हरी शंकर सिंह जो दिल्ली नेटवर्क ओफ़ पॉज़िटिव पीपल (डीएनपी प्लस) से जुड़े हुए हैं, ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से साक्षात्कार में कहा कि धरना तब तक जारी रहेगा जब तक सरकारी राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था दवाओं की कमी को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाती, और विभिन्न प्रदेशों में उनके नेटवर्क के सदस्य यह पुष्टि नहीं करते कि पर्याप्त दवाएँ पुन: उपलब्ध हो गयी हैं।
एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ जीवनरक्षक हैं, और जीवनभर बिना-नागे लेनी होती हैं। यदि एचआईवी के साथ जीवित लोग इन दवाओं का नियमित सेवन करेंगे और उनका वाइरल लोड नगण्य रहेगा, तब ही वह सामान्य जीवनयापन कर सकेंगे, स्वस्थ रहेंगे और संक्रमण फैलना का ख़तरा भी नगण्य रहेगा।
डीएनपी प्लस के मनितोष जो 2013 से एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ ले रहे हैं, ने कहा कि अनेक प्रदेशों में एचआईवी दवाओं की कमी पाँच-छह महीनों से बनी हुई है। दिल्ली में अनेक एंटीरेट्रोवाइरल दवा केंद्रों में सिर्फ़ तीन से सात दिन तक की खुराक वितरित हो रही है। जबकि कुछ ऐसे केंद्र हैं जहां दवा बची ही नहीं है।
हरी शंकर सिंह ने भी दोहराया कि दिल्ली के अनेक अस्पतालों में दवाएँ कम हैं। इसीलिए लोगों को सिर्फ़ तीन-चार दिन की दवाएँ दी जा रही हैं जिसके कारण लोगों को मजबूरन खुराक लेने के लिए बार-बार अस्पताल का चक्कर लगाना पड़ रहा है। लोगों को एक माह की खुराक मिलनी चाहिए। बार-बार अस्पताल की दौड़ में उनका आवागमन में अनावश्यक व्यय हो रहा है, दिहाड़ी और रोज़गार का नुक़सान हो रहा है, समय बर्बादी हो रही है, और जो लोग इसको झेलने में असमर्थ हैं वह दवाएँ लेना बंद करने के लिए विवश हैं जो अत्यंत दुखद है।
हरी शंकर सिंह ने स्पष्ट रूप से कहा कि पिछले पाँच महीनों में सरकारी राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था के अधिकारियों के साथ अनेक बैठकें हुईं, पर दवाओं की कमी को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया जिसके कारण स्थिति और संगीन बनी। इसीलिए एचआईवी के साथ जीवित लोगों के समुदाय ने मजबूरन, अनिश्चितक़ालीन धरना करने की ठानी जिससे कि सरकारी राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था दवाओं की आपूर्ति ऋंखला तुरंत मज़बूत करें और लोगों को बिना नागे कम-से-कम महीने भर की खुराक मिल सके जिससे कि वह स्वस्थ रहें।
धरने के पहले दिन भी राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था के अधिकारियों ने धरने पर बैठे लोगों से वार्ता की और जो कदम उन्होंने दवाओं की कमी दूर करने के लिए उठाए हैं, उनसे साझा किए पर एचआईवी के साथ जीवित लोग सरकारी बयान से संतुष्ट नहीं हुए। सरकारी अधिकारों और प्रतिनिधियों ने कहा कि दवाओं की आपूर्ति करने के लिए टेंडर निकाले जा चुके हैं, सबसे कम क़ीमत की बोली लगाने की प्रक्रिया चल रही है, और केंद्रीय सरकारी संस्था ने राज्यों के सरकारी एड्स नियंत्रण संस्था या एंटीरेट्रोवाइरल उपचार केंद्र को निर्देश दिए हैं कि वह फ़िलहाल दवाओं की ख़रीद कर ले। पर जो लोग धरने पर हैं वह इन बातों और आश्वासन से संतुष्ट नहीं हुए।
डीएनपी प्लस के हरी शंकर सिंह ने कहा कि जो एचआईवी वाइरस उनके शरीर में है वह सरकारी आश्वासन से नहीं नियंत्रित होगा बल्कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं से नियंत्रित होगा। इसीलिए वह सिर्फ़ आश्वासन से संतुष्ट नहीं हैं बल्कि ठोस कार्रवाई के बाद ही धरना ख़त्म करने के पक्ष में हैं।
वरिष्ठ एचआईवी अधिकार कार्यकर्ता और एचआईवी के साथ जीवित लोगों के राष्ट्रीय संगठन (एनसीपीआई प्लस) से जुड़ी मोना बलानी ने कहा कि वह 22 सालों से एचआईवी के साथ ज़ी रही हैं और पिछले 14 सालों से एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं पर हैं। उन्होंने बताया कि न सिर्फ़ एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी हो गयी है बल्कि अनेक जगह पर एचआईवी परीक्षण की किट की कमी है, सीडी4 परीक्षण में इस्तेमाल होने वाले रिएजेंट की भी कमी है।
मोना बलानी ने सवाल उठाया कि एक ओर सरकार यह दावा कर रही है कि 95-95-95 लक्ष्यों को पूरा करेगी, यानी कि 95% लोगों को एचआईवी जाँच मिलेगी जिससे कि उनको अपने एचआईवी पॉज़िटिव होने की जानकारी मिले, इनमें से 95% को एंटीरेट्रोविरल दवा मिलेगी और इनमें से 95% का वाइरल लोड नगण्य होगा। पर जब एचआईवी परीक्षण किट की कमी होगी और दवाएँ नहीं मिलेंगी तो यह लक्ष्य कैसे पूरे होंगे?
