वर्तमान चुनौतियाँ और हमारी भूमिका

आज पूरा देश 1970 के दशकवाली गंभीर परिस्थितियों से गुजर रहा है। पूरे देश के जन आन्दोलन और संगठन इन परिस्थितियों पर समग्र रूप से विचार करने और मूलभूत परिवर्तन के लिये तत्पर हुए, यह एक शुभ संकेत है। संपूर्ण क्रांति का एक पहलू सतत क्रांति है, जो हमें सिखाता है कि क्रांति का एक स्थायी ढांचा बनाने के बदले समय-समय पर समग्र चिंतन करके वर्तमान चुनौतियों और भावी लक्ष्य तय करके आगे बढ़ना चाहिये। समाज के हर क्षेत्र में जिस प्रकार संकट बढ़ रहा है और लोकशक्ति कमजोर हो रही हे, ऐसे में यह चिंतन परम आवश्यक है।

आज मंहगाई 90 प्रतिशत लोगों को छूने वाला महासंकट है, जिससे गरीब लोग और गरीब तथा अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं। कुटीर उद्योग उजड़ रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। जल, जंगल जमीन पर बड़ी- बड़ी कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है। बड़े पैमाने पर विस्थापन जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों का व्यापारीकरण हो रहा है। मुख्य रूप से सेना, अधिकारी और बड़े उद्योगों की मदद पर सरकारी पैसा खर्च हो रहा हैं देश के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर होने वाला खर्च मुख्यत: देशी-विदेशी कंपनियों की मदद के लिये किया जा रहा है। इस बजट में भी बड़े उद्योगों की मदद कम करने के बदले जनता पर बोझ बढ़ाया गया है। वित्त मंत्री जनप्रिय (पोपुलरिस्ट) कदम का कड़ाई से विरोध कर रहे हैं। सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्थिति और भी खराब है। शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने से समाज के एक बड़े वर्ग का भविष्य समाप्त हो गया है। चिकित्सा में भी समाज को बाँट दिया है। बाजारवाद के दबाव में टी0वी0, फिल्म, पत्र - पत्रिकायें आदि अपसंस्कृति उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रही है। महिला उत्पीड़न भी बढ़ रहा है और बाजारवादी शोषण भी। समाज में जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद गंभीर संकट के रूप में पनप रहा है । ये संकट दूरगामी तथा व्यापक प्रभाव वाले हैं। उपभोक्तावाद के चलते व्यापक भ्रष्टाचार फैल रहा है जो सर्वव्यापी और सत्ताधारियों का सबसे बड़ा हथियार हैं।

सबके मूल में राजनीति है। एक तो यह संसदीय लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही पर आधारित है, पर चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी के कारण 10 प्रतिशत वोट पाकर भी जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। राजनीति के कारण सम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद आदि तेजी से बढ़ रहे हैं। ऊपर से न्यायपालिका का भ्रटाचार राजनीति में गुण्डागर्दी को बढ़ावा दे रहा है। सबसे दुखद है लोकतंत्र पर पूँजीपतियों का कब्जा। आज आधे से ज्यादा सांसद करोड़पति या अरबपति हैं। ऐसे में 80 प्रतिशत गरीबों को आरक्षण की जरूरत है। चुनाव में होने वाला विशाल खर्च राजनीतिज्ञों को पूंजीपतियों की गुलामी के लिये मजबूर कर रहा है।

प्राय: सभी राजनीतिज्ञ दल पूंजीपतियों, उद्योगपतियों से पैसा लेते हैं, सिर्फ मात्रा का अंतर है। इसलिए नीतियों का अंतर समाप्त होता जा रहा है। नेता जानते है कि पैसा, गुंडा, जाति आदि के आधार पर चुनाव जीता जा सकता है। इसलिए जनता की आवाज का उन पर असर नहीं होता है। ऊपर से पैसा कमाने के लिये नेता और अधिकारी व्यापक भ्रष्टाचार में शामिल रहते हैं, जो नीचे तक जाता है। इससे जनता की आवाज दब जाती है और पैसे वाले लोग जो चाहे करवा लेते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र पर पूंजीतंत्र का संपूर्ण कब्जा हो गया है।

भारत में ही नहीं विदेशो में भी पूंजीपति अपनी इच्छा से लोकतंत्र का दुरूप्रयोग कर रहे हैं। संसदीय लोकतंत्र की जननी इग्लैण्ड में अनेक सांसदों पर पूंजीपतियों के दलाली की जाँच चल रही हैं। अमेरिका ने इराक पर हमला जनता के हित में नहीं पेट्रोल कंपनियों के दबाव में किया था। अनेक छोटे-मोटे लोकतंत्र को तो बनाना (केला जैसा) लोकतंत्र ही कहा जाता है। भारत में तो मात्र एक करोड़ में सांसद बिकते रहे हैं। ऐसे में लोकतंत्र को पूंजीपतियों के कब्जे से निकालना ही सबसे पहले जरूरी है।

पैसा, गुंडा, जातिवाद आदि में फंसे लोकतंत्र को बचाना आज 1974 से ज्यादा कठिन है। जो भी चुनाव जीतना चाहेंगे उन्हें उपरोक्त साधनों का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिये यह जरूरी है कि हम न्यायपालिका, चुनाव प्रक्रिया, सत्ता के विकेन्द्रीयकरण आदि के द्वारा लोकतंत्र में सुधार लाने की कोशिश करें। यदि चुनाव खर्च घटा दिया जाये तथा सरकार चुनाव खर्च का वहन करे तो अमीरों का शिंकजा कमजोर होगा। इसी प्रकार से अन्य सुधारों के लिये राष्ट्र व्यापी आंदोलन करने की जरूरत है। मीडिया पर भी पूंजीपतियों का नियंत्रण कमजोर करना आवश्यक है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने घरौंदो से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय संगठन का निर्माण करें जो आन्दोलनों का एक गठजोड़ मात्र न होकर कार्यकर्ता आधारित केंद्रीय संगठन हो। हम अपने संगठन में पूर्ण लोकतंत्र बनाये रखे तथा आंतरिक मतभेदों को स्वीकार करें, पर आम सहमति के आधार पर राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा करें, लेकिन किसी राजनैतिक दल का समर्थन या विरोध तथा हिंसा से हमें दूर रहना होगा। आज भी देश की जनता का विश्वास गैरदलीय आन्दोलनकारियों पर हैं।

राम शरण गिरधारी

महिला स्वास्थ्य में प्रौद्योगिकी का योगदान

  महिला स्वास्थ्य में प्रौद्योगिकी का योगदान

हाल ही में वाशिंगटन में, मात्र एवम् शिशु कल्याण से सम्बंधित, 'वूमेन डेलिवर २०१०' नमक एक विशाल सम्मलेन का आयोजन किया गया. इसमें १४६ देशों से आये ३००० से भी अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया. सम्मलेन की मुख्य विषय वस्तु थी 'वैश्विक स्तर पर माता और शिशु को मूलभूत स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करा कर उनकी मृत्यु दर को कम करना'. अन्य परिणामों के अलावा सम्मलेन में यह निष्कर्ष भी निकला कि इस प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी हमारी सहायक हो सकती है.  आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से जहां हमें महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य सूचनाये तुरंत उपलब्ध हो जाती हैं, वहीं नवीन चिकित्सा पद्धतियों के द्वारा विश्व के सबसे निर्धन देशों/व्यक्तियों को भी स्वास्थ्य सेवा संबंधी उच्चतम लाभ प्रदान किये जा सकते हैं.


आधुनिक गर्भ निरोधक उपायों के द्वारा एक तिहाई मातृक मृत्युओं को बचाया जा सकता है. सुरक्षित गर्भपात भी उन ७०,००० महिलाओं की जान बचा सकता है जो प्रति वर्ष असुरक्षित गर्भपात का शिकार होती हैं. इसके अलावा, गर्भावस्था के दौरान और शिशु जन्म के बाद प्रशिक्षित सेवा एवम् आपातकालीन प्रसव सेवा की उपलबध्ता भी अनिवार्य है.

गर्भ निरोधक गोली
९ मई, १९६० को अमेरिका में किये गए इस गोली के आविष्कार ने महिलाओं के जीवन में क्रांति ला दी. आज, पचास वर्ष बाद भी वह क्रांति जारी है. गर्भ निरोधक गोली  (एवम् गर्भ निरोध के अन्य उपाय) एक ऐसी  प्रजनन स्वास्थ्य सम्बन्धी टेक्नौलोजी है जिसके द्वारा वैश्विक स्तर पर महिलाओं को अनेक  सामाजिक, आर्थिक एवम् स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त हुई हैं. परन्तु, जहाँ एक ओर अभी तक २० करोड़ महिलायें इस गोली का लाभ उठा चुकी हैं, वहीं दूसरी ओर २१.५ करोड़ से भी अधिक महिलायें चाहते हुए भी इसके प्रयोग से वंचित हैं.

लखनऊ शहर की जानी मानी स्त्री रोग विशेषज्ञ डा. अमिता पाण्डेय के अनुसार, "अधिकतर भारतीय महिलाओं को अपनी लैंगिकता के ऊपर कोई अधिकार नहीं है. समाज के विभिन्न वर्गों की अधिकाँश महिलाओं को (भले ही वे पढ़ी लिखी एवम् आर्थिक रूप से संपन्न हो) यौन सम्बन्धी कोई भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं है - फिर चाहे वो गर्भ निरोधक साधनों का इस्तेमाल करना हो अथवा गर्भ धारण करने का निर्णय हो. ये सारे निर्णय पुरुष ही लेता है. परिणाम होता है अनचाहा गर्भाधान, जिसकी परिणिति या तो एक दु:खी मातृत्व में होती है या चिकत्सीय गर्भपात में, जो उनके जीवन को जोखिम में डाल देता है. केवल ४०% महिलायें ही गर्भ निरोधकों का प्रयोग करती हैं. इनमें से केवल १५-२०% गर्भनिरोधक गोली का प्रयोग करती हैं. इसके मुख्य कारण हैं अशिक्षा, उचित जानकारी का आभाव, तथा प्रतिदिन गोली खाना भूल जाना. गोली के मुकाबले डी.एम.पी.ए. और आई.यू.सी.डी. तकनीक अधिक प्रचलित है, क्योंकि यह एक बार ही लगाया जाता है, इसलिए इसका बेहतर अनुपालन होता है."

