लोकतांत्रिक राजनीति में विकृतियों से लड़ने की जरूरत

लोकतांत्रिक राजनीति में कारपोरेट घरानों की घुसपैठ एक चिंता का विषय है। राजनीति में धन की जरूरत होती है यह बात सर्वविदित है। यह धन पहले कुछ जनता और ज्यादा पूंजीपतियों से चंदे के रूप में लिया जाता था। फिर वसूली शुरू हो गई। इस वसूली के कार्य में गुण्डे-माफिया सहायक होते थे अतः राजनीति में उनकी एक भूमिका हो गई। बहुमत जुटाने के वक्त उनका बाहुबल भी उपयोगी सिद्ध होने लगा। लेकिन पैसों की बढ़ती भूमिका से अब निजी कम्पनियों ने राजनीति पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। अब तो निजी कम्पनियां ही कई बार नीतियां तय करती हैं और इनके नुमाइंदों की सरकारों में घुसपैठ होती है, कहीं तो सीधे मंत्री के ही रूप में। हम जिनको जन प्रतिनिधि चुन कर भेजते हैं वे निजी कम्पनियों के दलाल हो जाते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2 जी स्पैट्रम की आवंटन नीति को खारिज कर जितने भी 122 लाइसेंस दिए गए थे उनको रद्द कर देने से अब यह साफ हो गया है कि केन्द्र सरकार के मंत्रियों ने देश को बेशर्मी से लूटा है। कहा जा रहा है कि प्रधान मंत्री ने ए. राजा को ये आवंटन न करने का सुझाव दिया था। किन्तु प्रधान मंत्री का यह कहना कि वे गठबंधन की सरकार को बचाने के लिए राजा को रोक नहीं रहे थे तर्कसंगत बात नहीं है। इस पूरे कांड के लिए प्रधान मंत्री जिम्मेदार हैं और उन्हें इस्तीफा देना ही चाहिए।

इसी तरह उत्तर प्रदेश में किस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा था इसका अंदाजा खुद मायावती ने अपनी ही सरकार के जितने मंत्री निकाले हैं उससे लगाया जा सकता है। यह कैसे माना जा सकता है कि प्रदेश में जो कुछ भी हो रहा था वह मुख्य मंत्री की जानकारी के बिना हो रहा था? क्या पोंटी चड्ढा या बाबू सिंह कुशवाहा को बहन जी का संरक्षण प्राप्त नहीं था? जैसे केन्द्र के भ्रष्टाचार के लिए प्रधान मंत्री दोषी हैं उसी तरह प्रदेश के भ्रष्टाचार के लिए मायावती दोषी हैं।

उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए दावेदार सभी बड़े दल भ्रष्ट हैं या/और साम्प्रदायिक। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि भ्रष्टाचार की मूल वजह हमारी राजनीतिक व्यवस्था का भ्रष्टाचार से वित्तीय पोषण है। जब तक राजनीतिक व्यवस्था का चरित्र नहीं बदलता तब तक भ्रष्टाचार से पीछा छुड़ाना मुश्किल है।                      

युवा नेताओं का बोलबाला है। किन्तु क्या ये सामान्य युवा हैं? 30-40 वर्ष की आयु में कौन सा सामान्य युवा किसी राष्ट्रीय-प्रादेशिक दल का नेता बन सकता है, वह भी बिना कोई जमीनी काम किए हुए? ये तथाकथित युवा नेता तो सामंती वंशवादी परम्परा की देन हैं जिन्हें पार्टी नेतृत्व विरासत में मिल गया है। लोकतंत्र में यह सवाल तो कोई पूछ ही नहीं रहा कि नेता का बेटा कैसे नेता बन गया? यह तो घोर अलोकतांत्रिक बात है। जिस दल के अन्दर लोकतंत्र नहीं है वह लोकतंत्र को कैसे मजबूत करेगा? सामंती सोच वाली राजनीति जो भ्रष्टाचार और अपराध की नींव पर टिकी है एक भ्रष्ट-आपराधिक-सामंती व्यवस्था का ही निर्माण कर सकती हैं। ऐसी राजनीति को जड़-मूल से खत्म किए बगैर हम सही लोकतंत्र का सपना साकार नहीं कर सकते।

किन्तु आज लोकतंत्र के नाम पर यही लोकतंत्र विरोधी दल व्यवस्था पर हावी हैं जो सत्ता को अपनी जागीर समझते हैं और मनमाने ढंग से काम करते हैं। यदि इन्हें कोई चुनौती देता है, जैसे अण्णा हजारे ने दिया, तो यह लोकतंत्र की दुहाई देने लगते हैं। क्या भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर, अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संसद व विधान सभाओं में पहुंचाकर, दलों को निजी कुनबों की तरह चलाते हुए ये लोकतंत्र व संसद की गरिमा को बढ़ा रहे हैं या गिरा रहे हैं?

राजनीति से मुद्दे गायब हो गए हैं इसलिए संसदीय बहस या कार्यवाही की गम्भीरता भी खत्म हो गई। क्या हमारे संविधान निर्माताओं में से किसी ने सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि विधायक सदन में बैठ कर अश्लील तस्वीरें देख रहे होंगे? क्या इस तरह की कार्यवाही से सदन की गरिमा नहीं गिरती? लेकिन फिर भी राजनीतिक दल अपने तौर तरीके बदलने को तैयार नहीं। वे उन्हीं भ्रष्ट व आपराधिक पृष्ठभूमि वालों पर निर्भर हैं जो उनकी सरकारें बनवा सकते हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण इन दलों के लिए बड़ा मुश्किल हो गया है कि वे गलत तरीके और लोगों को छोड़ सही को अपना लें। अण्णा हजारे के आंदोलन की तरह अब जनता ही उन्हें मजबूर करेगी की वे बदलें। अन्यथा जनता उन्हें अपने मताधिकार से खारिज कर देगी।


 स्वामी अग्निवेश गिरीश पाण्डेय              संदीप पाण्डेय
सामाजिक कार्यकर्ता राज्य अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी