"हमारा मानना है कि 18 मई 2013 को उ.प्र. में कचहरी बम कांड के आरोपी खालिद मुजाहिद को फैजाबाद से लखनऊ लाते समय रास्ते में मौत के लिए हमारी पूरी व्यवस्था दोषी है" - यह कहना है मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता डॉ संदीप पाण्डेय का। "सबसे पहले तो हमारी सुरक्षा एजेंसियां। हम प्रदेश सरकार को बधाई देते हैं कि उसने उच्च पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है जो खालिद मजुाहिद की फर्जी गिरफ्तारी के लिए दोषी हैं" कहते हैं डॉ पाण्डेय।
श्री दारापुरी ने कहा कि यदि प्रदेश सरकार आर.डी. निमेष जांच आयोग की रपट के आधार पर, जिसमें गिरफ्तारी को संदेहजनक बताया गया है, पहले ही कार्यवाही शुरू कर देती तो खालिद बच सकता था। आज भी निमेष जांच आयोग की रपट सार्वजनिक नहीं की गई है। "हमने पहले भी इस रपट को सार्वजनिक किया है और आज फिर इस रपट के कुछ पृष्ठ सार्वजनिक कर रहे हैं। खालिद मुजाहिद की मौत के लिए सीधे सरकार जिम्मेदार है जिसने वादा करने के बवदजूद मुस्लिम नवजवानों की रिहाई हेतु कोई ठोस कदम नहीं उठाया है" कहना था श्री दारापुरी का।
एडवोकेट रिशा सय्यद जो तारिक कासमी और अन्य लोगों से कल ही लखनऊ जेल में मिल कर आई थीं, उन्होने बताया कि तारिक कासमी को 12/12/2007 और खालिद मुजाहिद को 16/12/2007, क्रमशः जिला आजमगढ़ एवं जौनपुर से गैर-कानूनी ढंग से उठाए जाने व 22/12/2007 को उनकी गिरफ्तारी दिखाए जाने तक दोनों की अमानवीय ढंग से प्रताड़ना हुई। उस समय की चोटें खालिद मुजाहिद के लिए प्राणघातक सिद्ध हुईं। तारिक कासमी के अनुसार जिन एस.टी.एफ. अधिकारियों/कर्मियों की प्रताड़ना में सबसे निर्दयी भूमिका रही उनमें वी.के. सिंह, नीरज पाण्डेय, धनंजय मिश्र, अविनाश मिश्र, पंकज पाण्डेय, अभय शुक्ला, एस. आनंद, संदीप मिश्रा, सत्यप्रकाश, ओ.पी. पाण्डेय व अमिताभ यश, आदि, शामिल थे। तारिक कासमी का कहना है कि प्रताड़ित करने वाले लोगों को आज भी भली भांति पहचान सकता है। 2007 में एस.टी.एफ. में तैनात अधिकारियों/कर्मियों की शिनाख्त करा उनके खिलाफ भी हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए। मोहम्मद अख्तर का कहना है कि तत्कालीन विशेष डी.जी.पी. बृजलाल ने उससे पूछा कि यह जानते हुए भी कि वह निर्दोष है वे उसकी जगह किसी दूसरे कश्मीरी लड़के को कहां से लाएंगे?
जेल व्यवस्था भी दोषी है जहां खालिद मुजाहिद को 2009 तक पूरा समय बंद कोठरी में रखा जाता था, फिर दिन में आधा घंटा और हाल में दिन में दो बार दो-दो घंटे कोठरी से बाहर आने का मौका मिलता था। ऐसी परिस्थिमि में कोई भी कैदी मानसिक रूप में टूट जाता है।
जेल की संवेदनहीन चिकित्सा व्यवस्था भी जिम्मेदार है। खालिद मुजाहिद को तीन-चार दिनों से कंधे में दर्द की शिकायत थी। किन्तु शिकायत के बावजूद चिकित्सक ने उसकी जांच नहीं की। 18 मई को फैजाबाद जाते वक्त खालिद ने चिकित्सक से अपनी तकलीफ बताई फिर भी उसे कोई दवा नहीं दी गई।
बाराबंकी न्यायालय में सरकार की ओर से खालिद व तारिक की रिहाई हेतु कमजोर कार्यवाही जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। उसकी मौत के पहले तारिक खालिद को बाराबंकी न्यायालय का फैसला ही पढ़ कर सुना रहा था। फैसला सुन कर खालिद मायूस हुआ और उसे लगा कि समाजवादी पार्टी की सरकार भी निर्दोष नवजवानों को छोड़ने के वायदे के प्रति ईमानदार नहीं है।
अंत में मीडिया, अधिवक्ता परिषद व ऐसे सारे लोग भी खालिद की मौत के लिए जिम्मेदार हैं जो आतंकवादी घटनाओं में गिरफ्तारी के साथ ही आरोपी को दोषी भी मान लेते हैं ओर फिर उनकी रिहाई के प्रयासों का विरोध करते हैं। क्या यह उचित है कि बिना सुनवाई और फैसले के हम किसी निर्दोष को आंतकवादी घोषित कर उसकी सारी जिंदगी बरबाद कर दें। इसके लिए पूरा समाज दोषी है।
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
मई 2013
डॉ संदीप पाण्डेय, लखनऊ स्थित लोहिया मजदूर भवन में एक प्रेस करता को संबोधित कर रहे थे। एडवोकेट मोहम्मद शोएब (सोशलिस्ट पार्टी इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और रिहाई मंच से संबन्धित), एडवोकेट रणधीर सिंह सुमन, एडवोकेट रिशा सय्यद, इंडियन मुस्लिम लीग के मोहम्मद सुलेमान, अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन की सुश्री ताहिरा हसन, सेवा-निवृत्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड की सुश्री नसीम इकतेदार अली, और पीयूसीएल की सुश्री वंदना मिश्रा ने भी प्रेस वार्ता को संबोधित किया।
श्री दारापुरी ने कहा कि यदि प्रदेश सरकार आर.डी. निमेष जांच आयोग की रपट के आधार पर, जिसमें गिरफ्तारी को संदेहजनक बताया गया है, पहले ही कार्यवाही शुरू कर देती तो खालिद बच सकता था। आज भी निमेष जांच आयोग की रपट सार्वजनिक नहीं की गई है। "हमने पहले भी इस रपट को सार्वजनिक किया है और आज फिर इस रपट के कुछ पृष्ठ सार्वजनिक कर रहे हैं। खालिद मुजाहिद की मौत के लिए सीधे सरकार जिम्मेदार है जिसने वादा करने के बवदजूद मुस्लिम नवजवानों की रिहाई हेतु कोई ठोस कदम नहीं उठाया है" कहना था श्री दारापुरी का।
एडवोकेट रिशा सय्यद जो तारिक कासमी और अन्य लोगों से कल ही लखनऊ जेल में मिल कर आई थीं, उन्होने बताया कि तारिक कासमी को 12/12/2007 और खालिद मुजाहिद को 16/12/2007, क्रमशः जिला आजमगढ़ एवं जौनपुर से गैर-कानूनी ढंग से उठाए जाने व 22/12/2007 को उनकी गिरफ्तारी दिखाए जाने तक दोनों की अमानवीय ढंग से प्रताड़ना हुई। उस समय की चोटें खालिद मुजाहिद के लिए प्राणघातक सिद्ध हुईं। तारिक कासमी के अनुसार जिन एस.टी.एफ. अधिकारियों/कर्मियों की प्रताड़ना में सबसे निर्दयी भूमिका रही उनमें वी.के. सिंह, नीरज पाण्डेय, धनंजय मिश्र, अविनाश मिश्र, पंकज पाण्डेय, अभय शुक्ला, एस. आनंद, संदीप मिश्रा, सत्यप्रकाश, ओ.पी. पाण्डेय व अमिताभ यश, आदि, शामिल थे। तारिक कासमी का कहना है कि प्रताड़ित करने वाले लोगों को आज भी भली भांति पहचान सकता है। 2007 में एस.टी.एफ. में तैनात अधिकारियों/कर्मियों की शिनाख्त करा उनके खिलाफ भी हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए। मोहम्मद अख्तर का कहना है कि तत्कालीन विशेष डी.जी.पी. बृजलाल ने उससे पूछा कि यह जानते हुए भी कि वह निर्दोष है वे उसकी जगह किसी दूसरे कश्मीरी लड़के को कहां से लाएंगे?
जेल व्यवस्था भी दोषी है जहां खालिद मुजाहिद को 2009 तक पूरा समय बंद कोठरी में रखा जाता था, फिर दिन में आधा घंटा और हाल में दिन में दो बार दो-दो घंटे कोठरी से बाहर आने का मौका मिलता था। ऐसी परिस्थिमि में कोई भी कैदी मानसिक रूप में टूट जाता है।
जेल की संवेदनहीन चिकित्सा व्यवस्था भी जिम्मेदार है। खालिद मुजाहिद को तीन-चार दिनों से कंधे में दर्द की शिकायत थी। किन्तु शिकायत के बावजूद चिकित्सक ने उसकी जांच नहीं की। 18 मई को फैजाबाद जाते वक्त खालिद ने चिकित्सक से अपनी तकलीफ बताई फिर भी उसे कोई दवा नहीं दी गई।
बाराबंकी न्यायालय में सरकार की ओर से खालिद व तारिक की रिहाई हेतु कमजोर कार्यवाही जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। उसकी मौत के पहले तारिक खालिद को बाराबंकी न्यायालय का फैसला ही पढ़ कर सुना रहा था। फैसला सुन कर खालिद मायूस हुआ और उसे लगा कि समाजवादी पार्टी की सरकार भी निर्दोष नवजवानों को छोड़ने के वायदे के प्रति ईमानदार नहीं है।
अंत में मीडिया, अधिवक्ता परिषद व ऐसे सारे लोग भी खालिद की मौत के लिए जिम्मेदार हैं जो आतंकवादी घटनाओं में गिरफ्तारी के साथ ही आरोपी को दोषी भी मान लेते हैं ओर फिर उनकी रिहाई के प्रयासों का विरोध करते हैं। क्या यह उचित है कि बिना सुनवाई और फैसले के हम किसी निर्दोष को आंतकवादी घोषित कर उसकी सारी जिंदगी बरबाद कर दें। इसके लिए पूरा समाज दोषी है।
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
मई 2013