मोबाइल फोन
पिछले कुछ ही वर्षों में भारत और अफ्रीका के कई विकासशील देशों में इस उपकरण का प्रयोग बहुत बढ़ा है. इस सर्व व्यापी संचार माध्यम ने स्वास्थ्य सेवा सूचनाएं महिलाओं तक पहुँचाने में क्रांतिकारी योगदान दिया है. मोबाइल फ़ोन के द्वारा सुदूर क्षेत्रों में स्थित रोगियों को चिकित्सीय परामर्श देना, आपातकालीन स्थिति में परिवहन उपलब्ध कराना, एवम् स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचना एकत्र करना, सरलता से संभव हो गया है. इसके द्वारा दूर दराज़ के इलाकों में प्रसव सम्बन्धी जटिलताओं से जूझते हुए स्वास्थ्य कर्मी अस्पतालों से बराबर संपर्क बनाए रख सकते हैं, जो वास्तव में लाभप्रद सिद्ध हुआ है.

गर्भाशय के कैंसर की जांच/निवारण हेतु  उच्च तकनीकी उपकरण
विश्व भर में प्रति वर्ष २५०,००० महिलायें गर्भाशय के कैंसर के कारण मृत्यु का शिकार होती है. इनमें से अधिकाँश विकासशील देशों की हैं. यदि समय रहते इस कैंसर का निदान हो सके तो इसका पूर्ण इलाज संभव है. इस दिशा में नित नवीन प्रयास किये जा रहे हैं. इस कैंसर के वायरस के उपचार के लिए जो टीके बनाए गए हैं, उन्हें विकासशील देशों की महिलाओं को उपलब्ध कराने के प्रयास किये जा रहे हैं. एक नया डी.एन.ए. टैस्ट भी ईजाद किया गया है, जिसके द्वारा कैंसर की बहुत ही प्रारम्भिक अवस्था में इस वायरस का पता चल जाता है, और समय रहते इलाज हो जाता है. एक और उच्च तकनीकी डी.एन.ए. परीक्षण भी संभावित है, जिसका प्रयोग बहुत ही कम खर्चे में, बगैर बिजली-पानी के, निम्न संसाधनों वाले क्षेत्रों में किया जा सकता है. इसके द्वारा विकासशील देशों की महिलाओं में गर्भाशय के कैंसर की बीमारी आश्चर्यजनक रूप से कम होने की  संभावना है.

वजाइनल रिंग: एच.आई.वी. रोकथाम का नवीन उपकरण
प्रति दिन विश्व की ३००० महिलाए, एच.आई.वी.वायरस से संक्रमित होती हैं. एच.आई.वी/एड्स जननीय आयु की महिलाओं की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है. अफ्रीका में तो स्थिति और भी गंभीर है जहां एच.आई.वी. से संक्रमित रोगियों में दो तिहाई महिलायें हैं. कतिपय सांस्कृतिक एवम् जैविक कारणों से महिलाओं एवम् किशोरियों की एच.आई.वी/एड्स संक्रमण से ग्रसित होने की संभावना पुरुषों की अपेक्षा अधिक होती है. तिस पर महिलायें स्वयं को इस संक्रमण से बचा पाने में सर्वथा असमर्थ ही  हैं. इस रोग की रोकथाम के वर्त्तमान विकल्प महिलाओं के लिए अव्यवहारिक सिद्ध हुए हैं. वे न तो यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि उनका संगी कॉन्डोम इस्तेमाल या फिर उनके प्रति निष्ठावान रहे, न ही उन्हें यह तय करने का अधिकार है कि वे गर्भ धारण करना चाहती हैं अथवा नहीं.
इस दिशा में एंटी रेट्रो वायरल ड्रग्स पर आधारित माइक्रोबिसाइड्स  आशा कि एक नई किरण लेकर आई हैं. 'वूमेन डेलिवर' कॉन्फरेंस के दौरान, आई.पी.एम. नामक संस्था ने एंटी रेट्रो वायरल ड्रग्स से युक्त एक नई वजाइनल रिंग के नैदानिक परिक्षण (क्लिनिकल ट्रायल) के आरम्भ की घोषणा की है. ये ट्रायल इस नवीन पद्यति की सुरक्षा एवम् ग्राह्यता की परख करने हेतु, अफ्रीकी राष्ट्रों में किये जायेंगे. यदि ये परीक्षण सफल होते हैं, तो महिलाओं को एक ऐसा उपकरण मिल जाएगा जिसके द्वारा वे न केवल गर्भधारण करने अथवा न करने का  फैसला अपने हाथों में ले पायेंगी, वरन एच.आई.वी. संक्रमण से बचने के लिए स्वयं स्वंतत्र होकर अपने पार्टनर पर आश्रित नहीं होंगी. जॉन्सन एंड जॉन्सन कंपनी द्वारा निर्मित यह रिंग लचीले सिलिकॉन की बनी है तथा सरलता से वितरित की जा सकती है. इसलिए इसका प्रयोग विकासशील देशों के लिए उपयुक्त है.
 स्त्री जननांग में लगाने पर यह रिंग २८ दिनों की अवधि में २५ मिलीग्राम एंटी रेट्रो वायरल ड्रग (डापिविरिन) शरीर में धीरे धीरे स्त्रावित करती है.
यह वास्तव में एक क्रांतिकारी आविष्कार है, जिसमें गर्भनिरोधक रिंग का प्रयोग  एच.आई.वी. जैसी घातक बीमारी के संक्रमण से बचने के लिए भी किया जा सकता है. इस नवीन प्रयोग की सफलता, महिलाओं के जीवन में एक नाटकीय मोड़ लाएगी, क्योंकि यह उन्हें सहवास के समय एच.आई.वी. संक्रमण से बचने की दीर्घकालिक एवम् प्रभावकारी सुरक्षा प्रदान करेगी, जिसके लिए उन्हें अपने पार्टनर की मर्ज़ी पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.

यह एक कटु विडम्बना है कि जीवन की सृष्टि करने वाली नारी को रोग एवम् मृत्यु का सबसे अधिक खतरा है, विशेषकर विकासशील देशों में. उन्हें अपने लैंगिक स्वास्थ्य को नियंत्रित करने तथा स्वयं को एच.आई.वी. संक्रमण से बचाने का भी अधिकार प्राप्त नहीं है. अपने जीवन तथा मृत्यु के लिए वे पुरुष की कृपा पर ही निर्भर हैं. अत: मौलिक एवम् प्रगतिशील तकनीकी उपायों के द्वारा असंख्य  महिलाओं के जीवन में आशातीत बदलाव लाया जा सकता है. इन नवीन विधियों से स्त्रियों के स्वास्थ्य एवम् सामाजिक स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन किये जा सकते हैं.
हम सभी महिलाओं (एवम् विवेकशील पुरुषों) को इस दिशा में एकजुट होकर कार्य करना होगा.

शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस


                        

सूचना अधिकार के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये

आर.टी.आई युजर ग्रुप की राष्ट्रीय परिषद, राज्य परिषदें एवं जिला परिषदें बनाई जाये इजहार अहमद अंसारी
पिछले 60 वर्षों में देश की प्रगति एवं समृद्धि के लिये सैकड़ों कानून और हजारों योजनायें बनी और लागू की गयीं और इसमें भी कोई शक नहीं कि इन वर्षों में देश ने बड़ी प्रगति की एवं एक विश्व शक्ति के रूप में न सिर्फ ख्याति अर्जित की बल्कि अपने आप को स्थापित भी कर लिया है। लेकिन यह भी सच है कि अनेक महत्वपूर्ण योजनायें भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयीं। अच्छे-अच्छे और आदर्श कानून क्रियान्वयन के स्तर पर दिखावे की चीज बन जाएं यह लोकतन्त्र के लिये अच्छा शगुन नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा कानूनों के क्रियान्वयन के बारे में अनुश्रवण का कोई प्रभावी ढांचा विकसित नहीं किया गया और न ही प्रशासनिक सुधारों की समीक्षा के लिये उच्च स्तर पर कोई ढांचा विकसित किया गया है। जिससे प्रशासनिक सुधारों के नाम पर जो कुछ भी आज तक किया गया वह सिर्फ कानून की पुस्तकों या अखबारों के पन्नों की शोभा बनकर रह गये है। वास्तविक धरातल पर भारत के आम नागरिकों को इनका लाभ नहीं मिल पा रहा है। जो कानून और योजनाएं आम आदमी के संरक्षण एवं खुशहाली के लिए बनाये गये। आज वही उसका उपहास उड़ा रहे है।

