भारतीय कश्मीरियों पर हिंसा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव

भारतीय कश्मीरियों पर हिंसा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव

भारतीय सेना और कश्मीरी उग्रवादियों के बीच पिछले २० साल से चल रही हिंसात्मक घटनाओं के कारण लगभग२०,००० लोग मारे गए हैं तथा ४००० लोग विस्थापित हुए हैंये तो सरकारी आंकड़े हैं, पर इस लड़ाई का जो मानसिक कुप्रभाव कश्मीर की जनता पर पड़ा है, उसे आंकडों में नहीं मापा जा सकता

हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण के दौरान कुछ चौंका देने वाले तथ्य सामने आए हैंयह सर्वेक्षण कनाडा और हॉलैंड के विश्वविद्यालयों एवंमेडिसिन्स साँस फ़्रन्तिअरनामक स्वयंसेवी संस्था के मिले जुले तत्वाधान में २००५ में किया गया थाइस अध्ययन के अंतर्गत ५१० कश्मीरियों से बातचीत की गयी जो भारतीय कश्मीर में रह रहे हैंइनमें २७० पुरूष थे और २४० महिलायें थीं३३% प्रतिवादियों में (विशेषकर महिलाओं में), असुरक्षा की भावना के कारण, मानसिक दबाव के लक्षण पाये गए

इस वैज्ञानिक अध्ययन के लेखकों का कहना था कि कश्मीर में लगातार हो रही हिंसा और मानवीय अधिकारों के उल्लंघन के चलते, ३३% प्रतिवादियों के मन में कभी कभी आत्महत्या का विचार आया थापुरुषों ने स्वयं भोगा था अनाचार और अत्याचार का वातावरणपुलिस हिरासत में उन्हें यातनाएं दी गयी थीऔर महिलायें यह सब अपनी आंखों के आगे घटते हुए देख कर मानसिक रूप से आहत हुई थीं

पुरुषों का मानसिक तनाव तीन गुना बढ़ जाने के मुख्य कारण थे----मर्यादा का उल्लंघन, बलपूर्वक किया गया विस्थापन एवं स्वयं अक्षम होने की भावनामहिलाओं ने अपने आसपास लोगों को मृत्यु और अत्याचार का शिकार होते हुए देखा था एवं स्वयं को असुरक्षित पाया थाइन सब कारणों से उनका मानसिक तनाव दो गुना बढ़ गया

इस अध्ययन के परिणामयुद्ध एवं स्वास्थ्यनामक पत्रिका में छपे हैंइसके अनुसार ६३% प्रतिवादियों ने घायलों को देखा था; ४०% ने लोगों को मरते हुए देखा था;६७% ने शारीरिक अत्याचार होते हुए देखे थे; १३%बलात्कार के दृष्टा थे; ४४% ने दुर्व्यवहार का अनुभव किया था और ११% का कहना था कि उनकी मर्यादा का उल्लंघन किया गया

यह माना जाता है कि पिछले वर्ष लगभग ६०,००० कश्मीरियों ने आत्महत्या कीअनेक लोगों ने आत्मकेंद्रित होकर, स्वयं को समाज की मुख्य धारा से अलग कर लियाकुछ लोगों का व्यवहार हिंसात्मक हो गया तथा कुछ धर्म में शान्ति की तलाश करने लगेइतना अधिक मानसिक तनाव भारत के अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं पाया गया हैकश्मीर में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी होने पर भी ६०% प्रतिवादियों ने स्वास्थ्य केन्द्रों पर जा कर इस प्रकार की सहायता ली, विशेष कर महिलाओं ने

हिंसा, खतरे और अनिश्चिनता के इस वातावरण से भारतीय सेना का भी मनोबल गिरा है, जिसके कारण कश्मीर में तैनात भारतीय सैनिकों में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैंइसलिए सेना को वहाँ ४०० मनोविशेषज्ञों की सेवाएँ लेनी पड़ी हैं

सरकार को चाहिए कि कश्मीर की जनता एवं भारतीय सेना का मनोबल बनाए रखने के लिए उचित कदम उठायेजो लोग कश्मीर के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं उन्हें यह सोचना होगा कि ज़मीन के लिए लड़ी जा रही इस लड़ाई से उस ज़मीन पर रहने वालों के जीवन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है
क्या यह किसी के लिए भी उचित है?

शोभा शुक्ला

परमाणु उर्जा से बिजली की संभावनाए

परमाणु उर्जा से बिजली की संभावनाए

भारत-अम्रीका परमाणु समझौते पर बहस के दैरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसी तस्वीर पेश की देश की बिजली की जरूरत पूरी कराने के लिए परमाणु उर्जा के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नही है तथा परमाणु उर्जा पर्यावरणीय दृष्टि से साफ-सुथरी व जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बेहतर विकल्प नही है । आइए देखें इस दावे में कितना दम है।


यूरोप में कुल १९७ परमाणु बिजली घर है जो यूरोप की बिजली की ३५ प्रतिशत जरूरत पूरी करते है. इनमें फ्रांस सबसे अधिक ७८.५ प्रतिशत बिजली का उत्पादन परमाणु उर्जा से करता है. किंतु आने वाले दिनों यूरोप में सिर्फ़ १३ नए परमाणु बिजली घर लगाये जाने वाले है । जर्मनी, इग्लैंड, स्वीडन में कोई नए परमाणु बिजली घर नही लगे जा रहे है । यहाँ तक फ्रांस में भी फिलहाल मात्र एक बिजली घर ही लगाने की तैयारी है। ५५ प्रतिशत यूरोपीय नागरिक इन कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे की वजह से परमाणु बिजली घरो का विरोध करते है। रेडियोधर्मी कचरे के सुरक्षित निबटारे का आज हमारे सामने कोई रास्ता नही है। हालांकि कई यूरोपीय संघ की क्योटो मानकों को पूरा करने की प्रतिबद्धता का हवाला देते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए परमाणु उर्जा को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे है।

