राष्ट्रपति महिला हिंसा ऑर्डिनेन्स पर हस्ताक्षर न करें: महिला आंदोलन

अनेक महिला अधिकारों के लिए समर्पित सामाजिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने यौन हिंसा से संबन्धित मामलों में क्रिमिनल विधि संशोधन के लिए ‘सरकार द्वारा ऑर्डिनेन्स’ लाने के निर्णय का पुरजोर विरोध किया। लखनऊ में प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति धुरु ने कहा कि माननीय राष्ट्रपति से हमारी अपील है कि वें इस ‘ऑर्डिनेन्स’ पर हस्ताक्षर न करें। अरुंधति धुरु, जो भोजन अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त आयुक्त की प्रदेश सलाहकार हैं, ने कहा कि मीडिया द्वारा सार्वजनिक हुई जानकारी से यह पता चलता है कि यौन हिंसा कानून में संशोधनों से संबन्धित ऑर्डिनेन्स को कैबिनेट ने कल (1 फरवरी 2013) पारित किया है – अगले संसद सत्र आरंभ होने से 20 दिन पहले। सरकार द्वारा इस ऑर्डिनेन्स को बिना किसी पारदर्शिता के आकस्मिक रूप से पारित करने पर हम सभी अचंभित हैं। इस प्रकार की जल्दबाज़ी से ऑर्डिनेन्स को पारित करने की क्या आवश्यकता और उद्देश्य है जब कि अगला संसद सत्र 20 दिन बाद ही आरंभ होने को है और यह प्रस्तावित ऑर्डिनेन्स दिल्ली समूहिक बलात्कार के मामले मे लागू नहीं होगा।

अरुंधति धुरु ने कहा कि हमारी मांग है कि इस यौन हिंसा कानून बनाने की प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता और जवाबदेही बरती जाये, स्टैंडिंग कमेटी प्रक्रिया और अन्य संसदीय प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक तरीके से चलने दिया जाये, क्योंकि इसी प्रक्रिया के द्वारा ही लोकतान्त्रिक देश के नागरिक होने के नाते हमें अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार है। इस चोरी-छुपे तरीके से ऑर्डिनेन्स पारित करने से हमारा लोकतन्त्र कमजोर होता है। यह ऑर्डिनेन्स उन अनेकों भारतीय महिलाओं और पुरुषों के प्रति विश्वासघात है जो लखनऊ एवं अन्य शहरों में सड़कों पर यौन हिंसा के खिलाफ उतरे हुए थे।

महिला जन संगठन इस बात से भी क्षुब्ध हैं कि जस्टिस वर्मा कमेटी रिपोर्ट को ऑर्डिनेन्स प्रक्रिया में नज़रअंदाज़ किया गया। हम लोगों की आशंका है कि जस्टिस वर्मा कमेटी को दिये गए सुझावों को यौन हिंसा के खिलाफ कानून बनाने की प्रक्रिया में ताक पर रख दिया गया है – जब कि ये सुझाव महिला हिंसा के खिलाफ हमारी समझ में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम हैं। इन सुझावों में मुख्य हैं: वैवाहिक बलात्कार को भी कानून में शामिल करना, सैन्य बल में ऐसे मामलों में कमांड अफसर की ज़िम्मेदारी चिन्हित करना, सेनाकर्मियों द्वारा किए गए यौन हिंसा के मामलों में बिना सैंक्शन के उनपर मौजूदा यौन हिंसा कानून के अंतर्गत कारवाई करना, और किसी भी यौन क्रिया में संस्तुति की परिभाषा को बदलना।

दिल्ली कि महिला अधिकार कार्यकर्ता पुर्णिमा का कहना था कि अब तक की जानकारी में इस ऑर्डिनेन्स ने जस्टिस वर्मा कमेटी द्वारा नामंज़ूर किए हुए सुझावों को भी मान लिया है जैसे कि बलात्कारी को मृत्यु दंड। हम लोग इस बात से भी अत्यंत चिंतित हैं कि ऑर्डिनेन्स यौन हिंसा के मामले में हिंसा-करने वालों में महिला और पुरुष दोनों के बीच में कोई लिंग-भेद नहीं मानता है – अर्थात महिला और पुरुष दोनों ही यौन हिंसा के मामले में दोषी ठहराए जा सकते हैं। बलात्कार जैसा कि हम सभी जानते हैं, पुरुष द्वारा महिला पर किए गए यौन हिंसा का एक वीभत्स रूप है और इसका कोई प्रमाण नहीं है कि कभी महिला ने पुरुष पर ऐसा यौन  अत्याचार किया हो। इस संबंध में भी जस्टिस वर्मा कमेटी रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ किया गया है जो हमें सर्वथा अमान्य है।

अरुंधति धुरु ने कहा कि पिछले 20 सालों से महिला जन संगठनों की मांग रही है कि यौन हिंसा कानून में व्यापक संशोधन किये जाएँ और जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट को हम पूरा समर्थन देते हैं। हम लोगों ने जस्टिस वर्मा कमेटी के समक्ष लिखित और मौखिक सुझाव दिये हैं जो इस कमेटी रिपोर्ट में भी निहित हैं। हम एक बार फिर भारत सरकार से अपील करते हैं कि जस्टिस वर्मा कमेटी रिपोर्ट को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाये। हम जस्टिस वर्मा कमेटी को मुबारकबाद देते हैं कि उन्होने इतने कम समय में इतनी सक्षमता से जन-सुझावों को खुले रूप से स्वीकारा और पूरी जवाबदेही और पारदर्शिता के साथ रिपोर्ट तैयार की और उसे समय पर सरकार को सौंपा। हमने सरकार से यह अपील अवश्य की है कि इस रिपोर्ट को अविलंब लागू किया जाये परंतु हमारा यह भी मानना है कि इसे पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के द्वारा ही लागू किया जाये।

शोभा शुक्ला एवं बाबी रमाकांत, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस