सबके सतत विकास का सपना आखिर कब पूरा होगा?

संयुक्त राष्ट्र में, 190 से अधिक देशों की सरकारों ने 2030 तक सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals/ SDGs) पूरे करने का वादा तो किया है पर विभिन्न देशों की आन्तरिक वास्तविकता देखें तो अक्सर सरकारें इन सतत विकास लक्ष्य के विपरीत निर्णय लेती हैं. उदहारण के तौर पर, कुछ देशों में आंतरिक संकट मंडरा रहा है तो कुछ देशों में शक्तिशाली देशों के हमले से प्रशासन-व्यवस्था तार-तार है. भारत समेत अनेक देशों की आर्थिक नीति ऐसी है कि गरीब अधिक गरीबी में धस रहा है और अमीर अधिक अमीर हो रहा है.

एशिया-पैसिफिक के देशों के सरकारी प्रतिनिधि बैंकाक, थाईलैंड में मार्च 2017 के अंतिम सप्ताह में मिले और इन्हीं सतत विकास लक्ष्य के प्रति हुई प्रगति पर चर्चा की. जुलाई और सितम्बर 2017 में संयुक्त राष्ट्र में सरकारों को सतत विकास लक्ष्य पर हुई प्रगति रपट करनी होगी. इसीलिए यह एशिया-पैसिफिक क्षेत्रीय स्तर पर अंतर-सरकारी बैठक, महत्वपूर्ण रही (Asia Pacific Forum on Sustainable Development/ APFSD).

कुपोषण और भूख की जकड़ में हैं करोड़ों लोग

सरकारों ने 2030 तक सतत विकास लक्ष्य नंबर २ के तहत, यह वादा किया है कि:
  • दुनिया में कोई भी भूखा नहीं रहेगा 
  • हर प्रकार का कुपोषण समाप्त होगा
  • लघु-स्तर के किसानों का कृषि उत्पादन दो-गुना होगा
  • लघु स्तर के किसानों की आय दो-गुना होगी
  • सतत अनाज-उत्पादन व्यवस्था बनेगी
  • 2020 तक कृषि प्रणाली लचकदार बनेगी
  • बीज, पौध और खेती में उपयोग होने वाले और घरों में पले जानवरों की जेनेटिक विभिन्नता बरक़रार रखी जाएगी 
खाद्य सुरक्षा एक मौलिक मानवाधिकार है

अजय झा जो सेण्टर फॉर कम्युनिटी इकनोमिक एंड डेवलपमेंट कंसलटेंट सोसाइटी (Centre for Community Economics and Development Consultants Society/ CECOEDECON) से जुड़े हैं, उन्होंने बताया कि सतत विकास लक्ष्य-2 इस बात पर आधारित है ही नहीं कि खाद्य सुरक्षा एक मौलिक मानवाधिकार है. सतत विकास लक्ष्य-2 भूख से हुई मृत्यु को बर्दाश्त न करने जैसी कोई बात नहीं करता है. सतत विकास लक्ष्य-2 किसानों की जमीनें हथियाने का मुद्दा नहीं उठाता है जबकि सतत कृषि के लिए एक बड़ी समस्या ही किसानों की जमीनें छिनना है. इसीलिए आज जमीनी हकीकत यह है कि 3/4 कृषि भूमि, मांस आदि से जुड़े कार्यों में व्यय होती है.

'छुपी भूख' के कारण, भारतीय जीडीपी को $12 बिलियन का सालाना नुक्सान

ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के अनुसार, हालाँकि भारत की गिनती दुनिया में सबसे अधिक अनाज, सब्जियां और फल की कृषि करने वाले देशों में होती है पर यदि भूख से जूझ रहे लोगों और कुपोषण को देखें तो 118 देशों में से भारत 97 गिनती पर है. भारत में 184 मिलियन (18.4 करोड़) लोग कुपोषित हैं. करोड़ों लोगों में विटामिन और मिनरल आदि की कमी के कारण भारत को बड़ा नुक्सान उठाना पड़ता है जो देश की जीडीपी को अमरीकी डालर 12 बिलियन (12 अरब) का सालाना नुक्सान पहुंचाता है (news).