केंद्र सरकार द्वारा अरबों-खरबों रूपये देश की गरीब जनता के लिये विभिन्न योजनाओं की मदों में खर्च किये जा रहे है। इनका क्या हश्र हो रहा है इस पर पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की टिप्पणी आप की नजर से जरूर गुजरी होगी जिसमें उन्होंने कहा था कि एक रूपये में से मात्र पंद्रह पैसे जरूरत मंदों तक पहुंच रहे हैं। गोया की पचासी भ्रष्टाचारियों की जेबों में पहुंच गये। पिछले दिनों कुछ स्थितियां जरूर बदली और पंचायती राज्य एक्ट में पब्लिक ओडिट की व्यवस्था लागू करने से कुछ लीकेज, कुछ राज्यों में जैसे कर्नाटक, आन्ध्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि- आदि में कम हुआ है। लेकिन कुछ राज्यों में लीकेज कम होने की बजाय और बढ़ गया हैं। पिछले दिनों उड़ीसा में केंद्र सरकार द्वारा विशेष ओडिट से पता चला कि मनेरेगा योजना में सौ दिनों के सापेक्ष मात्र अठठारह दिनों का काम मजदूरी ग्रामीणों को मिल सका है। कुछ यही हालत उत्तर प्रदेश की है। जहां बुन्देलखण्ड में जमीनी हकीकत का अवलोकन करने के बाद पता चला कि यहां केंद्र पोषित विभिन्न योजनाओं के एक रूपये में से सिर्फ पांच पैसे आम आदमी तक पहुंच पा रहे है। उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार का बोल-बाला तो है ही साथ ही नौकरशाही जिस प्रकार से सियासी गिरोहबंदी का शिकार हो गयी है वह बहुत ही चिंताजनक एवं निराशाजनक है। जो अफसर सियासी बंदी से बचे हैं उन में भी न ही काम करने का उत्साह है और न ही इच्छा शक्ति.....और मौजूदा सियासी हालत मे इस की आशा करना भी बेकार है। प्रशासनिक सुधारों की दिशा में जो अनेक सार्थक प्रयास केंद्र द्वारा किए गए हैं एवं इनफारमेंशन टेक्नालोजी ने जिस स्वच्छ एवं पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था का जो हथियार उपलब्ध कराया है उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र में एवं उसकी कार्यशैली में कही भी देखने को नहीं मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में - गर्वनेन्स और सूचना का अधिकार भी मजाक बन कर रह गया हैं ।

सुशासन के लिये पारदर्शिता और जवाबदेही सबसे ज्यादा जरूरी हैं। इनफारमेंशन टेक्नालोजी ई-गर्वनेन्स और सूचना का अधिकार इसके बुनियादी एवं मूल हथियार हैं। इनका सही इस्तेमाल किया जाए तो भ्रष्टाचार का भूत
रातो-रात भाग सकता है। भ्रष्ट सरकारी तंत्र इसे बखूबी समझता है और इसलिये यह तंत्र इसे लागू न होने के लिये कुचक्रों में लगा हुआ है। सूचना का अधिकार अधिनियम जब लागू हुआ तो लोकतंत्र की वास्तविक सत्ता लोक (आम जनता) के हाथ मे आती हुई साफ-साफ दिखायी देने लगी। इस कानून से देश में पहली बार नौकरशाहों को एहसास हुआ कि वह वास्तव में कुछ ही दिनों में नौकर और आम जनता शाह (मालिक) बनने वाली हैं। जनता उनसे एक-एक पैसे का हिसाब मांगेगी उनके हर फैसले का आधार और औचित्य पूछेगी। हर कार्य का निरीक्षण करेगी। ओडिट करेगी और हर अफसर को अपने (कु) कृत्यों के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा। जिससे अब तक शाही भूमिका में रहे अफसरों ने इस कानून को धाराशायी करने की एक व्यापक रणनीति बनायी और उस पर अमल करना शुरू कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप चार वर्ष बीतने के बाद भी सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 अपनी
शक्तियों के अनुरूप सुशासन, जवाबदेही स्थापित करने में नाकाम रहा है। और यदि इस ओर तुरन्त ध्यान न दिया गया तो इस कानून द्वारा भारत में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का जो सपना आम नागरिक देख रहा हैं वो चकनाचूर हो जायेगा कानून लागू होने के बाद ही इसमें बदलाव की बात की जाने लगी थी और बदलाव के हामी अधिकारियों ने लामबन्द होकर राजनैतिक सत्ता को भी अपने साथ कर लिया है। लेकिन लोकतंत्र के कुछ सजग प्रहरियों की दूरदर्शिता के कारण इस कानून को कमजोर करने वाली शक्तियों को इस समय पीछे हटना पड़ा है लेकिन वह क्तियां आज भी सक्रिय हैं। इसलिये इस कानून को बचाने और इस कानून द्वारा भारत के नागरिकों को नौकरशाही पर जो निगरानी की क्तियां प्राप्त हुई है। उन्हें और प्रभावी बनाने के लिये यह निहायत जरूरी है कि इस कानून को जिले स्तर से लेकर केन्दीय आयोग तक एक लड़ी में पिरोया जाये और एक श्रृंखलाबद्ध संस्था के रूप में स्थापित एवं विकसित किया जायें।

मजदूर वर्ग और संसदीय लोकतंत्र

दिसम्बर 17 सितंबर 1943 दिल्ली इंडियन फेडररेशन ऑफ लेबर के तत्वाधान में आयोजिन, आल इंडिया ट्रेड यूनियन वर्कर्स स्टडी कैम्प के समापन-सत्र में दिया गया बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का व्याख्यान आज की शाम आप लोगों के बीच आने और आकर आप लोगों को सम्बोधित करने के लिये मुझे आपके सचिव द्वारा जो आमंत्रित करने की कृपा की गयी उस आमंत्रण के लिये मैं अत्यन्त आभारी हूँ। दो कारणों से इस आमंत्रण को स्वीकार करने में संकोच कर रहा था। पहला कारण तो यह था कि मैं ऐसा कुछ तो बहुत थोड़ा ही कह सकता हूँ। जो सरकार को मानने के लिये बाध्य कर सके। दूसरा कारण यह था जिस ट्रेड यूनियनवाद में आप लोगों की मुख्य रूप से दिलचस्पी है उस ट्रेड यूनियनवाद के बारे में तो मैं बहुत थोड़ा ही कुछ कह सकता हूँ। मैंने आमंत्रण स्वीकार इसलियें कर लिया था क्योंकि मेरी तरफ से अस्वीकृति तो आप के सचिव को स्वीकार ही न होती। मैंने यह भी महसूस किया कि भारत में मजदूर संगठन के विषय में अपने उन विचारों को अभिव्यक्त कर सकने का संभवत: यह सबसे अच्छा अवसर है जो विचार मेरे दिमाग में सबसे ऊपर रहे हैं और मेरा ऐसा ख्याल था कि जो उन लोगों के लिये भी शायद रूचिकर हो सकते हैं जो लोग मुख्य रूप से ट्रेड यूनियनवाद में ही रूचि रखते हैं।

मानव समाज का शासन कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण बदलावों के दौर से गुजरा हैं। एक समय था जब मानव समाज के शासन ने स्वेच्छाचारी राजाओं के द्वारा निरंकुश एकतंत्र का रूप ले लिया था। एक लम्बे और रक्तपातपूर्ण संघर्ष के बाद इसके स्थान पर एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित हुई जो संसदीय लोकतंत्र के नाम से जानी जाती हैं। ऐसा महसूस किया गया था कि शासन व्यवस्था के रूप में बस यही नाम अन्तिम शब्द होगा। ऐसा विश्वाश किया गया था कि यह एक ऐसी सहस्त्राब्दी लाने वाली शासन प्रणाली होगी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता, सम्पत्ति तथा सुख प्राप्त करने का अधिकार होगा। और ऐसी आशाओं की अच्छी खासी वजहें भी थी। संसदीय लोकतंत्र में जनता की आवाज को अभिव्यक्त करने के लिए विधायिका होती है, कार्यपालिका होती है जो विधायिका की अधीनस्थ तथा विधायिका का आज्ञा पालन करनें के लिये बाध्य होती है और विधायिका तथा कार्यपालिका से भी ऊपर इन दोनों को नियंत्रित करने के लिए और इन दोंनों को अपनी निर्धारित सीमाओं में रखने के लिए न्यायपालिका होती है। संसदीय लोकतंत्र में एक लोक प्रिय सरकार-यानी जनता 'की', जनता 'द्वारा' एवं जनता 'के लिए' सरकार के सारे चिन्ह मौजूद होते हैं। इसलियें यह कुछ अचरज ही की बात है कि हालांकि इसे प्रारंभ हुये और अपनाये हुये एक शताब्दी भी नहीं बीती फिर भी इसके खिलाफ एक विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इसके खिलाफ इटली में, जर्मनी में, रूस में और स्पेन में विद्रोह हो गया और ऐसे बहुत थोडे ही देश है जहाँ संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ असंतोष न रहा हो। संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ यह अतृप्ति और असंतोष आखिर क्यों कर होना चाहिये ? यह एक विचारणीय प्रश्न हैं। भारत के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार किया जाना जितना जरूरी है उतना ही कदाचित किसी दूसरे देश में भी जरूरी न होगा। भारत संसदीय लोकतंत्र स्थापित करने की दिशा में अग्रसर होने जा रहा है। किसी को भारतवासियों से पर्याप्त साहस जुटाकर टोकने की जरूरत हैं कि संसदीय लोकतंत्र से सावधान, यह एक ऐसी सर्वश्रेष्ठ वस्तु तो नहीं है जैसी कि यह ऊपर से देखने में लगती हैं ।

