“मैं एक किन्नर हूँ, और मैंने स्वयं अपने निजी जीवन में उन सभी आपदाओं को झेला है जो किन्नर/हिजड़ा समुदाय को निरंतर त्रसित करती हैं। अपने जीवन में मैंने अनेकों बार तिरस्कार और अभद्र व्यवहार का सामना किया है और बहुत ही कठिन परिस्थियों से गुज़रते हुये, संघर्ष और अपमान सह कर, अपने स्नातक स्तर तक की पढ़ाई पूरी करी है। मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि मेरे समुदाय के लोगों में एक अच्छा जीवन जीने की प्रतिभा व क्षमता है, बस कमी है तो उचित प्रोत्साहन और एक सहयोगी वातावरण की। इसी स्वप्न को साकार करने के लिए मैंने 2008 से खुद को पूर्ण रूप से किन्नर समाज के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया है। 

उस समय मैं एक शिक्षा कर्मी थी। मैं आदिवासी इलाके से हूँ। पढ़ लिख गयी थी तो मुझे एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई। फिर मैंने सोचा कि कम्यूनिटी के लिए कुछ काम करना होगा। तो मैं वो नौकरी छोड़ कर राजधानी रायपुर आ गयी। वहाँ मुझे हिन्दी प्रेस हरी भूमि में सहायक संपादक का पद मिला। मेरी हिन्दी अच्छी थी और मैं लेख लिखा करती थी। फिर उसे भी छोड़ दिया।  उस समय नाको (राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था) का एक टार्गेटेड  इंटरवेनशन (लक्षित हस्तक्षेप) का प्रोग्राम चल रहा था—हिजड़ा और एमएसएम (समलैंगिक) कम्यूनिटी में। उसमें काम करना शुरू किया। पर मुझे लगा कि यह प्रोग्राम एचआईवी पर ही ज़्यादा केन्द्रित है। पर हमारे समुदाय के लिए एचआईवी के अलावा और भी बहुत सारे मुद्दे हैं। तो उस नौकरी को भी छोड़ कर मैंने ‘छत्तीसगढ़ मितवा संकल्प समिति’ नामक एक संस्था बनाई और मैं लोगों को इसमें जोड़ती गयी। आज इस संस्था में 2000 हिंजड़ों का पंजीकरण (रेजिस्ट्रेशन) हो चुका है। छत्तीसगढ़ एक नया आदिवासी राज्य है—बहुत शांत प्रदेश है और शासन भी अच्छी सोच रखता है। एक साल पहले हमने छत्तीसगढ़ में हिजड़ों/किन्नरों के लिए एक वेल्फेयर बोर्ड बनाने के लिए मुख्य मंत्री जी को एक अर्जी दी थी। शासन ने बहुत ही कम समय में इसका प्रारूप तैयार कर एक स्टडी कमेटी बना दी है जो 5 महीने में अपनी रिपोर्ट दे देगी। ऐसी उम्मीद है कि एक साल में तमिलनाडू के बाद देश का यह दूसरा प्रदेश होगा जहां वेल्फेयर बोर्ड की स्थापना हो सकेगी। तो खुशी की बात है कि यहाँ यह काम अपेक्षाकृत कम समय में होने की आशा है। बाकी राज्यों में वेल्फेयर बोर्ड बनाना एक लंबी प्रक्रिया है, यहाँ पर आसान तरीके से हो गया है। हमारी संस्था और भी बहुत सारे मुद्दों पर काम कर रही है। गरीब बच्चों के साथ जन्मदिन मनाना, वृक्षारोपण करना, अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समर्थन हम 5000 जगह पर किन्नरों की रैली निकालना आदि। इन छोटे छोटे प्रयासों के माध्यम से हम किन्नरों को सभ्य समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं।  

