कैंसर-दवा पर पेटेंट के खिलाफ फैसले का सोशलिस्ट पार्टी ने स्वागत किया

सोशलिस्ट पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर स्वागत किया है जिसके कारणवश जरूरतमन्द लोगों को कैंसर दवा मिल पाएँगी। सेवा निवृत्त जस्टिस रजिन्दर सच्चर ने भी इस मुद्दे पर सोशलिस्ट पार्टी की भूमिका को पूरा समर्थन दिया। वरिष्ठ अधिवक्ता और संयुक्त राष्ट्र के स्वास्थ्य आयुक्त आनंद ग्रोवर के अनुसार, नोवर्टिस दवा कंपनी नवरचना की आड़ में पुरानी दवा में जरा सा परिवर्तन करके नया पेटेंट मांग रही थी जिसको सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। नोवर्टिस की यह कैंसर दवा (जिसका मूल अंश है ‘इमाटिनिब’ और ब्रांड का नाम है ‘ग्लीवेक’) रुपया 1,20,000 की बिकती आई है परंतु सुप्रीम कोर्ट के पेटेंट मना करने के फैसले के पश्चात यही दवा अब रुपया 8,000 तक में बिकेगी, ऐसा विश्वास है।

टीवी में प्रसारित एक बहस में वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद ग्रोवर ने कहा कि नोवर्टिस का दावा कि उसने दवा के नवरचना शोध प्रक्रिया में बड़ा अधिक व्यय किया है सही नहीं है क्योंकि इसी दवा की शोध प्रक्रिया में अमरीकी सरकार ने भी व्यय किया है। आनंद ग्रोवर ने कहा कि यदि नोवर्टिस का दावा कि उसने अमरीकी डालर 800 मिल्यन का व्यय इस दवा के शोध में किया है मान भी लिया जाये तो उसने यह पूरी रकम इस दवा के, पहले साल से भी कम के, विक्रय में ही कमा ली थी और उसके बाद के 10-12 साल से यह कंपनी कैंसर दवा पर अत्यधिक मुनाफा कमाती आई है। अब इस दवा में जरा सा परिवर्तन कर के नया पेटेंट चाहती थी जिसको सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।

इसी मुद्दे से संबन्धित सोशलिस्ट पार्टी वर्तमान में भारत-यूरोपियन यूनियन के मध्य होने वाले ‘फ्री-ट्रेड एग्रीमंट’ (मुक्त-व्यापार समझौता) की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाती है। हमारी जानकारी में आया है कि यूरोपियन यूनियन और भारत इस समझौते को इसी माह अप्रैल 2013 में ही हस्ताक्षरित करने वाले हैं। यह अत्यंत आपत्तिजनक है क्योंकि इस मुद्दे पर संसदीय समिति की रिपोर्ट तक नहीं आई है, संसद में बहस नहीं हुई है और सबसे महत्वपूर्ण समाज का जो वर्ग इस समझौते से सबसे अधिक प्रभावित होगा उसके साथ भी इस पर चर्चा नहीं हुई है।

जिस प्रक्रिया से भारत सरकार ऐसे व्यापार-समझौते कर रही है वो गैर-लोकतान्त्रिक है। व्यापार समझौते प्रक्रिया को पारदर्शी क्यों नहीं बनाया जा रहा है? इस पर संसद में बहस क्यों नहीं हो रही है? जिस व्यापार-समझौते से आम लोगों को बीज, दवाएं आदि मिलने में मुश्किलें आ सकती हैं उनपर तो खुली बहस होनी आवश्यक है और सर्व सम्मति के साथ ही ऐसे समझौते होने चाहिए। कम-से-कम संसद में बिना बहस हुए और संसद द्वारा पारित हुए कोई भी ऐसे समझौते नहीं होने चाहिए, यह भारतीय संविधान के मूल्यों के भी विरोध में है।

अमूल, जो भारत की सबसे बड़ी दुग्ध सहकारी समिति हैं, ने कहा है कि इस यूरोपियन यूनियन और भारत मुक्त-व्यापार समझौते से 8 करोड़ किसानों की आजीविका पर कु-प्रभाव पड़ेगा।

सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) की मांग है कि भारत सरकार यूरोपियन यूनियन के साथ हो रहे समझौते की प्रक्रिया को तुरंत स्थगित करे और:
•    हर प्रदेश में जन सुनवाई और संवाद आयोजित करे जिसकी रिपोर्ट संसदीय समिति को जानी चाहिए
•    संसदीय समिति की रिपोर्ट का इंतज़ार करना चाहिए
•    संसदीय समिति की रिपोर्ट पर संसद के दोनों सदनों में खुली बहस होनी चाहिए
•    यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे समझौतों से किसी भी प्रकार से कृषि कुप्रभावित न हो
•    भारत में सभी स्वास्थ्य प्राथमिकताओं के लिए आवश्यक दवाओं के ‘जेनेरिक’ निर्माण पर कोई असर न पड़े

से0नि0 जस्टिस रजिन्दर सच्चर, मगसेसे पुरुसकर से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता और सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ संदीप पाण्डेय, सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव डॉ प्रेम सिंह, सोशलिस्ट युवजन सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ अभिजीत वैद्या और बाबी रमाकांत ने इन उपरोक्त मुद्दों पर सोशलिस्ट पार्टी की भूमिका को समर्थन दिया है।

सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस  
अप्रैल २०१३