संसदीय लोकतंत्र असफल क्यों हो गया ? तानाशाहों के देशो में तो यह इसलिए असफल हो गया क्योंकि यह एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसकी गतिविधियाँ अत्यन्त धीमी और मन्थर गति से चलती है। यह तीव्र कार्रवाई को विलंबित कर देती है। संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका विधायिका द्वारा अवरूद्ध न भी कर दी गयी तो न्यायपालिका द्वारा अवरूद्ध की जा सकती है। संसदीय लोकतंत्र तानाशाही को खुली छूट नहीं देता हैं। यही कारण है कि इटली, स्पेन, जर्मनी जैसे देशो में यह शासन प्रणाली एक गैर भरोसेमन्द या अविश्वासनीय संस्था बन गयी जिसने खुशी-खुशी तानाशाहियों का स्वागत किया। यदि सिर्फ तानाशाह अकेले ही संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ होते तब तो कोई बात न थी। उनके संसदीय लोकतंत्र विरोधी रवैये का स्वागत ही किया जाता क्योंकि उनका यह विरोधी रवैया इस बात का प्रमाण होता कि संसदीय लोकतंत्र तानाशाही को रोकथाम का एक कारगर औजार हो सकता हैं। लेकिन विडम्बना की बात तो यह है कि उन देशो में भी संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ एक भारी असंतोष है जहां के लोग तानाशाही के विरोधी है। संसदीय लोकतंत्र के लिए यही तो सबसे ज्यादा अफसोस की बात है। यह और भी ज्यादा अफसोसजनक बात है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र एक जगह पर जड़ और स्थिर बन कर नहीं ठिठका रहा। यह तीन दिशाओं में आगे बढ़ा। इसने अपना सफर समान मताधिकारों के रूप में राजनीतिक अधिकारों की समानता से शुरू किया। संसदीय लोकतंत्र रखने वाले ऐसे बहुत कम देश हैं। जहां वयस्क मताधिकार न हों। संसदीय लोकतंत्र राजनीतिक समानता के सिद्धान्त को सामाजिक एवं आर्थिक अवसर की समानता तक विस्तार देते हुये अग्रसर हुआ। इसने मान्यता दी कि राज्य को उन व्यापारिक निगम समूहों द्वारा पकड़ कर दूर नहीं रखा जा सकता जो अपने उदेश्यों के चरित्र में ही समाज-विरोधी होते हैं। इस सबके बाद भी संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ उन देशो तक में काफी असंतोष है जो लोकतंत्र के हामी हैं। स्पष्ट ही है कि ऐसे देशो में असंतोष के कारण उन कारणों से तो भिन्न ही होने चाहिये जो कारण तानाशाहों देशो द्वारा बताये-ठहराये जाते हैं। बहुत ज्यादा विस्तार में जाने का समय तो नहीं है लेकिन सामान्य भाषा में यही कहा जा सकता है कि यह आम जनों को स्वतंत्रता, सम्पत्ति और सुख प्राप्त करने के अधिकार प्रदान कराने का भरोसा दिलाने में विफल रहा।अगर यह सच है तो उन कारणों को जानना महत्वपूर्ण है जिन कारणों ने यह विफलता पैदा की है। इस विफलता के कारणों को या तो गलत विचार धाराओं में या फिर ढाँचागत गलत संरचना अथवा दोनों मे ढूँढ़ा जा सकता हैं। और मेरे ख्याल से तो वे कारण दोनों में निहित हैं। अगर उन गलत विचारधाराओं की बात करूं जो संसदीय लोकतंत्र की विफलता के लिये जिम्मेदार रही हैं तो मुझे कोई सन्देह नहीं हैं कि “ संविदा की स्वतंत्रता '' (लिबर्टी ऑफ़ कोंट्राक्ट) (यानी द्विपक्षीय सौदेबाजी का अनुबन्ध करने की स्वतंत्रता) का विचार उन त्रुटिपूर्ण विचारधाराओं में से एक हैं। संविदा का विचार पवित्रीकृत हो गया और उसे स्वतंत्रता के नाम पर जायज ठहराया गया। संसदीय लोकतंत्र ने आर्थिक विषमताओं पर कोई ध्यान ही नहीं दिया और संविदा की स्वतंत्रता का संविदा के पक्षों पर आये नतीजों का आंकलन करने की परवाह इस तथ्य के बावजूद भी नहीं की कि वे पक्ष अपनी सौदेबाजी या मोल-तोल करने की व्यक्ति के मामले में परस्पर असमान थे। यदि संविदा की स्वतंत्रता ने सबल को निर्बल पर ठगी और धोखाधड़ी करने का अवसर दे दिया तब भी संसदीय लोकतंत्र ने उस की परवाह नहीं की । उसी का नतीजा है कि संसदीय लोकतंत्र स्पष्ट रूप से स्वतंत्रता के मुखर हिमायती के रूप में डटा दिख रहा है और यह गरीब, पद-दलित और अधिकार-वंचित वर्ग की बेइंसाफियों में लगातार इजाफा ही करता रहा ।

दूसरी गलत विचार धारा जिसने संसदीय लोकतंत्र को दूषित-विकृत कर दिया है वह है इस अहसास की विफलता कि जहां कोई सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र ही न हो वहां तो राजनैतिक लोकतंत्र सफल हो ही नहीं सकता। कुछ लोग इस बात पर प्रश्न उठा सकते हैं। जो लोग इस पर प्रश्न उछालनें में लगे रहते है मैं उन लोगों से एक प्रति-प्रश्न करना चाहता हूँ। और वह प्रति-प्रश्न यह है कि संसदीय लोकतंत्र इटली, जर्मनी और रूस जैसे देशो में आखिर इतनी आसानी से क्यों खत्म हो गया ? यह इंग्लैण्ड और अमेरिका में उतनी आसानी से खत्म क्यों नहीं हुआ ? मेरे ख्याल से इसका सिर्फ एक ही उत्तर है और वह उत्तर यह है कि बाद के गिनायें देशो में पूर्वोल्लिखित देशो की तुलना में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र ज्यादा मात्रा में मौजूद था। राजनीतिक लोकतंत्र के लिये सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र ऊतक और तन्तु जैसे ताना-बाना होते हैं। ये ऊतक और तन्तु जितने ज्यादा मजबूत होंगे, लोकतन्त्र के श रीर की मजबूती उतनी ही ज्यादा होगी। लोकतन्त्र तो समानता का ही दूसरा नाम है। संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता के लिए तो एक जुनून की भावना विकसित कर दी लेकिन इसने समानता के साथ करीबी रिश्ता तो दरकिनार, कभी भी साधारण परिचय तक का रिश्ता नहीं रखा। यह समानता के महत्व को महसूस करने में निहायत विफल रहा और इसने स्वतंत्रता तथा समानता के बीच एक सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश तक नही की, जिसका नतीजा है कि स्वतंत्रता ने समानता को निगल लिया और लोकतंत्र को महज एक घृणित नाम और मखौल मात्र बना डाला।

जल ही जीवन है। परन्तु सबके लिये।

जल ही जीवन है। परन्तु सबके लिये। इसमें अमीर गरीब का भेदभाव बर्दाशत नहीं किया जा सकता।


हरी उपभोगतावादी संस्कृति में यह आम बात है कि कहीं 'वाटर पार्क' में मस्ती चल रही है लोगों कारों को भी पानी की मोटी धार से धो रहे हैं। और कहीं लोग नगरमहापालिका के टैंकरों पर पानी के डिब्बे लिये लाइन लगाकार खड़े हैं। यह व्यक्ति के गरिमापूर्ण रूप से जीवन जीने के अधिकार पर कुठाराघात है जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा भारत भूमि के सभी निवासियों को प्राप्त है।

'रिवर्स ऑस्मोसिस' जैसी जल को साफ करने वाली तकनीक के कारण यदि दूषित पानी को बहने दिया जाए, जो अधिकतर घरों और कार्यालयों में होता है, तो यह जल की निर्ममतापूर्ण बर्बादी ही कही जाएगी. दस्तावेजों का कहना है कि आर.ओ. तकनीक से शुद्ध साफ़ पानी तो निकलता ही है पर जो पानी व्यर्थ कचरे की तरह निकल रहा है, उसकी गुणात्मकता नलके के पानी जितनी ही है, और उसको दैनिक जीवन में जल-पूर्ती के लिए इस्तेमाल करना चाहिए. क्या यह व्यावहारिक है और क्या ऐसा अधिकतर घरों और कार्यालयों में जहां आर.ओ. तकनीक से पानी साफ़ किया जा रहा है, वहाँ पर हो पा रहा है? मेरे निजी अनुभव के अनुसार, इस तकनीक से 1 लीटर पानी साफ करने में लगभग 4 लीटर पानी बर्बाद होता है।

अब इस उपकरण को बेचने वाली कंपनियाँ कहेंगी कि यह पानी तो इस उत्पाद को उपयोग करने वाले बहा रहे है। क्या आज की व्यस्त हरी जिन्दगी में व्यक्ति के लिये यह संभव है कि वो एक लीटर पानी के लिये 4 लीटर पानी बाल्टी में भरे और उसका सदुपयोग करे। ऐसा करना वास्तविक जिन्दगी में तो असंभव सा ही है असलियत में होता यह है कि (आर. ) रिवर्स समोसिस उत्पाद का पानी निष्कासन करने वाला पाइप रसोईघर के सिंक में डाल दिया जाता है और पानी बहता रहता है। यह आर. उत्पाद विभिन्न कम्पनियों के कार्यालय में भी लग रहा है जहां तो इस बहते हुए पानी का सददुपोग करना और भी मुश्किल है। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या सामाजिक अपराधी बनकर अति शुद्ध जल पीने को तैयार है? और अगर नहीं तो क्या ऐसा कोई भी जल शुद्धीकरण का उत्पाद न लें जो पर्यावरण मित्र न हो। हम लखनऊ के प्रशासन, लखनऊ के महापौर (मेयर) तथा हेमामालिनी जी को भी इस प्रकार का ज्ञापन देगें।

हमारी माँगे है:-
1. वे उपकरण भी जिन्हें गुणवत्ता मानक आई.एस. .001 प्राप्त है,पर्यावरण वचनबद्धता संबंधी 14001 प्रमाणन, जल उपयोग से संबन्धित सभी उपकरणों को प्राप्त करना अनिवार्य हो।
. यू . पी. ग्राउंड वाटर कांसेर्वेशेन्न प्रोटेक्शन एंड डेवेलोपमेंट(मैनेजमेंट कण्ट्रोल एंड रेगुलेशन ) बिल २०१० में सबमर्सिबिल पप्स जैसे घरेलू उपकरणों को निगरानी में रखा गया है, जल शुद्धिकरण से संबंन्धित सभी उपकरणों को निगरानी में रखा जाए।
.ऐसे उत्पादों के ब्रोशर्स,पैंप्लेटस पर उनकी अच्छाइयों के साथ-साथ यह भी लिखा हो कि वह निम्नलिखित कारणों से पर्यावरण मित्र नहीं है। अर्थात उत्पाद की पूरी जानकारी उपभोगता को लिखित रूप में दी जाए।


वसु शेन मिश्रा 

जीवन अपनाइए, तम्बाकू छोडिये

                                        जीवन अपनाइए, तम्बाकू छोडिये

 विश्व स्वास्थ्य संगठन इस वर्ष विश्व तम्बाकू निषेध दिवस २०१०, 'जेंडर एवं तम्बाकू: महिलाओं को निशाने पर रख कर होने वाली तम्बाकू मार्केटिंग' के विषय वस्तु पर मना रहा है. इसका मुख्य उद्देश्य है महिलाओं एवं किशोरियों पर केन्द्रित तम्बाकू की दुकानदारी के कुप्रभावों की ओर सबका ध्यान आकर्षित करना. महिलाओं में तम्बाकू उपभोग के संक्रमण को रोकना राष्ट्र स्वास्थ्य के हित में अति आवश्यक है.