यूरोप में कुल १९७ परमाणु बिजली घर है जो यूरोप की बिजली की ३५ प्रतिशत जरूरत पूरी करते है. इनमें फ्रांस सबसे अधिक ७८.५ प्रतिशत बिजली का उत्पादन परमाणु उर्जा से करता है. किंतु आने वाले दिनों यूरोप में सिर्फ़ १३ नए परमाणु बिजली घर लगाये जाने वाले है । जर्मनी, इग्लैंड, स्वीडन में कोई नए परमाणु बिजली घर नही लगे जा रहे है । यहाँ तक फ्रांस में भी फिलहाल मात्र एक बिजली घर ही लगाने की तैयारी है। ५५ प्रतिशत यूरोपीय नागरिक इन कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे की वजह से परमाणु बिजली घरो का विरोध करते है। रेडियोधर्मी कचरे के सुरक्षित निबटारे का आज हमारे सामने कोई रास्ता नही है। हालांकि कई यूरोपीय संघ की क्योटो मानकों को पूरा करने की प्रतिबद्धता का हवाला देते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए परमाणु उर्जा को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे है।

जापान अपने ५५ परमाणु बिजली घरो से अपनी बिजली की ३० प्रतिशत जरूरत पूरी करता है जिसको बड़ा कर २०१७ तक वह ४० प्रतिशत तक ले जाना चाहता है। २ नए कारखाने निर्माणाधीन है तथा १७ कारखाने लगाने की योजना है। जापान चुकी एक द्वीप राष्ट्र है और अपनी उर्जा की जरूरतों के ८० प्रतिशत के लिए वह बाहरी श्रोतों पर निर्भर रहता है अतः उसने फिलहाल परमाणु ऊर्जा को विकल्प के रूप में छोड़ने का फ़ैसला नही लिया है।

अमेरीका में १०४ परमाणु बिजली घर है जिनसे वह अपनी जरूरत की २० प्रतिसत बिजली प्राप्त करता है। किंतु ७० दसक के अंत से अमेरीका में वह स्पष्ट हो गया था की परमाणु बिजली घरो का कोई भविष्य नही है तथा १२० परमाणु बिजली घर लगाने के प्रस्ताव रद्द कर दिए। इसी समय उसके पेंसिलवेनिया राज्य में थ्री माईल आइलैंड परमाणु बिजली घर में एक भयंकर दुर्घटना हुई। इसके बाद से आज तक अमेरिका में एक भी नया परमाणु बिजली घर नही लगा है। अमेरीका के परमाणु बिजली घरो से निकलने वाले कचरे को नेवादा राज्य की युक्का पहाडियों में दफनाने की योजना फिलहाल राजनीतिक विरोध के कारण खटाई में पड़ गई है। परमाणु बिजली का दुनिया के कुल बिजली उत्पादन में १५ प्रतिशत योगदान है । जिसमे अमेरिका , जापान व् फ्रांस का योगदान ५६.५ प्रतिशत है। दुनिया के ३१ देशो में कुल ४३९ परमाणु बिजली घर है।

अमेरीका में १०४ परमाणु बिजली घर है जिनसे वह अपनी जरूरत की २० प्रतिसत बिजली प्राप्त करता है। किंतु ७० दसक के अंत से अमेरीका में वह स्पष्ट हो गया था की परमाणु बिजली घरो का कोई भविष्य नही है तथा १२० परमाणु बिजली घर लगाने के प्रस्ताव रद्द कर दिए। इसी समय उसके पेंसिलवेनिया राज्य में थ्री माईल आइलैंड परमाणु बिजली घर में एक भयंकर दुर्घटना हुई। इसके बाद से आज तक अमेरिका में एक भी नया परमाणु बिजली घर नही लगा है। अमेरीका के परमाणु बिजली घरो से निकलने वाले कचरे को नेवादा राज्य की युक्का पहाडियों में दफनाने की योजना फिलहाल राजनीतिक विरोध के कारण खटाई में पड़ गई है। परमाणु बिजली का दुनिया के कुल बिजली उत्पादन में १५ प्रतिशत योगदान है । जिसमे अमेरिका , जापान व् फ्रांस का योगदान ५६.५ प्रतिशत है। दुनिया के ३१ देशो में कुल ४३९ परमाणु बिजली घर है।

७० व ८० के दशक में परमाणु बिजली के उत्पादन की क्षमता में जबरदस्त वृद्धि हुई। ८० के दशक के अंत तक आते-आते इस उद्योग में मंदी आ गई। बढ़ती कीमतों की वजह से परमाणु बिजली घर लगना कोई मुनाफे का सौदा नही रह गया था । तथा इस दौरान परमाणु विरोधी आन्दोलन ने भी जगह-जगह जो पकडा। लोगों के लिए परमाणु बिजली घर में दुर्घटना, रेडियोधर्मी कचरा व परमाणु शस्त्रों का प्रसार उनके स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए खतरा प्रतीत होने लेन लगे।