मैं जानती हूँ कि मेरे समुदाय के लोगों में बहुत सारी क्षमताएं हैं। माहौल अच्छा मिले तो वो जीवन में बहुत आगे बढ़ सकते हैं। परंतु सामाजिक विषमताओं के चलते ये सारी संभावनाएं और प्रतिभाएं अंदर दबी रह जाती हैं। तभी मैंने तय कर लिया है कि व्यवस्था में कुछ बदलाव ज़रूर लाना है। मुख्य परेशानी है समाज की मानसिक अक्षमता। जैसे ही लोगों को पता चलता है कि यह किन्नर है तो भेदभाव और बहिष्कार की प्रक्रिया शुरू हो जाती है । शायद इसका एक कारण अज्ञानता भी है। आज भी अधिकतर लोग स्त्रीलिंग और पुरुष लिंग को ही जानते हैं। तीसरे लिंग के बारे में उनकी जानकारी न के ही बराबर है। जब वे हिजड़ों के अस्तित्व से ही अनभिज्ञ हैं तो उनके मुद्दों के बारे में क्या समझ पाएंगे। मेरा मानना है कि यदि जेंडर/लिंग के बारे में लोगों की जानकारी बढ़ा दी जाय तो 80% भेदभाव अपने आप ही खतम हो जाएगा। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि हर व्यक्ति अच्छा और संवेदनशील है। परंतु कहीं न कहीं जानकारी के अभाव के कारण उसका रवैय्या इतना तिरस्कारपूर्ण हो गया है, जिसे कम करना है। स्कूल के पाठ्यक्रम में भी इस विषय की जानकारी देनी चाहिए और शासन तथा पुलिसकर्मियों में भी इस विषय को लेकर सहनशीलता का परिचय देना होगा।  

दूसरी बात है कि अपने परंपरागत आचरण के कारण हम भीड़ में सबसे अलग थलग नज़र आते हैं। हमारा पहनावा, बातचीत का लहजा, ताली बजाना, सदियों के अत्याचार और भेदभाव के चलते, अपनी एक अलग पहचान बनाने की प्रवृत्ति के कारण है। अपने पहनावे के जरिये या बोलने के लहजे से, हम किसी न किसी रूप से स्वयं को आइडेंटिफ़ाई करना चाहते हैं। मुग़लों के जमाने में किन्नर पुरुष वेषभूषा में ही रहते थे। साड़ी पहनने का रिवाज नहीं था। तो ताली बजाने की परंपरा कहीं न कहीं इसी मानसिकता से जुड़ी है कि मैं अपने जेंडर/लिंग की पहचान कैसे कराऊँ। यह मानसिकता अब परंपरा का रूप ले चुकी है। पर यह सब हमें कहीं न कहीं आम जनता से अलग कर रहा है। कम्यूनिटी को चाहिए कि समाज से अलग दिखने व रहने की कोशिश न करे। हिजड़ों/किन्नरों को अपनी वर्तमान पारंपरिक छवि को बदल कर समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की कोशिश करनी होगी ताकि आम जनता उनकी उपस्थिती में स्वयं को असहज न महसूस करें। पर यह तभी संभव है जब कुछ व्यवस्था हम लोग बदलें। इसके लिए समुदाय के लोगों की सोच को बदलना पड़ेगा।

हमारे समुदाय के प्रति समाज में व्याप्त घनघोर भेद भाव भरे रवैये के चलते विकट परिस्थितियों में जीते हुये युवा हिजड़ों/किन्नरों की क्षमताएं बंजर हो रही हैं और उनमें आक्रोश तथा क्रोध की भावना बढ़ रही है। रोजगार के अधिकतर द्वार उनके लिए बंद हैं। अत: उनके पास पेट भरने के लिए केवल भीख माँगने, घर घर जा कर बधाई गाने और वेश्यावृत्ती करने के अलावा कोई और विकल्प बचता ही नहीं है। इसलिए समुदाय के सदस्यों, विशेषकर हिजड़ों की युवा पीढ़ी, को इन नकारात्मक परिस्थितियों से निकाल कर एक स्वस्थ वातावरण में रखना ज़रूरी है। मैं जिस आदिवासी समुदाय से हूँ वहाँ शादी के वक़्त दुल्हन का शराब पीना ज़रूरी माना जाता है। पर मैं हॉस्टल में रह कर पढ़ी हूँ और इस वजह से मेरी सोच में बदलाव आया है और अब मैं इसे गलत समझती हूँ। इस प्रकार की गलत परम्पराओं का समुदाय के लीडरों को खुल कर विरोध करके समुदाय के आचरण में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने ही होंगे और समुदाय के लोगों को आपस में लड़ाई झगड़ा न करके एक जुट होकर काम करना होगा। तभी हमारा विकास संभव है। यह समुदाय के लीडरों का काम है कि वो किन्नरों की वर्तमान विचारधारा में सकारात्मक बदलाव लाएँ। समुदाय के नेताओं को चाहिए कि वे कम्यूनिटी को सक्षम बनाने की राह में अपने अहं को आड़े न आने दें। यह केवल एक सामाजिक मुद्दा नहीं वरन मनोवैज्ञानिक मुद्दा भी है। यदि हम भेदभाव की समस्या से निपट सकें तो बाकी सभी समस्याओं का हल खुद ब खुद निकल आएगा। 