इस विषय पर हाल ही में हांगकांग निवासी एवं वर्ल्ड लंग फ़ौंडेशन की वरिष्ठ सलाहकार प्रोफ़ेसर जूडिथ लोंगस्टाफ मैकाय से मेरी बातचीत हुई. प्रोफ़ेसर जूडिथ को उनके तम्बाकू उन्मूलन प्रयासों के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों से अलंकृत किया गया है. टाइम मैगजीन के अनुसार, तम्बाकू उद्योग उनको विश्व के तीन सबसे खतरनाक व्यक्तियों में से एक मानता रहा है. उनके अनुसार इस वर्ष तम्बाकू निषेध दिवस कि विषय वस्तु अत्यंत सामयिक है, क्योंकि महिलायें सभी स्वास्थ्य योजनाओं का अभिन्न अंग हैं. जूडिथ ने इस बात पर खेद प्रकट किया कि वर्षों से तम्बाकू उद्योग महिलाओं एवं युवाओं को अपने सुअवसरों का लक्ष्य बना रहा है, खास तौर से अब, जब उसे तम्बाकू सेवन के लिए नए उपभोक्ताओं की तलाश है, क्योंकि उसके वर्तमान उपभोक्ताओं में से पचास प्रतिशत तम्बाकू जनित रोगों का शिकार होकर असामयिक मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे. विश्व के एक अरब धूम्रपानियों में २०% महिलायें ही हैं. किशोरियों में तम्बाकू का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन कि एक नवीन रिपोर्ट के अनुसार, तम्बाकू विज्ञापन कम उम्र कि लड़कियों को ही अपने दुकानदारी हथकंडों  निशाना बना रहे हैं. युवाओं में धूम्रपान कि दर तथा तम्बाकू कंपनियों द्वारा अपने बिक्री प्रचार पर किये गए व्यय में परस्पर गहरा सम्बन्ध है.

    उन्होंने बताया कि वेस्ट पेसिफिक रीजन में केवल ५% महिलायें धूम्रपान करती हैं, जबकि इस क्षेत्र के पुरुषों में यह औसत ६०% है. २५ साल पहले ऐसा पूर्वानुमान था कि एशिया महाद्वीप में  सिगरेट पीने वाली महिलाओं कि संख्या में वृद्धि अवश्याम्भी है. इस अनुमान के मुख्य कारण थे तम्बाकू उद्योग द्वारा महिला केन्द्रित आक्रामक विज्ञापन प्रचार; महिलाओं की बढ़ती हुई आर्थिक स्वतंत्रता; एवं अभिभावकों/शिक्षकों/ माता पिता का उन पर ढीला होता हुआ अंकुश.
    परन्तु सौभाग्य से ऐसा नहीं हुआ. फिर भी हमें वर्त्तमान में धूम्रपानी महिलाओं की कम संख्या को लेकर काफी सजग रहने की आवश्यकता है. क्योंकि स्थिति कभी भी विस्फोटक हो सकती है. कुछ नवीन अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि कि है कि नवयुवतियों में सिगरेट पीने की ललक बढ़ रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार १५१ देशों से एकत्रित आंकड़े बताते हैं कि ७% किशोरियां सिगरेट पीती हैं, जबकि किशोरों में यह प्रतिशत १२% है. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सिगरेट कम्पनियां नए नए तरीकों से युवा लड़कियों को हल्की/ मेन्थाल युक्त/निकोटिन रहित सिगरेटों का लालच देकर लुभा  रही हैं. अपने हांगकांग प्रवास में मैंने पहली बार नवयुवतियों को सडकों पर स्लिम सिगरेट के कश लगाते देखा. हालाँकि हांगकांग में, सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान निषेधी कठोर नियम हैं, तथा महिलाओं में सिगरेट पीने का प्रतिशत ४% है. हांगकांग में  १९८७ से सभी प्रकार की खाने वाली तम्बाकू के आयात/ उत्पादन/ विक्रय पर भी पूर्ण निषेध है.

    भारत में, कतिपय सामाजिक बंधनों के कारण, सामान्यत: महिलायें खुले आम धूम्रपान कम ही करती हैं. परन्तु पार्टियों में अथवा दोस्तों के साथ छुप कर पीने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता. भारत में सिगरेट पीने वाली महिलाओं का प्रतिशत, अन्य देशों के मुकाबले भले ही कम हो, परन्तु किसी न किसी प्रकार की खाने वाली तम्बाकू का प्रयोग ११% से भी अधिक महिलायें करती हैं. गुटखा, मावा, गुल, मिश्री, पान मसाला, आदि का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है.हालाँकि तम्बाकू कम्पनियाँ  इन सभी को मुख सुवास के रूप में दर्शाती हैं, परन्तु ये सिगरेट के समान ही  अत्यधिक व्यसनकारी एवं हानिकारक हैं. पान मसाला एवं गुटखा सेवन महिलाओं समेत सभी वर्ग एवं आयु के लोगों में  अत्यधिक लोकप्रिय है. बच्चों  से लेकर बूढों तक, अमीर से लेकर गरीब तक, सभी का यह प्रिय पदार्थ है, और स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक भी. डॉक्टरों के अनुसार, गुटखा सेवन के कारण भारत में मुख के कैंसर के रोगियों की संख्या लगातार बढती जा रही है.

    आजकल, दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों हुक्का पीने का प्रचलन भी जोर पकड़ रहा है, विशेषकर युवा वर्ग में. हुक्का बार अथवा लाउंज में जा कर अनेक प्रकार के मसालेदार सुगन्धित हुक्कों के कश खींचना आधुनिकता एवं विलासिता का प्रतीक माना जाने लगा है. स्कूली बच्चे भी इस सनक के शिकार हैं. हुक्का पीने वालों का मानना है कि यह हानिकारक नहीं है क्योंकि इसमें तम्बाकू पानी में घुल जाने के कारण उसमें निकोटिन की मात्रा बहुत ही कम होती है. परन्तु यह धारणा बिलकुल गलत है. हुक्का पीने से शरीर में कार्बन मोनोक्साईड नामक ज़हरीली गैस की मात्रा का स्तर बहुत बढ़ जाता है जो श्वास सम्बन्धी एवं अन्य घातक बीमारियों को जन्म देता है.

    डा. जूडिथ इस बात से भी चिंतित हैं कि महिलायें न केवल तम्बाकू कंपनियों के लुभावने परन्तु भ्रामक विज्ञापनों की शिकार हैं, वे अपरोक्ष धूम्रपान से भी त्रसित हैं. एक रूढ़ीवादी समाज का अंग होने के कारण, वे (विशेषकर निम्न/अशिक्षित वर्ग की महिलायें) प्राय: परिवार के सिगरेट प्रेमी सदस्यों को धूम्रपान करने से रोक नहीं पाती हैं. इस प्रकार वे स्वयं सिगरेट/तम्बाकू उपभोग न करने पर भी सेकण्ड हैण्ड स्मोक के खतरों का शिकार होती हैं.

    अत: यह नितांत आवश्यक है कि महिलायों एवं किशोरियों के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु, उनमें सिगरेट एवं अन्य प्रकार के तम्बाकू उपभोग की रोकथाम के लिए उचित कदम उठाये जाएँ. इसके लिए स्कूलों में ऐसे जागरूकता अभियान चलाये जाने चाहिए जो अन्य सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों से जुड़े हुए हों. तम्बाकू निषेध 'एकल स्कूल' कार्यक्रम सफल नहीं हो सकते. यह देखा गया है कि बच्चों को सिगरेट/ तम्बाकू से होने वाले कैंसर आदि रोगों का भय दिखाना कारगर नहीं होता है. यह बात तो वे जानते ही हैं. आवश्यकता है उन्हें सिगरेट कंपनियों द्वारा पोषित भ्रामक विज्ञापनों के जाल से बचाने की. उन्हें यह बताना आवश्यक है कि सिगरेट पीना 'कूल' या 'ट्रेंडी' नही है, वरन एक भयानक आदत है. सिगरेट कम्पनियाँ अपने विज्ञापनों के ज़रिये युवाओं को यह सन्देश देती हैं कि सिगरेट पीना मुक्ति/आज़ादी का द्योतक है, जबकि वास्तव में यह गुलामी की निशानी है. ये कम्पनियां लाखों करोड़ों रुपये खर्च करके युवाओं को कठपुतली की तरह अपने इशारों पर नचाने में लगी हुई हैं. हम सभी को इसकी काट करनी होगी. बच्चों को यह बताना ज़रूरी है कि वास्तविक स्वंत्रतता सिगरेट पीने में नहीं, वरन जीवन में सही विकल्प चुनने में है; वास्तविक शौर्य सुट्टा लगाने में नहीं बल्कि अपनी दोस्ती बरक़रार रखते हुए, दोस्तों की सिगरेट पीने की गलत सलाह को न मानने में है.