१९८६ में चेर्नोबिल परमाणु बिजली घर में दुर्घटना अभी तक दुनिया के सबसे भयंकर औद्योगिक दुर्घटना रही है। जिसकी वजह से परमाणु उद्योग का भविष्य अधंकारमय हो गया । न्यूजीलैंड, आयरलैंड व पोलैंड जैसे देशों ने परमाणु बिजली कार्यक्रम शुरू न करने का निर्णय लिया तथा ओस्ट्रेलिया, सुइदन व इटली ने अपने परमाणु बिजली कार्यक्रम धीरे-धीरे बंद करने का निर्णय लिया। ओस्ट्रेलिया जिसके पास यूरेनियम के सबसे बड़े भंडार हैं, ने अभी तक अपने देश में एक भी परमाणु बिजली घर नही लगाया है।

२००६ में योजना आयोग द्वारा करे गए एक अध्ययन एकीकृत उर्जा नीति के मुताबिक बहुत आशावान परिस्थितियों में यदि हम परमाणु उर्जा से २०१५ तक १५,००० मेगावाट तथा २०२१ तक २९,००० मेगावाट बिजली उत्पादन करने की क्षमता स्थापित कर लेते है, तो भी परमाणु उर्जा का हिस्सा कुल बिजली उत्पादन क्षमता का मात्र ७ प्रतिशत ही होगा। अनहोनी परिस्थितियों में यदि २०२० तक हम ४०,००० मेगावाट परमाणु बिजली उत्पादन की क्षमता भी स्थापित कर लेते हैं तो भी वह कुल क्षमता का ९ प्रतिसत से ज्यादा नहीं होगा। यानी की परमाणु उर्जा से हमें इतनी बिजली नही मिलने वाली है की देश की बिजली के जरूरत पूरी हो सके।

२००६ में योजना आयोग द्वारा करे गए एक अध्ययन एकीकृत उर्जा नीति के मुताबिक बहुत आशावान परिस्थितियों में यदि हम परमाणु उर्जा से २०१५ तक १५,००० मेगावाट तथा २०२१ तक २९,००० मेगावाट बिजली उत्पादन करने की क्षमता स्थापित कर लेते है, तो भी परमाणु उर्जा का हिस्सा कुल बिजली उत्पादन क्षमता का मात्र ७ प्रतिशत ही होगा। अनहोनी परिस्थितियों में यदि २०२० तक हम ४०,००० मेगावाट परमाणु बिजली उत्पादन की क्षमता भी स्थापित कर लेते हैं तो भी वह कुल क्षमता का ९ प्रतिसत से ज्यादा नहीं होगा। यानी की परमाणु उर्जा से हमें इतनी बिजली नही मिलने वाली है की देश की बिजली के जरूरत पूरी हो सके।


स्वास्थ्य नीतियों को कमजोर करने के लिए भारत सरकार पर तम्बाकू उद्योग का 'जोर'

स्वास्थ्य नीतियों को कमजोर करने के लिए भारत सरकार पर तम्बाकू उद्योग का 'जोर'

केंद्रीय सूचना आयोग में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने कहा कि तम्बाकू उद्योग उस पर जोर डालता है कि तम्बाकू नियंत्रण की नीतियों को कमजोर किया जाए (पढ़ें,
The Hindu, १४ नवम्बर २००८).

स्वास्थ्य नीतियों में उद्योगों के हस्तछेप से न केवल स्वास्थ्य नीतियाँ कमजोर होती हैं, बल्कि उनको लागु करने में अवांछित विलंब होता है. उदाहरण के तौर पर तम्बाकू उद्योग और अन्य सम्बंधित उद्योगों, जिनमें इंडियन होटल असोसिएशन भी शामिल है, ने तम्बाकू नियंत्रण नीतियों के विरोध में ७० से अधिक कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की थीं. इन्हीं उद्योगों की वजह से तम्बाकू उत्पादनों पर प्रभावकारी फोटो वाली चेतावनी को लागु करने को कम-से-कम ६ बार टाला गया है. इन्हीं उद्योगों के प्रतिनिधियों और समर्थकों ने 'मंत्रियों के समूह' पर, जो तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनियों का मूल्यांकन कर रहा था, जोर डाल कर फोटो वाली चेतावनियों को कमजोर करा दिया है.

जब तक तम्बाकू नियंत्रण कानूनों में उद्योग के हस्तछेप पर रोक नही लगेगी, तब तक उद्योग अपने मुनाफे और बाज़ार को बचाने और बढ़ाने के लिए, स्वास्थ्य नीतियों को कमजोर करते रहेंगे.

दक्षिण अफ्रीका के डुर्बन शहर में १६० देशों के सरकारी प्रतिनिधि अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि के गाइड-लाइन पर विचार-विमर्श कर रहे हैं, जिनमें article ५.३ शामिल है जो स्वास्थ्य नीतियों में तम्बाकू उद्योग के हस्तछेप पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखता है. इस अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि को फ्रेमवर्क कन्वेंशन ओन टोबाको कंट्रोल कहते हैं.

इस संधि में प्रस्तावित आर्टिकल ५.३ के मुताबिक, तम्बाकू उद्योग का जन-स्वास्थ्य के साथ सैधांतिक मतभेद है.

यह भी समझना आवश्यक है कि यदि जन-स्वास्थ्य नीतियों में तम्बाकू उद्योग का हस्तछेप जारी रहेगा तो इसका कु-प्रभाव अन्य तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रमों पर भी पड़ेगा जिनको लागु करना में न केवल अवान्छिय विलम्ब होगा बल्कि इन नीतियों के कमजोर होने की भी सम्भावना तीव्र हो जायेगी.

"अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि को लागु करने में तम्बाकू उद्योग का हस्तछेप सबसे प्रमुख व्यवधान है" कहना है कैथी मुल्वे का, जो कारपोरेट अच्कोउन्ताबिलिटी इंटरनेशनल की अंतर्राष्ट्रीय नीति निदेशक हैं.

(मेरी ख़बर में प्रकाशित)

मधुमेह के साथ जीवित बच्चों /युवाओं की देखभाल

मधुमेह के साथ जीवित बच्चों /युवाओं की देखभाल


वर्ष २००८ के विश्व मधुमेह दिवस का मुख्य विषय है 'बच्चों/ युवाओं में मधुमेह' । इसके अंतर्गत चलाये जा रहे विश्वजागरूकता अभियान का उद्देश्य है कि मधुमेह किसी भी बच्चे की मृत्यु का कारण बनेसाथ ही साथ अभिभावकों, परिचारकों, शिक्षकों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों, नेताओं एवं जनसाधारण में भी मधुमेह सम्बंधी जानकारी बढ़े


अंतर्राष्ट्रीय मधुमेह दिवस प्रति वर्ष १४ नवम्बर को मनाया जाता हैयह दिन डाक्टर फ्रेडरिक का जन्म दिवस भी है, जिन्होंने ८७ वर्ष पूर्व इंसुलिन का आविष्कार किया थाविश्व में मधुमेह के बढ़ते हुए प्रकोप को ध्यान में रखते हुए, इन्टरनेशनल डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़.) और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने १९९१ में इस दिवस कीस्थापना की थीसन २००७ में यू.एन.. ने इसे राजकीय यू.एन. नेशन विश्व दिवस का दर्जा प्रदान कियायू.एन का मानना है की मधुमेह एक महामारी के रूप में प्रत्येक आयु वर्ग में फैल रहा है


मधुमेह से हर उम्र का बच्चा प्रभावित हो सकता है, यहाँ तक कि शिशु भीयदि समय से इसका निदान इलाज नहीं होता तो यह बच्चे की मृत्यु का कारण भी बन सकता है अथवा उसके मस्तिष्क को क्षतिग्रस्त कर सकता हैबच्चों में इसके लक्षणों को प्रायः नज़रअंदाज़ कर दिया जाता हैसच तो यह है की अज्ञानता या निर्धनतावश इसके लक्षणों की सही पहचान नहीं हो पातीविशेषकर बालिकाओं में तो इसके लक्षणों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता


पुणे स्थित किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल के मधुमेह विभाग के निदेशक, डाक्टर याज्ञनिक के अनुसार, ‘प्राय: ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों में या तो मधुमेह का समय रहते निदान नहीं हो पाता या फिर सही इलाज नहीं होताइस कारण कई बच्चे अपने जीवन से ही हाथ धो बैठते हैं, जो हम सभी के लिए एक शर्मनाक बात हैसरकार का कर्तव्य है कि वो ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करे ताकि बच्चों/किशोरों में मधुमेह का समय से निदान एवम् उचित उपचार और परिचार हो सके।’


प्रत्येक अभिभावक , शिक्षक, स्कूली नर्स, डाक्टर, एवं बच्चों की देखभाल करने वाले अन्य व्यक्तियों को मधुमेह के लक्षणों अथवा चेतावनी संकेतों की जानकारी होनी चाहिएमधुमेह के प्रमुख लक्षण हैं :- बार बार पेशाब होना, अत्यधिक भूख और प्यास लगना, वज़न कम होना, थकान महसूस करना , एकाग्रता का अभाव होना, दृष्टि धूमिल हो जाना, उल्टी/पेट दर्द होना आदिटाइप- डायबिटीज़ वाले बच्चों में ये लक्षण या तो कम होते हैं अथवा अनुपस्थित होते हैं


टाइप- डायबिटीज़ में शरीर में इंसुलिन बनाने की क्षमता ही नहीं होतीइस प्रकार के मधुमेह को रोका नहीं जा सकताअधिकतर बच्चों को टाइप- डायबिटीज़ ही होती हैविश्व स्तर पर, १५ वर्ष से कम आयु वाले ५००,०००बच्चों को इस प्रकार का मधुमेह हैफिनलैंड, स्वीडन और नारवे के बच्चों में इसका प्रकोप सबसे अधिक हैपरन्तु आधुनिक समय में बाल्यकाल स्थूलता तथा आराम तलब जीवन शैली के चलते टाइप- डायबिटीज़ का प्रकोप भी बढ़ रहा हैजापान में तो यही मधुमेह सबसे अधिक व्यापक है


टाइप- डायबिटीज़ के चलते बच्चों को प्रतिदिन इंसुलिन के इंजेक्शन लेने पड़ते हैं तथा रक्त में शर्करा की मात्रा कोनियंत्रित करना पड़ता हैयदि इसे नियंत्रित नहीं किया जाता , तो रक्त में अम्ल की मात्रा बहुत बढ़ जाती है और यह स्थिति जानलेवा भी हो सकती हैऐसी स्थिति को रोकने का एक ही उपाय है - समय से निदान और चिकित्सा


