इंटरनेशनल यूनियन अगेन्स्ट टूबेर्कुलोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) और बाल अस्थमा और एलर्जी द्वारा प्रकाशित ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2011 के अनुसार अस्थमा विश्व के 23.5 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है और पिछले 30 वर्षों से विशेषकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में अस्थमा का बोझ लगातार बढ़ रहा है। लखनऊ के वरिष्ठ श्वास-रोग विशेषज्ञ डॉ बीपी सिंह कहते है कि “हमारे क्लीनिक पर आने वाले कुल मरीज़ो मे से 27% अस्थमा के और 26% सीओपीडी के होते हैं जिसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि यहाँ पर प्रतिदिन 27-28 अस्थमा से पीड़ित रोगी आते हैं”।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2004 में पूरे भारतवर्ष में 57000 लोग अस्थमा के कारण मृत हुए. अस्थमा श्वास सम्बन्धी बीमारी है, जो कि आम तौर पर महिलाओं, पुरुषों और बच्चों सभी को समान रूप से प्रभावित करता है. डॉ बीपी सिंह कहते हैं कि “अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन महिलाओं और बच्चों में अधिक चुनौतीशील है, क्योंकि वें पुरुषों के तुलना में ज़्यादा समय घर में रहते हैं और इसलिए अस्थमा को प्रेरित करने वाले कारकों जैसे घर के भीतर का वायु प्रदूषण (लकड़ी, कोयला, कंडा आदि पर खाना पकाना), धूम्रपान, काक्रोच, कुछ पालतू पशुओं का फर, राख, दीमक आदि के संपर्क में अधिक आते हैं। अस्थमा से पीड़ित गर्भवती महिलाओं में यदि उचित प्रबंधन से बीमारी को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह कई प्रकार की समस्याओं को बढ़ाता है जैसे, गर्भपात, भ्रूण का धीमा विकास, समय से पूर्व बच्चे का जन्म, कम वजन आदि”।
अस्थमा अनुवांशिक और गैर-अनुवांशिक दोनों ही कारणों से हो सकता है। तनाव, कुछ विशेष खाद्य पदार्थ, पेय या द्वाएँ भी अस्थमा के प्रकोप को बढ़ाने में कारगर हो सकते हैं। कुछ अन्य पर्यावरण संबन्धित कारक भी अस्थमा को बढ़ाते हैं जैसे श्वास द्वारा लिए गए एलर्जी पैदा करने वाले पदार्थ-जैसे धूल के कण, पशु फर, पराग कण और फफूँद अथवा और साँस में तकलीफ़ पैदा करने वाली वस्तु—जैसे सिगरेट का धुआँ, ईंधन का धुआँ, वाहन का धुआँ, सौंदर्य प्रसाधन, एयरोसोल स्प्रे आदि।
अस्थमा की बीमारी हर उम्र के लोगों को प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकतर इसके विकास की शुरुवात बचपन के दौरान ही हो जाती है। 'अस्थमा ड्रग फैसिलिटी' और 'द यूनियन' से संबन्धित डॉ केरन बिसेल का कहना है कि "लगभग तीन-चौथाई से अधिक सात साल से कम उम्र के बच्चों में विकसित होने वाले अस्थमा के लक्षण 16 साल की उम्र तक खत्म हो जाते हैं"। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि अस्थमा को पूरी तरीके से ठीक नहीं किया सकता है लेकिन उपलब्द दवाओं और उचित प्रबंधन की सहायता से इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
लेकिन अस्थमा के प्रबंधन में, परीक्षण से लेकर उपचार तक कई बाधायें हैं-
1) कई देशों में प्रभावी दवाएं या तो बहुत महँगी हैं अथवा उपलब्ध ही नहीं हैं,
2) रोगी एवं उनके परिवार बीमारी और गरीबी के जाल में फंसकर रह जाते हैं,
3) स्वास्थ्य प्रणालियाँ गैर-संक्रामक रोगों के दीर्घकालिक प्रबंधन हेतु उचित रूप से सक्षम नहीं हैं।
किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के पल्मोनरी विभाग में प्रोफेसर डॉ एसके वर्मा का कहना है कि “अस्थमा का फैलाव समान्य तौर पर आदमी और औरतों में बराबर है पर गाँव में, जो औरतें लकड़ी, कंडा और कोयला जला कर खाना पकाती हैं और लम्बे समय से ईधन के धुओं में रहती हैं, उनमे सीओपीडी और अस्थमा होने की ज़्यादा संभावना होती है। यदि मुमकिन हो तो लकड़ी, कंडा आदि का इस्तेमाल खाना पकाने में न करके गैस चूल्हे का प्रयोग करना चाहिए और यदि यह संभव न हो, मंहगा पड़ता हो तो जहां खाना पकायें वह खुला हो, या फिर खुले स्थान पर खाना बनायें, या चिमनी का इस्तेमाल करें, जिससे कि धुआँ ऊपर की ओर निकल जाये”।
डॉ बीपी सिंह कहते हैं कि “बहुत से लोग यह सोचते हैं कि जो उपचार उपलब्ध है वह बहुत महंगा है पर यह जानकारी लोगों तक जानी चाहिए कि अस्थमा से होने वाले विकलांगता कि तुलना में उपचार बहुत ही सस्ता है। भारत जैसे देश में 'इन्हेलर' सबसे अच्छा उपचार है क्योंकि यह सीधा नलिकाओं के माध्यम से फेफड़ों में पहुंचता है जहां इसकी सख्त ज़रूरत होती है और कुछ ही छण में श्वास की तकलीफ और अस्थमा से आराम मिलता है। 'इन्हेलर' किसी भी प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव से मुक्त होता है क्योंकि यह शारीरिक रक्त संचार तंत्र में नहीं घुलता है”।
'द यूनियन' के निदेशक डॉ निल्स ई बिल्लो कहते हैं कि “अस्थमा को रोकने के लिए किये गये प्रभावी कार्यों पर खर्च की तुलना में, अच्छी तरीके से प्रबंधन न करने के कारण होने वाली पीड़ा और संसाधनों के अपव्यय पर लागत कहीं ज्यादा है”। अस्थमा पर पूरी तरीके से नियंत्रण पाने के लिए प्रबंधन तथा अस्थमा को प्रभावित करने वाले कारकों से बचाव बहुत ही आवश्यक है। परन्तु यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि अस्थमा से पीड़ित लोगों में इस जानकारी का अभाव है। अतः सभी सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थानों को एक साथ मिलजुल कर काम करना होगा तभी अस्थमा जैसे जटिल बीमारी के फैलाव और इससे होने वाली मृत्यु को कम कर पाना सम्भव होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी अस्थमा समेत अन्य दीर्घकालिक श्वास रोगों को ऐसे गैर-संक्रामक रोगों के रूप में चिन्हित किया है जो एक जन स्वास्थ्य के समक्ष बड़ी चुनौती हैं। सरकार को भी इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए।
राहुल कुमार द्विवेदी - सीएनएस
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2004 में पूरे भारतवर्ष में 57000 लोग अस्थमा के कारण मृत हुए. अस्थमा श्वास सम्बन्धी बीमारी है, जो कि आम तौर पर महिलाओं, पुरुषों और बच्चों सभी को समान रूप से प्रभावित करता है. डॉ बीपी सिंह कहते हैं कि “अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन महिलाओं और बच्चों में अधिक चुनौतीशील है, क्योंकि वें पुरुषों के तुलना में ज़्यादा समय घर में रहते हैं और इसलिए अस्थमा को प्रेरित करने वाले कारकों जैसे घर के भीतर का वायु प्रदूषण (लकड़ी, कोयला, कंडा आदि पर खाना पकाना), धूम्रपान, काक्रोच, कुछ पालतू पशुओं का फर, राख, दीमक आदि के संपर्क में अधिक आते हैं। अस्थमा से पीड़ित गर्भवती महिलाओं में यदि उचित प्रबंधन से बीमारी को नियंत्रित नहीं किया गया तो यह कई प्रकार की समस्याओं को बढ़ाता है जैसे, गर्भपात, भ्रूण का धीमा विकास, समय से पूर्व बच्चे का जन्म, कम वजन आदि”।
अस्थमा अनुवांशिक और गैर-अनुवांशिक दोनों ही कारणों से हो सकता है। तनाव, कुछ विशेष खाद्य पदार्थ, पेय या द्वाएँ भी अस्थमा के प्रकोप को बढ़ाने में कारगर हो सकते हैं। कुछ अन्य पर्यावरण संबन्धित कारक भी अस्थमा को बढ़ाते हैं जैसे श्वास द्वारा लिए गए एलर्जी पैदा करने वाले पदार्थ-जैसे धूल के कण, पशु फर, पराग कण और फफूँद अथवा और साँस में तकलीफ़ पैदा करने वाली वस्तु—जैसे सिगरेट का धुआँ, ईंधन का धुआँ, वाहन का धुआँ, सौंदर्य प्रसाधन, एयरोसोल स्प्रे आदि।
अस्थमा की बीमारी हर उम्र के लोगों को प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकतर इसके विकास की शुरुवात बचपन के दौरान ही हो जाती है। 'अस्थमा ड्रग फैसिलिटी' और 'द यूनियन' से संबन्धित डॉ केरन बिसेल का कहना है कि "लगभग तीन-चौथाई से अधिक सात साल से कम उम्र के बच्चों में विकसित होने वाले अस्थमा के लक्षण 16 साल की उम्र तक खत्म हो जाते हैं"। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि अस्थमा को पूरी तरीके से ठीक नहीं किया सकता है लेकिन उपलब्द दवाओं और उचित प्रबंधन की सहायता से इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
लेकिन अस्थमा के प्रबंधन में, परीक्षण से लेकर उपचार तक कई बाधायें हैं-
1) कई देशों में प्रभावी दवाएं या तो बहुत महँगी हैं अथवा उपलब्ध ही नहीं हैं,
2) रोगी एवं उनके परिवार बीमारी और गरीबी के जाल में फंसकर रह जाते हैं,
3) स्वास्थ्य प्रणालियाँ गैर-संक्रामक रोगों के दीर्घकालिक प्रबंधन हेतु उचित रूप से सक्षम नहीं हैं।
किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के पल्मोनरी विभाग में प्रोफेसर डॉ एसके वर्मा का कहना है कि “अस्थमा का फैलाव समान्य तौर पर आदमी और औरतों में बराबर है पर गाँव में, जो औरतें लकड़ी, कंडा और कोयला जला कर खाना पकाती हैं और लम्बे समय से ईधन के धुओं में रहती हैं, उनमे सीओपीडी और अस्थमा होने की ज़्यादा संभावना होती है। यदि मुमकिन हो तो लकड़ी, कंडा आदि का इस्तेमाल खाना पकाने में न करके गैस चूल्हे का प्रयोग करना चाहिए और यदि यह संभव न हो, मंहगा पड़ता हो तो जहां खाना पकायें वह खुला हो, या फिर खुले स्थान पर खाना बनायें, या चिमनी का इस्तेमाल करें, जिससे कि धुआँ ऊपर की ओर निकल जाये”।
डॉ बीपी सिंह कहते हैं कि “बहुत से लोग यह सोचते हैं कि जो उपचार उपलब्ध है वह बहुत महंगा है पर यह जानकारी लोगों तक जानी चाहिए कि अस्थमा से होने वाले विकलांगता कि तुलना में उपचार बहुत ही सस्ता है। भारत जैसे देश में 'इन्हेलर' सबसे अच्छा उपचार है क्योंकि यह सीधा नलिकाओं के माध्यम से फेफड़ों में पहुंचता है जहां इसकी सख्त ज़रूरत होती है और कुछ ही छण में श्वास की तकलीफ और अस्थमा से आराम मिलता है। 'इन्हेलर' किसी भी प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव से मुक्त होता है क्योंकि यह शारीरिक रक्त संचार तंत्र में नहीं घुलता है”।
'द यूनियन' के निदेशक डॉ निल्स ई बिल्लो कहते हैं कि “अस्थमा को रोकने के लिए किये गये प्रभावी कार्यों पर खर्च की तुलना में, अच्छी तरीके से प्रबंधन न करने के कारण होने वाली पीड़ा और संसाधनों के अपव्यय पर लागत कहीं ज्यादा है”। अस्थमा पर पूरी तरीके से नियंत्रण पाने के लिए प्रबंधन तथा अस्थमा को प्रभावित करने वाले कारकों से बचाव बहुत ही आवश्यक है। परन्तु यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि अस्थमा से पीड़ित लोगों में इस जानकारी का अभाव है। अतः सभी सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थानों को एक साथ मिलजुल कर काम करना होगा तभी अस्थमा जैसे जटिल बीमारी के फैलाव और इससे होने वाली मृत्यु को कम कर पाना सम्भव होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी अस्थमा समेत अन्य दीर्घकालिक श्वास रोगों को ऐसे गैर-संक्रामक रोगों के रूप में चिन्हित किया है जो एक जन स्वास्थ्य के समक्ष बड़ी चुनौती हैं। सरकार को भी इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए।
राहुल कुमार द्विवेदी - सीएनएस