    तम्बाकू निषेध कार्यक्रम तभी सफल हो सकते हैं जब तम्बाकू पदार्थों का क्रय मूल्य इतना बढ़ा दिया जाय कि वो आम आदमी, विशेषकर अवयस्कों, की पँहुच से बाहर हो जाय. इसके अलावा, सरकारी स्तर पर न केवल तम्बाकू विरोधी कड़े क़ानून बनाना आवश्यक है, वरन उनका कठोरता से परिपालन करना भी. भारत सरकार ने कानून तो बहुत अच्छे बनाए हैं, परन्तु उनका कार्यान्वन नहीं हो रहा है. उदाहरण के लिए अवयस्क बच्चों को (एवं उनके द्वारा) तम्बाकू पदार्थ बेचना कानूनन अपराध है. परन्तु इसका खुले आम उल्लंघन हो रहा है. इससे बच्चों के मन पर भी यही प्रभाव पड़ता है कि क़ानून की अवमानना करना कोई बुरी बात नहीं है.

    हम सभी महिलाओं को तम्बाकू के विरुद्ध छिड़े इस युद्ध में सम्मिलित होकर तम्बाकू उद्योग के घातक सम्मोहनों का बहिष्कार करना होगा. हमें न केवल अपनी भावी पीढ़ी को सिगरेट कंपनियों के विज्ञापनी जाल से बचाना होगा, वरन स्वयं भी तम्बाकू पदार्थों का बहिष्कार करके उनके समक्ष अनुकरणीय उदाहरण रखने होंगे. केवल उपदेश देने से काम नहीं चलेगा.
   

शोभा शुक्ला





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कोआर्पोरेट भूमंडलीकरण के तहत वर्तमान विनाशकारी विकास : हमारे संकटों का मूल कारण

1-विकास क्या है ? विकास विश्व युद्ध के बाद की घटना हैं ।

यह शब्द साम्राज्यवादी ताकतों का गढ़ा हुआ है और 1940 के दशक में अमरीकी नीति दस्तावेजों में प्रकट होता है। अमरीका और इगंलेंड के संरक्षण में बनी ब्रैटन वुड्स संस्थाएँ खास तौर से पुनर्निमाण और विकास की अंर्तराष्ट्रीय बैंक, जो सामान्य बोलचाल में विश्व बैंक कहलाती हैं, विकास की अवधारणा की अभिभावक परी बनी। 1949 में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने दुनिया को दो भागो में बाँट दिया विकसित दुनिया और अविकसित दुनिया । भारत जैसे देश, जो उपनिवेश शासन में रहे थे, अविकसित देशो की टोकरी में डाल दिये गये और सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह हैं कि हमारे देश ने यह मंजूर कर लिया ।

विकास भारतीय संकल्पना नहीं है। यह शब्द गाँधी जी, टैगोर या डा अम्बेडकर की कृतियों में नहीं मिलता। भारत के संविधान में यह मात्र दो स्थानो में आया हैं। पूर्व विश्व युद्ध युग में भूमंडलीकरण के पहले चरण में जिसे पश्चिम की औद्योगिक क्रांति ने पुष्ट किया था, राज्य उपनिवेशवाद को मान्यता देने के लिये सभ्यकरण या आधुनिकीकरण जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था । ठीक उसी तरह उत्तर विश्व युद्ध में वर्तमान भूमंडलीकरण कें वर्तमान चरण में जिसे सूचना तकनीकि क्रान्ति ने पुष्ट किया है, कोआर्पोरेट उपनिवेशवाद को मान्यता देने के लिए विकास शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

२- विकास का पैमाना वृद्धि जीडीपी इस पश्चिम माडल दल में विकास को वृद्धि दर में मापा जाता हैं, वृद्धि दर ऊंचा होगी तो विकास भी ऊंचा होगा। इसे प्राप्त करने के लिए पिछले 6 दशकों में सरकारों ने औद्योगिककरण को बढ़ावा दिया है। यह हुआ है खेती की कीमत पर १६० साल पहले, जीडीपी में खेती का योगदान लगभग 51 प्रतिशत था लेकिन इस अवधि में यह योगदान लगातार घटता गया हैं और आजकल यह मात्र लगभग 14 प्रतित है। ऐसा तब है जब ६५ से 70 प्रतित आबादी अपने जीवन के लिए खेती पर निर्भर है। विकास के लिए परजीवी वृद्धि का पश्चिमी माडल केवल पूंजी सघन है बल्कि ऊर्जा -जल-संसाधन सघन भी है। इस विकास का जिम्मा बड़े-बड़े कुछ सरकारी पर ज्यादातर निजी देशी -विदेशी कारपोरेशन को सौपा गया और प्रक्रिया में आमजन हा सही ये पर डाल दिये गये है। इसका नतीजा हुआ है कि सम्पत्ति कुछ हाथों में केन्दित हो गयी है पूंजी का पलायन हो रहा हैं और पारिस्थितिकीय विनाश, संसाधनों भूमि, जल, जंगल, खनिजों का दोहन, गैर बराबरी, गरीबी भुखमरी और भ्रष्टाचार फैल रहे है। एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही हैं और दूसरी तरफ देश की ७७ फीसदी आबादी 20 रू0 या उससे भी कम पर रोज गुजर कर रही है,हर चौथा भारतीय भूखा हैं, हर दूसरा बच्चा कुपोषित है हमारे संसाधन और सम्पति बड़ी कम्पनियों, मल्टीनेशनलों, बैकों, फर्मो के हाथ में जा रही हैं

यह पूरी दुनिया में सिद्ध हो गया है कि किसी देश के लोगो की खुशहाली से जी डी पी का कोई रिश्ता नहीं हैं । यूएनडीपी की ताजी रिर्पाट बताती है कि क्यूबा जैसे दे का जीडीपी नीचा हैं परन्तु उनका मानव विकास सूचकांक बहुत ऊँचा। और ऐसे भी देश है जैसे अमरिका और मैक्सीको जिनका जीडीपी तो ऊँचा है पर मानव विकास सूचकांक नीचा है। ऐसे भी देश है जिनका जीडीपी ऊँचा है और गैरबराबरी भी ज्यादा है।इस विकास के मॉडल का सबसे खराब नतीजा यह है कि उसने आवयकताओं को माँग में बदल दिया है और मांगो की पूर्ति के लिए एक दबदबे वाला बाजार खड़ा हो गया है। विश्व बैंक मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन डब्लूटीओ के दबाव में मुक्त व्यापार के नाम पर हमारे बाजार खुलवा लिए हैं।सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करते हुए आक्रमक विज्ञापनों से आमजन के दिमाग पर काबू पा लिया गया है और खतरे की रफ्तार से उपभोक्तवादी संस्कृति फैल रही है।और इस लूट का सबसे चिन्ताजनक पक्ष यह हैं कि सरकार भीमकाय कॉरपोरेशनो की एजेंट बन गयी है।राज्य और बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनो के बीच की इस अपवित्र सन्धि को छिपाने के लिए दो मिथक पैदा किये गये। पहला मिथक है कि कॉरपोरेशनो के पास पूंजी होती है जो विकास के लिए नितान्त जरूरी है। राज्य कहता है कि उसके पास पर्याप्त धन नही है। इसलिए राज्य सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेच रहा है और सार्वजनिक निजी भागीदारी में लगा हुआ हैं।राज्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियो को तमाम रियायतें दे रहा है और विदेशो मे जमा काले धन को वापस नहीं ला रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि देश से बहुत ज्यादा धन बाहर जा रहा है।दूसरा मिथक यह है कि बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनो और बड़ी कम्पनिया अपनी प्रौद्योगिकी और प्रबन्धन लाती है। असलियत यह है कि भारत न तो प्रौद्योगिकी और न प्रबन्धन में ही पीछे है। पश्चिमी प्रौद्योगिकी और प्रबन्धन का मिथक तो पिछले 3 वर्षों के दौरान बुरी तरह लड़खड़ा गया है, क्योकि मन्दी के चलते बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैली है और वित्तीय व आर्थिक संकट गहराता गया है। उनके ढाँचें में व्याप्त भष्टाचार भी उजागर हुआ है ।

एक नये विकास मॉडल को खड़ा किया जाना है -
राज्य एवं सैन्य सत्ता
हथियार उद्योग
बड़े उद्योग
मौजदा पश्चमी मॉडल को निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है इस मॉडल की धुरी बड़ा उद्योग है जो हथियार उद्योग दवारा समर्थित है और जिसकी सैन्य शक्ति सुरक्षा करती है।
हमें इसे अस्वीकार करना होगा और उसके स्थान पर एक नया मॉडल खड़ा करना पड़ेगा, जिसकी स्वरूप इस प्रकार होगा :
जन व्यक्ति
छोटे उद्योग
कृषि
इस मॉडल मे कृषि केन्द्र में होगी । इसकी तत्काल आवयकता न सिर्फ भारत वर्ष लिये है, बल्कि समूची दुनिया के लिये है जहाँ 1 अरब लोग भूखे सोते हैं।श्रम सघन छोटे उद्योगों द्वारा कृषि समर्थित रहेगी । केवल एक यही रास्ता है जिसके द्वारा बेकारी का हल ढूँढा जा सकता