विकासशील देशों में तो समस्या और भी गंभीर हैइन निम्न/मध्यम आय वर्ग के देशों के लगभग ७५,००० बच्चे टाइप- डायबिटीज़ के साथ बहुत ही निराशाजनक परिस्थितियों में जी रहे हैंउनके लिए इंसुलिन एवं अन्य चिकित्सा सामग्री/ उपकरणों का नितांत अभाव हैउन्हें मधुमेह के बारे में उचित जानकारी भी नहीं हैइसलिए वे मधुमेह सम्बंधी अनेक विषमताओं के शिकार हो रहे हैंमधुमेह का उचित उपचार और देखभाल प्रत्येक बच्चे का अधिकार होना चाहिए कि सौभाग्य

दिल्ली की डाक्टर सोनिया कक्कड़ के अनुसार, ‘आवश्यकता है एक व्यापक सोच और कार्यशैली की, जो मधुमेह केखतरों को संबोधित करेसामाजिक धारणाएं मधुमेह के साथ जीवित किशोर युवक / युवतियों का जीवन प्रभावित करतीं हैंइन मान्यताओं के चलते विशेषकर लड़कियों को अधिक दु: सहना पड़ता है.’


टाइप- डायबिटीज़ एक गंभीर वैश्विक जन स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभर रही हैविकसित एवं विकासशील ,दोनों ही प्रकार के देशों के बच्चे इससे प्रभावित हैंयह आठ वर्ष से कम आयु के बच्चों में भी पाई जा रही हैअमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के कुछ आदिवासी समुदायों के %-- % युवाओं में इसका प्रकोप हैटाइप- डायबिटीज़ को रोका जा सकता हैशारीरिक वज़न घटा कर और शारीरिक श्रम बढ़ा कर


आई.डी.ऍफ़. के प्रेजिडेंट इलेक्ट, डाक्टर म्बान्या का कहना है कि, ‘सच तो यह है कि विकासशील देशों में कई बच्चे मधुमेह का निदान होने के कुछ समय बाद ही मर जाते हैंइंसुलिन के आविष्कार के ८७ वर्ष बाद भी यह शोचनीय स्थिति है कि अनेक बच्चे/वयस्क केवल इसलिए अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं क्योंकि उन्हें अपने इलाज के लिए इंसुलिन उपलब्ध ही नहीं हो पातीयह हम सबके लिए एक शर्मनाक बात हैआने वाली पीढियों के लिए हमें इसका समाधान ढूँढना ही होगा।’


आई.डी.ऍफ़. के अनुसार, एशिया और अफ्रीका के कुछ विकासशील देशों में मधुमेह के उपचार से सम्बंधित दवाएं और नियंत्रण उपकरण या तो उपलब्ध नहीं हैं ,अथवा महंगे होने के कारण जन साधारण की पहुँच से बाहर हैंइस कारण बहुत से बच्चे या तो अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं, या फिर एक निम्न स्तरीय जीवन बिताते हुए, मधुमेह सम्बंधी जटिलताओं से ग्रसित होते हैं।’

मधुमेह की रोकथाम / उपचार के लिए अभी तक जो कदम उठाये गए हैं वो काफी नहीं हैंहमारी सरकारी जनस्वास्थ्य सेवाएँ अधिकतर संक्रामक रोगों की रोकथाम एवं जच्चा/बच्चा स्वास्थ्य सेवा तक ही सीमित हैंनिजीक्षेत्र में रोकथाम के विपरीत इलाज पर ही अधिक ध्यान केंद्रित हैअत: आवश्यकता है एक ऐसी प्रबंध प्रणाली की जो मधुमेह की रोकथाम, उपचार,तथा देखभाल को ध्यान में रखते हुए कार्य करे


आई.डी.ऍफ़. का सभी से निवेदन है कि वे मधुमेह के बारे में जागरूकता बढायें तथा इसके साथ जीवित व्यक्तियों के उपचार एवं परिचार के लिए प्रभावकारी कदम उठाएं


शोभा शुक्ला

संपादिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस


मेरी खबर में प्रकाशित


कोसी से बाढ़ ग्रस्त बिहार के मधेपुरा जिले के मुरलीगंज ब्लाक में गयी टीम की रपट

कोसी से बाढ़ ग्रस्त बिहार के मधेपुरा जिले के मुरलीगंज ब्लाक में गयी टीम की रपट

बिहार के मधेपुरा जिले के मुरलीगंज ब्लाक में पिछले २ महीनों से महेंद्र यादव और उनकी टीम बाढ़ से पीड़ित लोगों की सहायता के लिए कार्यरत है. कटिहार रेलवे स्टेशन से मुरलीगंज लगभग ८० किलोमीटर की दूरी पर है.

१० नवम्बर २००८ को महेंद्र भाई ने और उनके साथियों ने ६००-७०० लोगों के साथ एक खुली मूल्यांकन बैठक आयोजित की जिससे निम्नलिखित बिंदु स्पष्ट हुए:

१) बाढ़ से विस्थापित लोगों को जबरन राहत शिविर से बाहर किया जा रहा है क्योंकि सरकार इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है. जब तक लोग राहत शिविर में हैं, सरकार को उनके भोजन, स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा आदि की पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है.

२) जिन खेतों से बाढ़ का पानी अब वापस जा रहा है, वहाँ पर खेत बालू से ढंके हुए हैं. जब तक इस बालू को नहीं हटाया जाता, यह खेत उपजाऊ नहीं हैं. वहीँ दूसरी ओर, कई स्थानों पर तेज़ पानी से गहरे गढढे हो गए हैं जिनको भरने और धरती को पुन: खेती योग्य होने में १-२ साल तक लग सकते हैं.

