शांती मुंबई में रहने वाली एक 38 वर्षीय अल्पशिक्षित और गरीब महिला हैं| वह पिछले पाँच वर्षो से एचआईवी-ग्रस्त हैं और उन्हें ड्रग-रेजीस्टेंट (औषधि प्रतिरोधक) टीबी भी है | उनकी कहानी सड़कों पर जिन्दगी बसर करने वाले उन लाखों लोगों की कहानी है जिनके लिए कोई बीमारी न होने पर भी जीवन का प्रत्येक दिन एक कठिन संघर्ष होता है | एचआईवी-टीबी के सह-संक्रमण के दोहरे बोझ की चिकित्सा लेना जिन्दगी की अंतिम उम्मीद समाप्त हो जाने जैसा है | शांती ने अपनी व्यथा-कथा हाल ही मे मेडिसिन्स सान्स फ़्रोंटिएर (एमएसएफ) नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था को बयान की, जिसकी देख-रेख में कुछ माह पूर्व उनकी एमडीआर-टीबी की चिकित्सा प्रारम्भ हुई थी|
उनके पूर्व-पति की म्रत्यु 1991 में एड्स के कारण हो गई थी, और उनकी एकमात्र पुत्री भी कुछ वर्षो पहले चल बसी| वे अपने पुराने दिनों और वर्तमान की व्यथा का बयान इस प्रकार करती हैं—“मेरा जन्म व पालन मुंबई में हुआ| मेरे बचपन के दिन बहुत अच्छे थे| मुझे समुद्र के किनारे खेलना और फोटो खींचना बहुत पसंद है| अपने विवाह के बाद भी मैं अक्सर अपनी पुत्री और पति के साथ यहाँ (चौपाटी तट) पर आकर खुश होती थी। पर अब मैं बाहर कहीं भी घूमने नहीं जा पाती हूँ| मैं हर समय काफी थकी सी और बीमार रहती हूँ| यहाँ तक कि कोई त्योहार या उत्सव भी नहीं मनाती| मेरी जिन्दगी दवाओं के इर्द-गिर्द घूमने के कारण नारकीय हो गई है| काश कि वो पुराने दिन फिर से लौटकर आ पाते|”
शांति की मुसीबतों की कहानी 2006 में शुरू हुई जब वह दस्त, और बार-बार होने वाले तेज़ बुखार व उल्टियों के कारण बहुत बीमार हो गईं| उन्होने गैर-सरकारी अस्पताल में इलाज करवाया| वह उस समय अपने दूसरे पति के साथ रह रही थीं| काम भी करती थीं। लेकिन सारा धन उनकी बीमारी पर ही व्यय हो जाया करता था | वह याद करती हैं कि, “मैं एक महीने ठीक रही हूंगी कि फिर से परेशानी शुरू हो गई| मैंने 400 रुपए खर्च करके प्राइवेट में एचआईवी की जाँच भी कराई लेकिन रिपोर्ट निगेटिव थी। लेकिन बाद में एचआईवी की पुष्टि हुई और 2007 में जे जे हॉस्पिटल में मुझे एंटिरेट्रोवाइरल थेरेपी (एआरटी) पर रक्खा गया |”
जो भी हो, उनके डीआर-टीबी रोग का निदान और इलाज तो और भी कठिन कार्य था| मरीन लाइंस के म्यूनिस्पल अस्पताल में उनके थूक का तीन बार परीक्षण किया गया पर टीबी के लिए परिणाम नकारात्मक रहा| फिर भी उन्हें छः महीने तक टीबी की दवा दी गई | उनको एक-एक दिन छोड़कर 24 इंजेक्शन और गोलियां लेनी होती थीं| लेकिन हालत में कोई सुधार न होने के कारण, वो दो महीने की चिकित्सा की बाद फिर उसी अस्पताल में वापस गईं और उनके एक्स-रे (जो उन्होने निजी तौर पर अस्पताल के बाहर करवाया था) के आधार पर उन्हे दुबारा आठ माह का टीबी उपचार दिया गया |
लेकिन फिर भी उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, और वे लगातार खाँसी, कमजोरी, और भूख न लगने की वजह से बहुत परेशान रहीं| लेकिन डॉक्टरों ने उनको तीसरी बार टीबी की दवाएं देने से मना कर दिया क्योंकि इससे उनकी किडनी खराब हो सकती थी|