हाल ही में यूएनडीपी ने एक लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाया था। उसमे भाग लेने वाले किन्नरों के बर्ताव और आचरण में 30 दिनों में ही बहुत ज़्यादा बदलाव आया। तो जब 30 दिनों में इतना बढ़िया नतीजा सामने आ सकता है तो अगर युवा किन्नरों के लिए हॉस्टल बनाने की कोई योजना सरकार चला सके (जैसे आदिवासियों, हरिजनों और अल्प समुदायों के लिए बनाए गए हैं) तो इसके बहुत ही अच्छे परिणाम सामने आएंगे और तीन चार साल में उनका आचरण एकदम बादल जाएगा। हॉस्टल बनाने से किन्नरों में व्याप्त अशिक्षा भी काफी हद तक दूर की सकेगी। क्योंकि वर्तमान परिवेश में पढ़ने वाले हिजड़ों को बहुत नकारात्मक्ता का सामना करना पड़ता है। मैं ऐसे कई युवाओं को व्यक्तिगत रूप से जानती हूँ जिनका जीवन इस भेदभाव के कारण नष्ट हो गया। सहपाठियों के अपमान भरे तानों से तंग आकर एक लड़के को अपनी एमबीबीएस की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। हॉस्टल में सब उसे छक्का मामा बुलाते थे। एक और 15 साल के लड़के के साथ चार बार बलात्कार किया गया पर उसके माता पिता ने बदनामी के डर से पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखाई। एक की जबर्दस्ती शादी करा दी गयी और दो महीने के अंदर उसका तलाक भी हो गया। ऐसी घटनाएँ आम बात हैं। 

जिस व्यक्ति को बचपन से ही विकट परिस्थितियों में रहते हुए प्रति पल अनादर, अपमान और तिरस्कार झेलना पड़े उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। जिस समय उनके चरित्र और व्यक्तित्व का विकास होना चाहिए उस समय उनके साथ ऐसी भयावह घटनाएँ होती हैं। उसकी सारी संवेदनशीलता मर जाती है और उसका रवैय्या कठोर हो जाता है। इसलिए प्रत्येक वय में उचित परामर्श और सलाह बहुत ज़रूरी है। ऐसे बच्चे की पहचान होते ही, या उसके लिंग का पता चलते ही ही माता पिता को सतर्क हो कर बच्चे विशेष ध्यान रखते हुए उसको उचित संरक्षण और देखभाल में पढ़ने लिखने के लिए एक स्वस्थ वातावरण दें; स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षकों की ऐसी टीम बने जो बच्चे और उसके परिवार को उचित सलाह देकर काउंसेलिंग करे; इन बच्चों के लिए अलग से ऐसे हॉस्टल होने चाहिए जहाँ वे खुल कर सांस लेते हुए अपनी पढ़ाई निर्विघ्न पूरी कर सकें। 

भेदभाव दो तरीकों से ही मिट सकता है। एक तो उन्हें एक स्वस्थ वातावरण में पलने-बढ़ने का मौका देकर और दूसरा समाज में यह जागरूकता फैलाएँ कि तीसरा लिंग भी होता है, जिसकी भी अपनी समस्याएँ हैं, मुद्दे हैं और अपनी भी एक ज़िंदगी है।  उन्हें लड़का या लड़की की तरह रहने के लिए मजबूर करना उनके साथ बहुत बड़ा अत्याचार है। समाज को हिंजड़ों को स्वीकार करना ही होगा। वे भी समाज का एक अंग हैं। समाज की धारणा को बदलना ज़रूरी है। ईश्वर के बनाए हुए इस तीसरे लिंग के साथ जन्म लेने वालों को अपराधी मानना कहाँ का न्याय है?”

शोभा शुक्ला- सी.एन.एस.