३) किसानों को खेती-बाड़ी के लिए बीज, खाद, और अन्य औजार चाहिए जिससे कि वोह अपनी खेती पुन: कायम कर सकें. उसी तरह जिन लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है परन्तु वोह कृषि में महत्त्वपूर्ण योगदान देते आ रहे हैं, उनके मुआवजा के लिए भी विचार करना होगा. अन्य कारीगरों को भी उपयुक्त औजार चाहिए और
मुआवजा भी.

४) लोगों को उनके मृत या खोये हुए गाय/बैल और अन्य जानवर आदि के लिए भी
मुआवजा चाहिए. जिन लोगों के पास अपनी गाय/बैल या अन्य जानवर हैं, उनकी हालत ख़राब है क्योंकि नियमित रूप से पोषण नहीं मिल पाता है. सरकार से जो भूसा प्राप्त होता है वोह गीला है और भ्रष्टाचार के कारण नियमित रूप से प्राप्त भी नहीं होता है.

५) स्वास्थ्य व्यवस्था बिलकुल चरमरा गयी है. लोगों के पास निजी चिकित्सकों के पास जाने के अलावा कोई चारा ही नहीं है.

६) सभी शिक्षा के कार्यक्रमों में विघिन्न आ गया है, और इनको पुन: सक्रिय रूप से चालू करना की आवश्यकता है

७) रुपया २,२५० का
मुआवजा और एक कुंतल खाद्य-उत्पादन इमानदारी से नहीं वितरित किए जा रहे हैं. कई स्थानों पर सिर्फ़ ५०-७० किलो ही खाद्य-उत्पादन दिया जा रहा है. यदि किसी का नाम ऐ.पी.एल या बी.पी.एल सूची में नहीं है, तो उसको राहत सामग्री नहीं दी जा रही है

८) लोगों को सूचना के अधिकार का उपयोग करना चाहिए जिससे कि सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी मिल सके और लोगों को लाभ भी.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये

अधिक जानकारी के लिए, संपर्क करें:

डॉ संदीप पाण्डेय
आशा परिवार और
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय
[नेशनल अलायंस ऑफ़ पीपुलस मूवमेंट्स (NAPM)]
फ़ोन: ०५२२ २३४७३६५
ईमेल: ashaashram@yahoo.com

मेरी ख़बर में प्रकाशित

उचित देखभाल के द्वारा सम्भव है मधुमेह के साथ सामान्य जीवन

उचित देखभाल के द्वारा सम्भव है मधुमेह के साथ सामान्य जीवन


मधुमेह के साथ जीवित बच्चों एवं युवाओं का जीवन इस स्थिति से अत्यधिक प्रभावित होता है। उनके रक्त में शर्करा की मात्रा की नियमित जांच के साथ साथ उनकी औषधि, भोजन, और शारीरिक श्रम के बीच उचित तालमेल बनाए रखना भी आवश्यक होता है। चिकित्सकों, भोजन विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों के उचित मार्गदर्शन से तथा अभिभावकों के सहयोग से, ये सभी युवा एक स्वस्थ एवं सामान्य जीवन जी सकते हैं। वे अपने अन्य सम आयु मित्रों के समान जीवकोपार्जन कर सकते हैं और खेल-कूद में भी भाग ले सकते हैं।

इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मधुमेह दिवस के सन्दर्भ में इन्टरनेशनल डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़.) के अभियान का मुख्य केन्द्र हैं मधुमेह के साथ जीवित बच्चे व युवा , जिनका जीवन वास्तव में चुनौतियों से भरा है। मधुमेह के चलते उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। किशोरावस्था में हो रहे शारीरिक/ मानसिक परिवर्तन, मानसिक तनाव, आत्म विश्वास की कमी---ऐसे अनेक कारणों से उनके शरीर की इंसुलिन प्रतिरोधकता प्रभावित होती है।

आई.डी.ऍफ़. के अनुसार, विश्व में १५ वर्ष से कम आयु के ५००,००० बच्चे टाइप-1 डायबिटीज़ से प्रभावित हैं। इनमें से लगभग २५% दक्षिण-पूर्व एशिया के वासी हैं। टाइप-२ डायबिटीज़ का प्रकोप भी विकासशील एवं विकसित देशों के बच्चों में बढ़ता ही जा रहा है। टाइप-2 डायबिटीज़ वाले लगभग ८५% बच्चों का वज़न सामान्य से अधिक पाया गया है।
युवाओं में, मधुमेह के कारण, कम उम्र में ही ह्रदय रोग की संभावना बढ़ जाती है, जिसका कुप्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। आई.डी.ऍफ़. का मानना है कि इन बच्चों को सर्वोत्तम उपचार/परिचार सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए जिससे उनके जीवन की जटिलताएं कम हो सकें। इस क्षेत्र में शोध कार्यों को भी बढ़ावा मिलना चाहिए।

टाइप-२ डायबिटीज़ से शरीर में इंसुलिन के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है और बीटा-सेल से स्त्राव होना बंद हो जाता है। यह अनेक कारणों से होता है, जैसे मोटापा, आरामतलब जीवन शैली, अनुवांशिकता, जन्म के समय बच्चे का वज़न कम होना, गर्भ में ही मधुमेह से प्रभावित होना अथवा लड़की होना।