“तब मैं जे जे अस्पताल में पहले से ही एआरटी पर थी | लेकिन इलाज से कोई फायदा नहीं हो रहा था | मेरी तबीयत और भूख में कुछ भी सुधार नहीं था | मैंने वहाँ के डाक्टरों को बताया कि टीबी के इलाज के मैं पहले ही दो कोर्स ले चुकी थी | तब मुझसे एक फार्म भरवाया गया और मुझे जीटी के एक अस्पताल मे भेज दिया गया | वहाँ फिर मैंने टीबी के इलाज के लिए गोलियों और इंजेक्शन का 6 माह का कोर्स पूरा किया|”
अंत में जे जे अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा 2007 में उनको ड्रग रेजीस्टेंट टीबी (डीआर-टीबी) होने की पुष्टि की गई और यह भी बताया गया कि इस महँगे इलाज को पूरा करना उनके लिए कठिन होगा | अस्पताल में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने परेशान शांति को समझाया कि, “यहाँ पर इसका कोई इलाज नहीं है| निजी डॉक्टर से इलाज कराना काफी महंगा भी है| तुम्हारे पास लाखों रूपये कहाँ से आयेंगे? इसलिए तुम बस पौष्टिक आहार खाती रहो और जिन्दगी भर एआरटी दवा जारी रखो| अगर तुम यह दवा छोड़ दोगी तो मर जाओगी”।
शांति पूरी तरह से निराश हो चुकी थी। वह अब तक टीबी की चिकित्सा का पूरा कोर्स तीन बार ले चुकी थी – दो बार 6-6 महीने का और एक बार 8 महीने की अवधि का, लेकिन हर बार उसकी हालत सुधरने के बजाय और भी बिगड़ती गई | भाग्यवश, नवम्बर 2011 में उनका सम्पर्क एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जिसने उन्हें एमएसएफ तक पहुँचाया और जहाँ अन्त में उनको सही इलाज मिला | एमएसएफ में अब डीआर-टीबी का उपचार कराते हुये उन्हें कुछ महीने हो चुके हैं| लेकिन उनको एचआईवी का भी संक्रमण होने के कारण (वो 2007 से एआरटी पर हैं),उनकी रोज़ लेने वाली दवाओं की संख्या बहुत है | वे कहती हैं, “मेरी दवाओं की संख्या काफी है | मुझे केवल टीबी के लिये ही बहुत सी गोलियां लेनी होती हैं—सवेरे 6 गोली और रात को 8 गोली| इसके अलावा एंटि-रेट्रोवाइरल दवाएं भी लेनी होती हैं| कभी-कभी कुछ गोलियां उलटी में निकल भी जाती हैं, इसलिये उल्टी रोकने के लिये भी कुछ दवाएं खानी होती हैं| मुझे इंजेक्शन भी लगवाने पड़ते हैं| यदि दवाएं कुछ कम हो जाएँ तो काफी आराम होगा| अब तो यह लगने लगा है है कि जैसे दवाएं ही मेरा खाना हैं | मेरे पेट मे खाने से अधिक दवाएं होती है | डाक्टर कहते हैं कि मेरा वजन बढ्ने पर गोलियों की संख्या कम हो जाएगी| लेकिन अभी मेरा वजन नहीं बढ़ रहा है| मुझे फल और दूध लेने को कहा गया है, लेकिन दूध और दही मेरा पेट पचा नहीं पा रहा है| इस समय ज़िंदगी बहुत बेकार है|”
इन सभी दवाओं के बहुत बुरे साइड इफेक्ट (पार्श्व प्रभाव) का सामना कर सकना बहुत कठिन होता है| शांति दुखित होकर कहती हैं कि, “मैं ठीक से खा नहीं सकती हूँ| हर समय उल्टी करती रहती हूँ और सारे दिन उनींदापन महसूस करती हूँ- जैसे कि मैंने नशा किया हो| ऐसा लगता है कि जैसे मेरा दिमाग काम ही नहीं कर रहा हो, मैं निराशा का अनुभव करती हूँ | हर वक़्त इतनी अधिक घबराहट महसूस होती है कि जैसे मैं मर ही जाऊँगी | दवा लेने के बाद मुझे चक्कर आते हैं और बहुत गर्मी भी लगती है|”