लव लाइफ़ सुसाइटी के विजय सिंह ने कहा कि एक ओर सरकार यह कहती है कि एचआईवी के साथ जीवित लोग एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ बिना नागे के नियमित रूप से लें और दूसरी ओर बारम्बार दवाओं की कमी हो जाती है और दवाएँ अनुपलब्ध हो जाती हैं – ऐसे में कैसे लोग दवाएँ नियमित रूप से लेंगे?
मोना बलानी ने सही कहा कि सबके लिए नियमित दवाएँ जो वह माँग रही हैं वह उनका संविधानिक अधिकार है, अपने स्वास्थ्य की देखभाल करना, स्वस्थ रहना उनका मानवाधिकार है।
साहिल जो ओम् प्रकाश पॉज़िटिव नेटवर्क के अध्यक्ष हैं और 13 साल की उम्र से एचआईवी के साथ जीवित हैं, ने भी मोना बलानी की बात का समर्थन किया कि वह धरने के ज़रिए दवाएँ अधिकार-स्वरूप माँग रहे हैं।
एचआईवी के साथ जीवित लोगों के राष्ट्रीय संगठन (एनसीपीआई प्लस) से जुड़ी साधना जादोन, 2003 से एचआईवी के साथ जीवित हैं। उन्होंने कहा कि न सिर्फ़ वयस्क लोग दवाओं की कमी से परेशान हैं बल्कि बच्चों तक की एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी हो गयी है। इन एचआईवी पॉज़िटिव बच्चों के माता-पिता या अभिभावक अस्पताल के चक्कर लगा रहे हैं। अपना काम-धंधा छोड़ कर उनको बारम्बार अस्पताल जाना पड़ता है जिससे कि बच्चों की दवाएँ मिल सकें, भले ही चंद दिनों की खुराक मिले। हर एचआईवी के साथ जीवित व्यक्ति को कम-से-कम महीने भर की एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की खुराक तो मिलनी ही चाहिए और दवाओं की कमी तो कदापि नहीं होनी चाहिए।
साधना जादोन ने प्रश्न उठाया कि एक ओर सरकार कह रही है कि ‘लोस्ट टू फ़ॉलो अप’ कम हो, दूसरी ओर सरकार दवाओं की आपूर्ति ऋंखला दुरुस्त नहीं कर रही है जिसके कारण मजबूरन लोगों को इलाज बाधित करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। ‘लोस्ट टू फ़ॉलो अप’ यानी कि जो लोग इलाज बीच में छोड़ देते हैं (एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ लेना छोड़ देते हैं), उनको पुन: नियमित दवाएँ लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और जिस कारण वह दवाएँ नहीं ले पा रहे थे उन समस्याओं का निवारण होना चाहिए।
डीएनपी प्लस के जय प्रकाश ने कहा कि सरकार उनसे सवाल पूछती है कि ‘लोस्ट टू फ़ॉलो अप’ की संख्या क्यों बढ़ रही है और एचआईवी समुदाय, उन लोगों को पुन: नियमित इलाज में वापस लाए जो लोग इलाज छोड़ देते हैं। पर क्या सरकार अपना काम ठीक से कर रही है? दवाओं की आपूर्ति ऋंखला क्यों बाधित हो रही है? यदि सरकार अपना दायित्व निष्ठा और समर्पण के भाव से निभाएगी तो दवाओं की कमी कैसे हो सकती है? पिछले 5-6 महीने में एचआईवी समुदाय ने सरकारी प्रतिनिधियों के साथ अनेक बार मिल कर बैठक करी, ईमेल करी, फ़ोन वार्तालाप कर निवेदन किया कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की कमी हो रही है पर समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। कुछ लोगों को घर के बर्तन आदि तक बेच कर निजी वर्ग से दवाएँ ख़रीदनी पड़ी हैं।
जय प्रकाश ने कहा कि वह भीख नहीं माँग रहे हैं बल्कि अपना अधिकार माँग रहे हैं कि उनको जीवनरक्षक दवाएँ नियमित मिलें।
लव लाइफ़ सुसाइटी की प्रिया ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से कहा कि राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था की एक ज़िम्मेदारी यह भी है कि एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं की आपूर्ति ऋंखला दुरुस्त रहे और दवाओं की कमी नहीं होने पाए। सरकारी संस्था को अपना कार्य तो ज़िम्मेदारी से करना चाहिए।
भारत में अनुमानित है कि 21 लाख से अधिक लोग एचआईवी के साथ जीवित हैं। इनमें से लगभग 14 लाख लोगों को एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ मिल रही हैं जो जीवनरक्षक हैं। परंतु यदि एड्स के उन्मूलन का सपना साकार करना है तो यह आवश्यक है कि सभी एचआईवी पॉज़िटिव लोगों को यह ज्ञात हो कि वह एचआईवी के साथ जीवित हैं, उन्हें नियमित एंटीरेट्रोवाइरल दवाएँ मिल रही हों और उनका वाइरल लोड नगण्य रहे जिससे कि वह स्वस्थ रहें और भरपूर ज़िंदगी जी सकें, और किसी अन्य को संक्रमण भी न फैले। परंतु दवाओं की कमी होती रहेगी तो यह सपने कैसे पूरे होंगे?
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