आई.डी.ऍफ़. के अनुसार, विश्व भर में २५ करोड़ व्यक्तियों को मधुमेह है, जिनमें से १२ करोड़ विकासशील देशों में रहते हैं। आने वाले समय में बढ़ते हुए शहरीकरण ,बदलते हुए सामाजिक परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली के कारण , मधुमेह के साथ जीवित ८०% लोगों की निम्न एवं मध्यम आयु वर्ग के देशों में पाये जाने की संभावना है।

फोर्टिस हॉस्पिटल, नयी दिल्ली के मधुमेह विभाग के निदेशक डाक्टर अनूप मिश्रा के अनुसार, ‘ मधुमेह, विश्वव्यापी असंक्रामक महामारियों में से एक है। अत: आवश्यकता है ऐसी स्वास्थ्य नीतियों की जो संतुलित आहार और चैतन्य जीवन शैली को बढ़ावा दे। इससे न केवल टाइप-२ डायबिटीज़ कम होगी वरन मोटापा, ह्रदय रोग,श्वास रोग, खानपान संबन्धी कैंसर आदि रोगों की भी रोकथाम की जा सकेगी। एक सुगठित प्रणाली, केवल मधुमेह ही नहीं, वरन हर प्रकार के असंक्रामक रोगों की रोकथाम को बढ़ावा देकर हम सभी को एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित कर सकती है।’


डाक्टर मिश्रा का मानना है कि, ‘संतुलित आहार के द्वारा बच्चों/वयस्कों में मधुमेह का उचित प्रबंधन किया जा सकता है। हमारे दैनिक भोजन में फल, सब्जी,दाल, मोटे अनाज व रेशे युक्त पदार्थों का होना आवश्यक है। वसायुक्त खाद्य पदार्थ, बहुत अधिक तला-भुना भोजन एवं परिष्कृत अनाज का उपयोग कम से कम करना चाहिए। बढ़ती उम्र के बच्चों/वयस्कों को संतुलित एवं पर्याप्त भोजन के साथ साथ शारीरिक श्रम/ व्यायाम भी करना चाहिए।’

जिन परिवारों में मधुमेह अनुवांशिक है वहाँ विशेष जागरूकता की आवश्यकता है। ऐसे परिवारों के बच्चों/ वयस्कों को अपना शारीरिक वज़न सामान्य रखते हुए फल व सब्जी अधिक मात्रा में खाने चाहिए, फास्ट फ़ूड से बचना चाहिए तथा नियमित रूप से आधा घंटे व्यायाम/ खेलकूद में हिस्सा लेना चाहिए।

दिल्ली निवासी डाक्टर सोनिया कक्कड़ के अनुसार, ‘ शहरों एवं गाँवों के निर्धन बच्चों /वयस्कों में मधुमेह का निदान समय से नहीं हो पाता --शायद शिक्षा की कमी या धन के अभाव के कारण, या फिर लड़की होने के कारण। मधुमेह के उपचार से अधिक उसकी रोकथाम पर ध्यान देना ज़्यादा तर्कसंगत है और सस्ता भी। इस दिशा में अब तक कुछ कदम उठाये अवश्य गए हैं पर वे काफी नहीं हैं। उन्हें और अधिक सक्षम बनाना होगा.’

एक सुनियोजित एवं सुगठित दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो टाइप-२ डायबिटीज़ के खतरों को कम कर सके। आधुनिक युग में तीव्र समाचार संचार, बेहतर टेक्नोलोजी, नवीनीकरण आदि साधनों के माध्यम से मधुमेह की समस्या से निपटने में हमें सहायता मिलेगी। भारत को अपने सीमित संसाधनों का उचित उपयोग करके एवम निजी क्षेत्र के सहयोग से मधुमेह संबंधी उपचार / परिचार कार्यक्रम सब की आर्थिक पंहुच के भीतर लाने होंगें।

शोभा शुक्ला

लेखिका सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं ।

तपेदिक में तम्बाकू का सेवन हो सकता है जानलेवा

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डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
अक्टूबर २००८


मधूमेह पीडितों की देखभाल

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डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
अक्टूबर २००८


मधुमेह के साथ जीवित व्यक्तियों की त्रासदी

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शोभा शुक्ला

मेरी बेटी से कौन ब्याह करेगा? उसे मधुमेह है।’ यह करुण पुकार है बहराइच जिले के गंगाजमुनी गाँव के निवासी राम अनुज कीउनकी १४ वर्षीय बेटी मुन्नी (नाम बदल दिया है) को टाइप डायबिटीज़ है जिसके कारण उसे प्रतिदिन इंसुलिन के इंजेक्शन लेने की आवश्यकता पड़ती हैमुन्नी का स्कूल जाना बंद कर दिया गया है क्योंकी स्कूल के बच्चे उसके इंसुलिन लेने पर उसका मज़ाक उडाते हैं
मधुमेह से पीड़ित होने के कारण मुन्नी एक अभिशप्त जीवन जी रही हैअपनी बीमारी और आर्थिक तंगी केकारण वह अपने परिवार पर एक बोझ हैउसकी उचित चिकित्सा एवं देखभाल के लिए उनके पास पर्याप्त धन नहीं है

