यदि सतत विकास लक्ष्य हासिल करने हैं तो कार्यसधाकता जरुरी

वैश्विक स्तर पर भारत समेत 190 देशों ने 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने का वादा तो किया है पर यदि राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों, कार्यक्रमों और आँकड़ों को देखें तो संशय होना निश्चित है कि यह वादे कैसे होंगे पूरे? एक ओर सैन्य बजट में बढ़ोतरी तो दूसरी ओर सतत-विकास बजट में कटौती.

यदि सतत विकास का सपना पूरा करना है तो नि:संदेह यह सु:निश्चित करना होगा कि सतत विकास कार्यक्रम पुरजोर तरीके से चलें, विकास बजट के हर पैसे का कार्यसधाकता के जरिये अधिकतम उपयोग हो - सकारात्मक प्रभाव हो, और कोई भी समुदाय सतत विकास कार्यक्रमों की पहुँच से बाहर न रहे. विकास में कार्यसधाकता के केंद्रीय विचार पर आधारित, 'ब्रेकिंग ग्राउंड - टेकिंग रूट्स: इस्तांबुल प्रिंसिपल्स @7' अधिवेशन का आयोजन थाईलैंड में हुआ.

सीएसओ पार्टनरशिप फॉर डेवलपमेंट इफेक्टिवनेस (सीपीडीई)/ CSO Partnership for Development Effectiveness (CPDE) द्वारा आयोजित इस बैठक में 100 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया जिसमें सरकारी प्रतिनिधि, जन-आंदोलनों से जुड़े लोग, गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि, दाता एजेंसी के लोग आदि शामिल थे. इस बैठक से पारित 'यूनिटी स्टेटमेंट' आने वाले समय में एक कतैलिस्ट की भूमिका ले सकता है जिसे सरकारी प्रतिनिधियों, जन आंदोलनों से जुड़े लोगों एवं अन्य सभी प्रतिभागियों का समर्थन प्राप्त है.
 
कुछ देशों में आंतरिक कलह और हिंसा के चलते प्रशासन-व्यवस्था चरमरा रही है तो कुछ देशों में 'विकास' की आड़ में ऐसी नीतियाँ व कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिससे अमीर, अधिक अमीर, और ग़रीब, अधिक ग़रीब, होते जा रहे हैं। देशों ने जलवायु परिवर्तन के प्रति गम्भीर होते हुए सराहनीय वादे तो किए हैं पर जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है उसमें बदलाव या गिरावट होने के बजाय बढ़ोतरी ही हो रही है. स्वास्थ्य एवं शैक्षिक सेवाएँ सिर्फ़ पैसे वालों तक ही पहुँच रही हैं। जो उद्योग भ्रामक विज्ञापन और प्रचार के चलते स्वास्थ्य के लिए हानिकारक उत्पाद दशकों से बेचते आए हैं जैसे कि तम्बाकू या शराब उद्योग, उनको जवाबदेह ठहराना जटिल होता जा रहा है. जो उद्योग मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं जैसे कि हज़ारों लोगों को विस्थापित कर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वाले उद्योग आदि वो भी जवाबदेही से साफ़ बच जा रहे हैं. गैर बराबरी बढ़ती ही जा रही है.

थोड़ा-बहुत बदलाव नहीं व्यवस्था परिवर्तन की माँग

यदि बराबरी और सामाजिक न्याय वाली व्यवस्था बनानी है तो उसके लिए हलके परिवर्तन से नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन से ही सतत विकास की ओर प्रगति होगी. संसाधनों की आपूर्ति कम करनी होगी। सबसे अधिक संसाधनों का दोहन तो अमीर वर्ग के लोग कर रहे हैं और उनके जीवन यापन का तौर तरीका सतत विकास का परिचायक है ही नहीं. यदि सबके सतत विकास का लक्ष्य पूरा करना है तो सबसे जरुरी तो यह है कि अमीर सक्षम वर्ग अपने जीवन में बड़े पैमाने पर बदलाव लाये जिससे कि संसाधनों का दोहन कम हो, गैर बराबरी कम हो और ऐसी व्यवस्था का निर्माण हो जो सभी के लिए लाभकारी हो. उदहारण के तौर पर, यह सम्भव है ही नहीं और न ही पर्यावरण संतुलन के लिए हितकारी है कि सभी लोग मोटरकार से चलें। इसीलिए जन परिवहन और सार्वजनिक यातायात को सुधारना अति आवश्यक है। हर सड़क पर पैदल चलने और साइकल चलाने वालों के लिए सुरक्षित स्थान होना आवश्यक है।

2010 में इस्तांबुल प्रिंसिपल्स (सिद्धांत) को पारित किया गया था जिससे कि विकास क्षेत्र में कार्यसधाकता बढ़े. सात साल हो गए हैं इस्तांबुल प्रिंसिपल्स को पारित हुए और यह जरुरी है कि यह मूल्यांकन हो कि इन 8 सिद्धांतों के कारण कितनी कार्यसधाकता बढ़ी है.

अनेक देशों से आये लोगों ने यह साझा किया कि इस्तांबुल प्रिंसिपल्स समय के साथ अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं. आज जब विकास बजट में कटौती हो रही है तो कार्यसधाकता और भी जरुरी हो जाती है. परन्तु अनेक देशों में आंतरिक मौहौल ऐसा है कि वहां सरकारों को जवाबदेह ठहराना इतना सरल नहीं है. या तो लोकतंत्र है ही नहीं, या लोकतंत्र कमज़ोर हालत में है कि जनता को सरकारों को जिम्मेदार और जवाबदेह ठहराना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है. इसीलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि लोकतान्त्रिक ढांचें मजबूत हों और सतत विकास में सभी वर्ग अपना योगदान पूरी कार्यसधाकता के साथ कर पायें.

बाबी रमाकांत, सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस)
1 अप्रैल 2017