शांति के रहने की सुविधाएं भी अपर्याप्त हैं | वर्षो से उनकी अधिकांश कमाई जाँचों और दवाओं पर खर्च होती रही है | अपने पहले पति की म्रत्यु के बाद से वह अपने एक दोस्त के साथ रह रही हैं जिनका प्यार और देखभाल ही उनकी एकमात्र आशा है| शांति का शराबी भाई और बूढ़ी माँ (जो मधुमेह की रोगी हैं) भी उसके साथ रहते हैं | शांति को शिकायत है कि “मेरे पास रहने के लिए सही जगह तक नहीं है | मेरा घर बहुत छोटा और बुरे हाल में है | मेरे यहाँ बिजली भी नहीं है | पंखा न होने से अधिक गरम हो जाता है| जब मैं दवाएं खाती हूँ तो बहुत गरम महसूस करती हूँ| यहाँ पर नहाने की समस्या भी है| मुझे ऐसी जगह की जरूरत है जहाँ मैं पंखे के नीचे आराम से सो सकूँ और दवा खाने के बाद आराम कर सकूँ|”
शांति के जीवन की तूफानी राहों में उनके साथी का प्यार एक लंगर की तरह है | उसके शब्दों में, “मेरे पति सदा मुझे आशावान बनाये रखते हैं| वही मेरी हिम्मत के स्रोत हैं| मैं आज उनके कारण ही जीवित हूँ | मेरे पहले पति की म्रत्यु के पश्चात मेरा इनसे विवाह हुआ| मेरे अनेकों दोषों के बावजूद, वह मेरी अच्छे से देखभाल करते हैं| यहाँ तक कि वे मेरे कपड़े भी धोते हैं और नहाने में मेरी मदद भी करते हैं| यदि ऐसा न होता मेरा इलाज बहुत पहले ही बंद हो गया होता| उनके साहस और विश्वास के कारण ही मैं सब कुछ करती रही| मैंने तो जीने की सभी आशाएँ छोड़ दी थीं| मैं बस मरना चाहती थी, कोई दवा या इंजेक्शन लेना नहीं चाहती थी| लेकिन मैं अपने पति के प्यार के कारण ही इतनी दवाएं खा रही हूँ। वो कहते हैं—“यदि तुम मर जाओगी तो मैं भी यह संसार छोड़ दूँगा”।
इतना अधिक ध्यान रखने वाले साथी को पाकर शांति भाग्यशाली तो हैं ही, लेकिन इससे भी अधिक भाग्यशाली एमएसएफ की शरण में आकर हैं (शर्मिला मैडम और रोमा मैडम के प्रयासों के माध्यम से) जहाँ पर वे डीआर-टीबी का निःशुल्क इलाज पा रही हैं| यह उनके लिए स्वर्णिम अवसर के समान है| लेकिन हजारों अन्य इतने किस्मत वाले नहीं होते| बीमारी के प्रथम चरण में ही अयोग्य डाक्टरों के चक्करों में पड़कर वे अपनी बीमारी का सही निदान नहीं प्राप्त कर पाते हैं | इलाज शुरू होने पर भी अनेकों कारणों से—महँगा इलाज, दवाओं का बोझ, दवाओं के विषाक्त पार्श्व-प्रभाव, बीमारी के बारे में जानकारी और जागरूकता का अभाव-- इलाज पूरा नहीं हो पाता है| इसलिए वे अपने दुखों को समाप्त करने के लिए, मौत का इंतजार करते हुये, दयनीय परिस्थितियों में जीवन के दिन काटते हैं| हमें उस दिन का इंतज़ार है जब सभी जरूरतमंदों को, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का विचार किए बगैर, गुणात्मक एवं उचित चिकित्सा दी जा सकेगी।
(अंग्रेजी में शोभा शुक्ला के मूल लेख का सुश्री माया जोशी द्वारा हिंदी में अनुवाद)