यह व्यथा मुन्नी जैसे असंख्य बच्चों की है, विशेषकर लड़कियों कीकोढ़, टी.बी., कैंसर, शारीरिक विकलांगता , आदि रोग व्यक्ति के जीवन पर एक कलंक के समान माने जाते हैंपरन्तु मधुमेह का अभिशाप तो और भी बुरा है क्योंकि यह एक लंबे समय तक चलने वाली जीवन अवरोधक बीमारी हैइसका सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव रोगी के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता हैउचित जानकारी के अभाव में मधुमेह के अभिशाप को झेलना बच्चों/ वयस्कों के लिए दारुड दु: के समान हैइस बीमारी के चलते वे अपने मित्रों/ परिजनों की हँसी के पात्र हो सकते हैं तथा अपने परिवार पर आर्थिक बोझ होने के ताने सुनते सुनते मानसिक तनाव से ग्रस्त हो सकते हैंइस बीमारी से उत्पन्न भय, लज्जा, सामाजिक बहिष्कार के कारण उनकी कोमल बाल भावनाओं को ठेस पहुँच सकती हैइन सबके चलते उनमें मानसिक एवं व्यवहारिक परिवर्तन होना कोई अचरज की बात नहीं है

अत: उन्हें एवं उनके परिवार वालों को उचित मनोवैज्ञानिक परामर्श मिलना अत्यन्त आवश्यक हैअस्पतालों एवं मधुमेह उपचार केन्द्रों पर ऐसे सलाहकारों का होना आवश्यक है जो इन बच्चों/ वयस्कों को इस रोग के रहते एक स्वस्थ एवं सामान्य जीवन जीने की प्रेरणा देंअपनी जीवन शैली एवं भोजन प्रणाली में कुछ साधारण परिवर्तन करके वे एक संयत जीवन जी सकते हैंनई दिल्ली स्थित 'मधुमेह अनुसंधान, शिक्षा प्रबंधन' ट्रस्ट के संचालक डाक्टर पेंडसे के अनुसार, ‘हम सबको यह समझना आवश्यक है कि मधुमेह कोई रोग नहीं वरन शरीर की एक असामान्य स्थिति है जिसमें शरीर में पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन नहीं बन पाता है।’ इस ट्रस्ट के द्बारा मधुमेह के साथ जी रहे निर्धन बच्चों को सम्पूर्ण चिकित्सा व्यवस्था नि:शुल्क प्रदान की जाती हैइस केन्द्र का एक शिक्षा प्रभाग भी है जो रोगी और उनके परिवार जनों को चिकित्सा संबंधी उचित जानकारी परामर्श देकर उनका मार्गदर्शन करता हैइस परामर्श के चलते मधुमेह से जुडी हुई भ्रांतियों में आशातीत सुधार हुआ है

परन्तु अधिकाँश मधुमेह उपचार केन्द्रों में इस प्रकार के सलाहकारों, भोजन विशेषज्ञों, पाँव की देखभाल करने वाले विशेषज्ञों एवं स्वास्थ्य शिक्षकों का नितांत अभाव हैइस कारण से केवल मधुमेह से सम्बंधित अभिशाप पनप रहा है वरन मधुमेह के साथ जीवित व्यक्तियों की उचित देखभाल भी नहीं हो पा रही हैएक चिकित्सक को ही इन सब कार्यों को करना पड़ता है जो कठिन ही नहीं असंभव भी हैतिस पर इन अतिरिक्त सेवाओं का आर्थिक भार भी रोगी वहन करने के इच्छुक नहीं होते

इन्टरनेशनल डायबिटीस फेडेरेशन (आई. डी. ऍफ़.) के अनुसार, विश्व भर में लगभग २५ करोड़ व्यक्ति मधुमेह के साथ जी रहे हैंइसके अलावा प्रतिदिन २०० नए बच्चों में टाइप मधुमेह का निदान किया जाता है१५ वर्ष सेकम आयु वाले लगभग ५००,००० बच्चे मधुमेह के साथ जीवित हैंअत: यह आवश्यक है कि उनकी समुचित उपचार/ परिचार व्यवस्था एवं अन्य सहायक सुविधाएं सार्वजनिक अस्पतालों में ही उपलब्ध करायीं जाएँ

विकासशील देशों में, जहाँ संक्रामक रोगों ( जैसे दस्त ) की दवा एवं अन्य चिकित्सा सुविधा के अभाव में असंख्य बच्चे मर रहे हैं, वहाँ मधुमेह के साथ जीवित बच्चों/ वयस्कों पर धन व्यय करना फिजूलखर्ची माना जाता हैअत: आवश्यक है कि मधुमेह से जुड़े हुए अभिशाप को दूर किया जाएइस वर्ष मधुमेह दिवस ( जो १४ नवम्बर को मनाया जाना है) के सन्दर्भ में सभी देशों को कृत संकल्प होना चाहिए कि वे इस दिशा में उचित सार्थक कदम उठायेंगेंउन्हें अपने संसाधनों का उपयोग करके केवल मधुमेहियों को उचित स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करानी होगी वरन उनके परिजनों को समुचित परामर्श भी देना होगातभी वे एक सामान्य एवं स्वस्थ जीवन जी सकेंगे तथा परिवार/समाज पर बोझ नही समझे जायेंगे

हम सबके लिए यह जानना आवश्यक है कि अपनी जीवन शैली में उचित परिवर्तन लाकर अधिकाँश टाइप टाइप डायबिटीज़ की रोकथाम की जा सकती हैहमारे लिए यह जानकारी भी आवश्यक है कि जिनको टाइप डायबिटीज़ है उनके लिए उचित उपचार एवं चिकित्सा व्यवस्था और सहायता कार्यक्रम उपलब्ध हैं जो उनकी आर्थिक/ सामाजिक पहुँच के भीतर हैं

शोभा शुक्ला

(लेखिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (www.citizen-news.org) की संपादिका हैं)

मेरी ख़बर में प्रकाशित