हमने
16 जनवरी,
2013 से
एक सर्वेक्षण शुरु किया जिसके
द्वारा हम उत्तर प्रदेश में
सूचना का अधिकार अधिनियम,
2005 के
कार्यान्वयन की स्थिति आवेदकों
के अनुभवों के आधार पर समझना
चाहते थे। यह
सर्वेक्षण करना हमारे लिये
बहुत शिक्षाप्रद अनुभव था
क्योंकि इससे हमें सूचना का
अधिकार अधिनियम को प्रयोग
में लाने से सम्बन्धित कठिनाइयों
के बारे में पता चला। हमने न
केवल अधिनियम के तहत आवेदन
देने का कागज़ी काम किया,
बल्कि
अन्य आवेदकों की शिकायतों को
सुना और उनके सम्भावित समाधानों
पर उनसे चर्चा की।
हमने
आवेदकों से करीब 25-30
प्रशन
पूछे जैसे कि:
- आपने कौन-कौन से विभागों से जानकारी माँगी है?
- क्या जानकारी माँगी थी?
- क्या वह जानकारी आपको दी गयी? क्या दी गयी जानकारी से आप संतुष्ट हैं?
- यदि आपने अपील दाख़िल करी तो उसके बारे में बताएं।
- आयोग ने आपको कितनी बार सुनवाई के लिये बुलाया?
- सुनवाई किस सूचना अधिकारी द्वारा की गयी?
- क्या आपकी आयोग से कोई शिकायत है?
- क्या आपको सूचना माँगने के लिये कभी डराया-धमकाया गया?
आवेदकों
से हमें बहुत सहयोग मिला,
और
वो स्वेच्छा से फार्म भरने
और अपनी शिकायतों और सुझावों
को व्यक्त करने सामने आये।
हमें ऐसे कई आवेदक मिले जिंहोने
शिक्षा विभाग,
खाद्य
एवं रसद विभाग,
स्वास्थ्य
विभाग,
विद्युत
विभाग,
पशु
विभाग,
लोक
निमार्ण विभाग,
जिलाधिकारी
कार्यालय आदि में सूचना की
माँग की थी।
सूचना
का अधिकार अधिनियम के लागू
करने का उद्देश्य व्यक्तिगत
समस्याएं सुलझाने से ज्यादा
सार्वजनिक हित के लिये
प्रशासनिक पारदर्शिता
लाना था। ज़्यादातर आवेदकों
के अनुभव नकारात्मक थे,
लेकिन
करीब 90%
आवेदकों
द्वारा अधिनियम के तहत माँगी
जानकारी व्यत्तिगत मुद्दों
से सम्बन्धित थी,
बहुत
कम लोगों ने किसी समाजिक मुद्दे
या सार्वजनिक हित से जुड़े
किसी विषय पर सूचना का आवेदन
किया था।
सर्वेक्षण
के दौरान हम कुछ ऐसे आवेदकों
से मिले जिनको समय से माँगी
जानकारी दे दी गयी थी,
परन्तु
उनसे और बात-चीत
करने पर पता चला कि सुचना
प्राप्त करने के लिये या तो
उन्होनें किसी वकील की सहायता
ली थी,
या
वह स्वयं ही वकील थे,
या
वकालत की अच्छी समझ रखते थे।
इससे यह पता चलता है कि आम लोग
जो सूचना के लिये आवेदन देते
हैं लेकिन जो कानून को बहुत
अच्छे से नहीं समझते,
उनकी
नासमझी का फायदा उठाकर उन्हें
भ्रमित किया जाता है।
आवेदकों
की सबसे आम शिकायतें थीं कि
आवेदन को स्वीकार नहीं किया
जाता,
सूचना
मिलने में देरी होती है,
सुनवाई
की तिथि तो दी जाती है लेकिन
सुनवाई होती नहीं है,
और
विभाग प्रतिनिधि अनुपस्थित
रहते हैं।
कई
लोगों ने कहा कि उन्हे आवेदन
वापस लेने के लिये धमकाया जाता
है। एक आवेदक ने बताया कि उनको
कहा गया कि यदि उन्होने अपना
आवेदन वापस नहीं लिया तो उनकी
बेटी को नौकरी से निकाल दिया
जायेगा,
एक
दूसरे आवेदक के परिवार को
पुलिस और गुडों ने परेशान किया
क्योंकि उन्होने जिलाधिकारी
के खिलाफ़ सूचना का अधिकार
अधिनियम के तहत आवेदन डाला
था। एक अन्य आवेदक को धमकाने
के लिये उनके खिलाफ फर्ज़ी
एफ.आई.आर.
दर्ज
करवाया गया।
उत्तर
प्रदेश के सूचना आयोग में केवल
दो आयुक्त हैं,
जबकि
अधिनियम के अनुसार 11
आयुक्त
होने चाहिये। सूचना मिलने
में देरी का यह एक बड़ा कारण
है।
सर्वेक्षण
पूर्ण होने के बाद हम इस नतीजे
पर पहुँचे कि अधिनियम के बहतर
क्रियान्वयन के लिये उन 9
सूचना
आयुक्तों के पदों पर नियुक्तिकरण
होना चाहिये जो अभी खाली पड़े
हैं। साथ में यह सुनिश्चित
किया जाना चाहिये कि विभाग
प्रतिनिधि सुनवाई में बुलाये
जाने पर,
उसमें
उपस्थित हों। केवल अधिकारियों
पर जुर्माना लगाने मात्र से
हल नहीं निकलता,
कयोंकि
कई बार 25,000
रुपये
का दण्ड देकर भी अधिकारी माँगी
जानकारी नहीं देते। एक और
सुझाव यह है कि अधिकारियों
पर बोझ कम करने के लिये एक तरह
के आवेदनों को एक साथ फाइल
किया जाये। इसके लिये समाजिक
कार्यकर्ताओं और संस्थाओं
को साथ में काम करना होगा,
क्योंकि
यह सार्वजनिक हित में होगा
और सूचना का अधिकार अधिनियम
के प्राथमिक उद्देश्य को पूरा
करने में सहायक होगा।
जन
सूचना केन्द्र जैसी सुविधाएं
अधिनियम के सही क्रियान्वयन
में सहायक बनतीं हैं क्योंकि
वह लोगों को सूचना प्राप्त
करने में सहयोग देकर उनका
मनोबल बढ़ाती हैं और उनको
अपने अधिकारों के प्रति और
जागरुक बनाती हैं।
आशिमा
पाण्डे और विदीशा कनोरिया
जनवरी 2013
जनवरी 2013