अजय झा ने बताया कि गंभीर कुपोषण के कारण "स्टंटिंग" हो जाती है जिसके कारण सामान्य विकास कुंठित होता है. दुनिया में सबसे अधिक "स्टंटिंग" से ग्रसित बच्चे भारत में हैं (अधिक पढ़ें).

भारत में जब आवश्यकता से अधिक अनाज उत्पादन होता है तो यह कैसे सहा जाए कि लोग भुखमरी और कुपोषण से जूझ रहे हैं? 20% अनाज और 40% भोजन व्यर्थ हो जाता है क्योंकि रख-रखाव और व्यापर क्रम से जुड़ी व्यवस्था कमज़ोर है. यदि यही हाल रहा तो कैसे सबका सतत विकास होगा?

दस सालों के बाद भी स्पेशल इकनोमिक जोन (SEZ) के तहत ली गयी काफी जमीन अभी भी उपयोग नहीं की जा रही है. रोजाना २००० से अधिक किसान खेती-बारी छोड़ रहे हैं और 70% किसान कभी न कभी खेती-बारी छोड़ने के बारे में विचार कर चुके हैं.

बड़ी कंपनियों से नहीं लघु किसान से भरते हैं दुनिया के पेट

फिलीपींस के तेब्तेब्बा फाउंडेशन की जोआन कार्लिंग ने बताया कि उद्योगीकरण की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि किसानों की जमीनें भी निरंतर हथियाई जा रही हैं और गरीब के जीवन-यापन के विकल्प अत्यंत सीमित होते जा रहे हैं और तमाम मानवाधिकार हनन के खतरे मंडरा रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (ऍफ़एओ) ने प्रमाणित किया है कि दुनिया को भोजन प्रदान करने के लिए लघु स्तर के किसानों को पूरा श्रेय जाना चाहिए (और न कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को).

सैन्य बजट आसमान छुए और सतत विकास बजट में हो कटौती?

एशिया पैसिफिक रिसर्च नेटवर्क (एपीआरएन/ Asia Pacific Research Network/ APRN) की महासचिव मारजोरी ने बताया कि अनेक देशों में गरीब और ग्रामीण लोगों की दास्तानें सुनने पर, विशेषकर कि जनजातियों की, यह देखने में आया है कि जब सरकारों को जमीन हथियानी होती है तो वे पैरामिलिटरी और मिलिट्री बलों को ऐसे क्षेत्र में भेजती हैं और अंतत: जमीनें कब्जिया ली जाती हैं. सरकारों ने सतत विकास लक्ष्य में शांतिपूर्ण समाज बनाने का वादा तो किया है पर सैन्य बजट बढ़ रहे हैं, असंतोष और हिंसा बढ़ रही है और अशांति पनप रही है. सैन्य बजट को सतत विकास लक्ष्य हासिल करने में निवेश करना चाहिए.

जन-हितैषी नीतियों पर व्यापार समझौते भारी पड़ते हैं: क्यों?

थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क (Third World Network/ TWN) से जुड़ी रंजा सेनगुप्ता ने कहा कि व्यापार समझौते तो कानूनी रूप से बाध्य होते हैं पर जन-हितैषी संधियाँ और नीतियाँ मग्निर्देशिका जैसी भूमिका रखती हैं जो खेदपूर्ण हकीकत है. अक्सर कंपनियां व्यापार समझौतों की आड़ में सरकारों को अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में घसीट लेती हैं हालाँकि कई बार कोर्ट में कंपनियों को मुंह की खानी पड़ी है और सरकारों का पलड़ा भारी रहा है. रंजा सेनगुप्ता ने कहा कि यह अति-आवश्यक है कि व्यापार समझौतों की प्रक्रिया में हर स्तर पर पारदर्शिता बरती जाए और लोगों की प्रतिभागिता भी सुनिश्चित की जाए.

सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस) की निदेशिका शोभा शुक्ला ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र की नयी प्रस्तावित और संभव संधि कंपनियों को जवाबदेह और जिम्मेदार ठहरा सकती है: UN Business and Human Rights Treaty.

उम्मीद है कि सरकारें सभी सतत विकास लक्ष्यों को गंभीरता से लेते हुए अपने समर्पण के प्रति खरी उतरेंगी.

बाबी रमाकांत, सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस)
28 मार्च 2017