संसाधनों पर लोगों के समुदायों का मालिकाना हक कैसे कायम होगा
इस वैकल्पिक मॉडल को खड़ा करने के लिये जो समुचित तकनीक और लोगों की भागीदारी के साथ श्रम सघन है और जिसमें संसाधनों पर समुदायों की मिल्कियत रहेगी, तमाम आन्दोलन और प्रयोग चल रहे है ताकि सामाजिक -आर्थिक स्तर पर लोगों की भागीदारी वाले लोकतन्त्र की स्थापना की जा सके, जिसमें निर्णय लेने के सारे हक नौकर शाहों और बहुराष्ट्रीय कारपोरेशनों के हाथो से छीने जा सकें और उन्हें समुदायों को सौंपा जा सके । इस दिशा में एक मध्यवर्ती कदम हो सकता है-प्रोडयूसर्स कम्पनीज एक्ट 2002 के तहत ऐसी प्रोडयूसर्स कम्पनियों की स्थापना जिसमें कॉरपोरेटिव के सारे गुण होंगे। ये कम्पनिया, बगैर राज्य के हस्तक्षेप के भीमकाय निजी कम्पनियों के हमले को कानूनी तौर पर रोकने में कारगर हथियार बनेंगी। यह दो तरफा मुहिम है-संघर्ष और निर्माण।आर्थिक और राजनीतिक समाज के हर स्तर पर निर्णय लेने की व्यवस्था के विकेंद्रीकरण के लिये सामूहिक रूप में लड़ाई लड़ी जानी है। एक विकल्प को खड़ा करने की लड़ाई हमें साहस के साथ लड़नी होगी ।

गैर बराबरी
आधुनिक विकास मॉडल के तीन मुख्य असर हुए हैं:1.गैर बराबरी ,गरीबी, भूखमरी 2.सामाजिक विघटन और विस्थापन 3. पर्यावरणीय विनाश सोवियत यूनियन की समाप्ति के बाद,पूरी दुनिया में समाजवादी आन्दोलन कमजोर हुआ और अब पूंजीवाद पूरे विकास मॉडल पर छाया हुआ है। सम्पत्ति और संसाधन कुछ हाथों में सिमटते जा रहे है और बहुसंख्यक आबादी का सीमान्तीकरण हो गया है। इसके परिणाम स्वरूप राष्ट्रों के बीच और राष्ट्रों के अन्दर गैर बराबरी बढ़ रही है । यह इस तथ्य से जग जाहिर है कि दुनिया भर में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और लगभग 1 अरब लोग प्रतिदिन भूखे सोते है।
रिसन का सिद्धान्त असफल हो गया :
विकास के पूंजीवादी मॉडल में सम्पत्ति और संसाधनों का कुछ हाथों में इकटठा हो जाने को यह तर्क देकर न्यायोचित ठहराया जाता है जिसके मुताबिक यदि सम्पत्ति और संसाधन उन व्यक्तियों या कम्पनियों के हाथ में एकत्र हो जाते है जो दक्ष है जिसके पास और तकनीक हैं। तथा नवीन प्रबन्धन है तब सकल घरेलू उत्पाद,जिसे विकास नापने का पैमाना माना जाता है,बढ़ेगा। राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ने से समाज के सबसे निचले तबके को भी कुछ न कुछ संपत्ति रिस कर पहुँचगी और गरीबी,भूखमरी कम होगी । सिद्धान्त में यह काफी प्रभावशाली बात दिखायी पड़ती है। परन्तु वास्तविकता में यह बहुत ही भ्रामक है जिसका अब पूरी तरह खुलासा हो चुका है। 1970 में,पर खर्च किये गये 100 डालर में से नीचे रिस का २-2 डालर पहुँचता था, परन्तु परिस्थिति में और गिरावट आयी और 1990 में यह रिसन केवल 0।60 डालर ही रह गयी।
ऊंची जी डी पी वृद्धि दर का गैर बराबरी घटने से कोई लेना देना नहीं है-
एक राष्ट्र में गैर बराबरी अनुपात वह अनुपात है जो उसके ऊपरी तबके के 10 प्रतिशत लोगों की आमदनी और निचले तबके के 10 प्रतित की आमदनी के बीच में है। 5 अक्टूबर 2009 को प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र विकास कार्य क्रम की रिपोर्ट बताती है कि किसी देश का जीडीपी का उस देश की गैर बराबरी अनुपात के साथ कोई प्रतिलोमानुपात नहीं है। सामान्यतया यह उम्मीद की जाती है कि यदि किसी देश का जीडीपी ऊंचा है तब वहाँ कम गैर बराबरी होनी चाहिये । परन्तु यह अनिवार्य रूप से सत्य नहीं है। निम्न सूची से यह सिद्ध होता है-भारत के मामले में, सरकार की बहाने बाजी कि ऊंची जीडीपी वृद्धि दर 9 या10 प्रतिशत तक,गैर बराबरी घटा देगी एक गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य है। भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपये या 20 से कम रूपये प्रतिदिन पर गुजर बसर कर रही है।(अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट) यह तस्वीर है किसी देश के अन्दर गरीबी की। और दो देशो के बीच तो परिस्थिति और भी खराब है। जी-७ देशो की कुल आबादी दुनिया की आबादी की महज 15 प्रतित है परन्तु ये सात दे दुनिया के लगभग 85 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं ।
गैर बराबरी के कारण
देश में फैली गैर बराबरी के चार कारण है। पहला ऐतिहासिक कारण हैं। हमेशा जाति व्यवस्था विरासत में मिली है जिसमे एक बड़े हिस्से (दलित ,आदिवासियों)-को सम्पत्ति और संसाधनों से वंचित रखा गया यद्यपि पिछले 60 वर्षों में इस दिशा में कुछ प्रगति हुई है। परन्तु फिर भी स्थितियाँ काफी परेशान करने वाली है। दूसरा कारण है विकास का पूँजीवादी ढाँचा जो उद्योगों पर जोर डालता है कृषि की कीमत पर। भूमण्डलीकरण ,उदारीकरण और निजीकरण के साथ काफी बड़ी संख्या में लोगों को नौकरियों से निकाल दिया गया है,बेरोजगारी,गरीबी और परिणाम स्वरूप गैर बराबरी बढ़ रही है। तीसरा बड़ा कारण है लोगों के हाथ में संसाधन नहीं बचे है वास्तव में उन पर बड़ी कॉरपोशन्स का कब्जा हो गया हैं।सच्चाई तो यह है कि आधुनिक विकास के ढाँचे में ही गैर बराबरी अन्तर्निहीत है। चौथा कारण सटटेबाजी के कारण उत्पन्न वित्तीय अस्थिरता है। अन्त में शिक्षा व्यवस्था जो गैर बराबरी पैदा करती है, खास कर मानसिक गैर बराबरी। विभिन्न किस्म की शिक्षायें जो बच्चों के दिमाग में ठूंस-ठूंस कर भरी जा रही है वह उनमें सामाजिक गैरबराबरी की तस्वीर बैठा देती है जो उनके बाद के जीवन में भी चलती रहती है यदि कॉमन स्कूल सिस्टम होता परिस्थितियाँ अलग होती ।
पाँचवा कारण है कि सरकार संविधान के विपरीत काम कर रही है। हमारा संविधान भारत को समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। परन्तु सरकार की सभी नीतियां इस समाजवाद को नकार देती है,जैसे निजी पूंजी और कॉरपोरेशन (घरेलू और विदेशी) के साथ गठजोड़ की नीतियां और उन्हें सभी तरह छूट देना टैक्स , टैरिफ, एक्साइज आदि उन्हें संसाधनों-जमीन, जल, खदान की मालकियत लगभग मुफ्त में सौंप देना, सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों में बेतहाशा करना ५ वां और ६ वां वेतन आयोग द्वारा संगठित तथा असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बीच भारी गैर बराबरी पैदा कर देना । ग्रामीण क्षेत्रों में भू- सुधार के कार्यक्रमों को केवल रोका ही नहीं गया वरन उन्हें अब उल्टी दिशा में चलाया जा रहा हैं। क्या किया जाय। कुछ कार्यक्रम सकते हैं। जो गैर बराबरी समाप्त करने या कम से कम करने में सहायक हो सकती हैं।
१. विरोधी प्रकृति विरोधी वर्तमान विकास मॉडल के खिलाफ जन आन्दोलन संगठित करना । कृषि को तथा लद्यु उद्योगों के जाल को केन्द्र में रख कर नया विकास मॉडल विकसित करके इसके स्थान पर लाना होगा।
२. लोगों के समुदायों की प्रोडयूसर कम्पनियां बना कर संसाधनों पर लोगों की मालकियत स्थापित करना।
३. शिक्षा के व्यापारी करण के खिलाफ राष्ट्रव्यापी संघर्ष छेड़ना और समान शिक्षा व्यवस्था कॉमन स्कूल सिस्टम को स्थापित करने की लड़ाई लड़ना।

आवश्यकता है एक तम्बाकू रहित जीवन की

                     आवश्यकता है  एक तम्बाकू रहित जीवन की
 

हर साल की तरह इस वर्ष भी विश्व तम्बाकू निषेध दिवस तरह तरह की नारेबाजी के साथ धूम धाम से मनाया गया. परन्तु केवल वाक्पटुता से काम चलने वाला नहीं है. जब तक हम अपने व औरों के लिए स्वास्थ्य का उचित अर्थ नहीं जानेंगे, तथा मन, कर्म व वचन से एक स्वस्थ समाज के निर्माण में एक जुट होकर कार्य नहीं करेंगे, तब तक तम्बाकू का हिंस्र दानव हमें त्रसित करता ही रहेगा. तम्बाकू के विरुद्ध छेड़ा गया विश्व व्यापी  युद्ध हमें न केवल लड़ना है, अपितु नवीकृत प्रतिज्ञाओं, कठोर नियमों, मौलिक जागरूकता अभियानों, तथा कामयाब होने की अटूट इच्छाशक्ति को रखते हुए जीत कर भी दिखाना  है.

तम्बाकू उपभोग से उत्पन्न हुए खतरों के बारे में आंकड़े बयान करना तो सरल है --तम्बाकू सेवन भारतीयों में असामयिक मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है; प्रत्येक वर्ष १० लाख भारतीय तम्बाकू जनित मृत्यु के शिकार होते हैं; लगभग ११% (५४० लाख) महिलायें किसी न किसी प्रकार के तम्बाकू का सेवन करती हैं; ३५ से ६९ वर्ष की आयु की प्रत्येक २० महिलाओं में से एक (यानी ९०,०००) तम्बाकू रूपी ज़हर के कारण ही मरती है; तम्बाकू अनेक प्रकार के कैंसर को जन्म देता है, तथा उच्च रक्तचाप, ह्रदय/श्वास संबंधी रोगों का कारक है; गर्भावस्था के दौरान तम्बाकू सेवन करने से भावी शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है; आदि आदि.

परन्तु क्या तम्बाकू सेवियों पर इन सब चेतावनियों का कुछ भी प्रभाव पड़ता है? आदम और हव्वा के ज़माने से वर्जित फल स्वादिष्ट और मीठा माना जाता रहा है. यही हाल तम्बाकू पदार्थों का भी है. प्राय: मेरे धूम्रपानी मित्र प्रतिवाद करते हैं कि सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वो उनके खान पान को नियंत्रित करे. उन्हें एक स्वतंत्र देश का नागरिक होने के कारण  तम्बाकू खाने व सिगरेट पीने की आजादी होनी चाहिए. यदि एक बार उनके व्यक्तिगत चुनाव की स्वतंत्रता के तर्क को उचित मान भी लिया जाय, तो भी उन्हें यह तो मानना ही पड़ेगा कि हमारी निजी स्वतंत्रता तभी तक मान्य है जब तक वह किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं करती. सरकार को इस बात का पूरा अधिकार है कि धूम्रपान करने वालों की सिगरेट/बीड़ी से निकलने वाले दूषित धुएं के कुप्रभावों से निर्दोष अधूम्रपानियों को बचाए. घर परिवार के भीतर भी सिगरेट पीने वाले के बच्चे, जीवन साथी, तथा अन्य रिश्तेदार पैसिव स्मोकिंग (अर्थात अपरोक्ष धूम्रपान) के शिकार होते हैं. यह सर्वथा अनुचित है. धूम्रपान करने वालों को दूसरों की स्वतंत्रता का भी आदर करना होगा. इसके बाद वो जाने और उनका काम. उन्हें इस  बात की आज़ादी है कि वो एक स्वस्थ जीवन चुनना चाहते हैं अथवा एक नारकीय मौत. परन्तु इस नरक में किसी अबोध को घसीटने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.

एक बात और. राज्य सरकार का कर्तव्य केवल तम्बाकू निषेध क़ानून पारित करना ही नही है-- उनका कठोर अनुपालन होना भी आवश्यक है. यह वास्तव में खेद का विषय है कि हमारे देश में तम्बाकू विरोधी नियम तो बढ़िया बने हैं, परन्तु वे केवल कागजों तक ही सीमित हैं. कुछ माह पूर्व लखनऊ के लौरेटो कॉन्वेंट कॉलेज की कुछ छात्राओं ने शहर का एक आकस्मिक सर्वेक्षण किया. उन्होंने विभिन्न आय तथा आयु वर्गों के २०० व्यक्तियों से बातचीत करी जिनमें १५० पुरुष तथा ५० महिलायें शामिल थीं.
उन्होंने शैक्षिक संस्थानों की १०० गज की परिधि में स्थित पान/सिगरेट बेचने वाली दुकानों के चित्र खींचे, तथा इन संस्थानों में 'धूम्रपान निषेध' के साइन बोर्डों की असफल तलाश करी. १८ वर्ष से कम आयु की होने पर भी उन्होंने ग्राहक बन कर बड़ी सरलता से सिगरेट व तम्बाकू के पैकेट खरीदे.

सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले हैं तथा क़ानून के घटिया अनुपालन की ओर इंगित करते हैं. हालांकि ९८.५% प्रतिवादियों ने तम्बाकू निषेध सम्बन्धी सन्देश रेडिओ/टेलीविजन पर सुने थे, परन्तु ७०% पुरुष तथा ५०% महिलायें किसी न किसी रूप में तम्बाकू सेवन करते थे. ४१% प्रतिवादियों ने सार्वजनिक स्ताथाओं पर धूम्रपान किया था, परन्तु उनमे से केवल ६% को इस कानूनी उल्लंघन के लिए दण्डित किया गया. लगभग ३०% प्रतिवादियों ने बताया कि उनके कार्य स्थलों पर धूम्रपान पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है.
७६% लोगों ने माना कि क़ानून के बावजूद, अवयस्कों के लिए तम्बाकू पदार्थ खरीदना या बेचना ज़रा भी मुश्किल नहीं है. ५१% लोगों ने कभी न कभी अवयस्क बच्चों से तम्बाकू पदार्थ/सिगरेट आदि ख़रीदे थे.
छात्राओं ने शहर के जिन ३६ स्कूल/कॉलेजों का सर्वे किया , उनमे से ३० के आस पास (१०० गज के दायरे में) सिगरेट/तम्बाकू बेचने वाली कम से कम एक दुकान तो थी ही -- कहीं कहीं तो स्कूल गेट के ठीक बगल में.
जब प्रदेश की राजधानी में यह हाल है, तो राज्य के अन्य शहरों में कानून के उल्लंघन की भयावह स्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.

यह सच है कि तम्बाकू उद्योग युवाओं और महिलाओं को अपनी आक्रामक विज्ञापन और विपणन तिकड़मों का निशाना बना रहा है. परन्तु उसकी चालों को विफल करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ नहीं होगा. अवयस्कों द्वारा तम्बाकू पदार्थ खरीदने व बेचने पर पाबंदी सम्बन्धी कानून का कठोरतम पालन होना चाहिए, तथा उल्लंघन karta का लाइसेंस हमेशा के लिए ज़ब्त हो जाना चाहिए. इस दिशा में कोई भी नरमी बरतने का मतलब होगा, सभी तम्बाकू विरोधी प्रयासों पर पानी फेरना. इसके अलावा, हमारे भावी नागरिक भी इसी परिवेश में पाले बढ़ेंगे जहां कानून तोड़ना आम बात है.

तम्बाकू का ज़हर बेचने वाले अपने शिकार को जाल में फँसाने के लिए नित नए हथकंडे अपनाते हैं. इसकी सबसे नवीनतम कड़ी है महानगरों में बेहद लोकप्रिय हुक्का या शीशा बार/लाउंज. यहाँ  का सबसे बड़ा ग्राहक तथाकथित संभ्रांत परिवार से आने वाला विद्यार्थी वर्ग है. बार मालिकों ने यह भ्रान्ति फैला रखी है कि हुक्के के धुएं में निकोटिन नहीं होता, इसलिए वो सिगरेट के samaan हानिकारक न होकर ट्रेंडी व कूल है. परन्तु वैज्ञानिक शोधों के अनुसार,  हुक्का पीने से शरीर में कार्बन डाई ऑक्साइड नामक ज़हरीली गैस की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है, जिसके घातक परिणाम निकल सकते हैं. एक घंटे लम्बे, एक ठेठ हुक्का सत्र के दौरान, एक सिगरेट के धुएं के मुकाबले १०० से २०० गुना अधिक धुआँ शरीर के अन्दर जाता है. डाक्टरों का कहना है कि हुक्का पीने से श्वास सम्बन्धी परेशानियाँ बढ़ती हैं.

महिलाओं में तम्बाकू का बढ़ता हुआ सेवन चिंता का विषय है. इस समय महिलायें व युवा वर्ग-दोनों ही तबाकू कंपनियों के निशाने पर हैं. इन कंपनियों को अब नए ग्राहकों की तलाश है, क्योंकि उनके ५०% वर्त्तमान ग्राहक तो आने वाले कुछ वर्षों में काल के गाल में समां जायेंगे. इसलिए उन्होंने महिलाओं, विशेषकर युवतियों को अपने जाल में फसानां शुरू कर दिया है. उनकी नई रणनीति में सिगरते पीने को स्त्रियोचित एवं आधुनिकता का प्रतीक माना गया है, न कि सामाजिक रूप से अवांछनीय एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक.

भारतीय महिलाओं में भले ही धूम्रपान बहुत प्रचलित न हो, परन्तु उनमें खाने वाली तम्बाकू बेहद लोकप्रिय है. इसको सिगरेट/बीड़ी के मुकाबले अधिक सुरक्षित एवं सामाजिक रूप से अधिक ग्राह्य माना जाता है. बड़े, छोटे, पुरुष, महिलायें-- सभी गुटखा, पान मसाला, ज़र्दा, मावा,गुल आदि चबाने में लिप्त हैं. धुआं रहित तम्बाकू के ये प्रकार छोटे छोटे पाउचों में बहुत कम कीमत पर बिकते हैं, तथा  इनमे पैक किये गए पदार्थ अनेकों ज़हरीले तत्वों से परिपूर्ण होने के कारण  हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं .

जाने माने विशेषज्ञ, डा. पी.सी. गुप्ता के अनुसार सुगन्धित एवं स्वादिष्ट गुटखे की बिक्री को भारत भर में प्रतिबंधित कर देना चाहिए. गोवा राज्य ने इस दिशा में अनुकरणीय पहल करी है.  मुंबई स्थित टाटा मेमोरियल अस्पताल के डा. चतुर्वेदी का तो यहाँ तक कहना है कि तम्बाकू रहित सुपाड़ी भी बहुत हानिकारक है. गुटखा, सुपाड़ी, पान मसाला आदि के चलते मुख के कैंसर समेत अनेकों बीमारियों के रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है.

क्या हम इन ज़हरीले पदार्थों की बिक्री को प्रतिबंधित करने के लिए तैयार है? या केवल ज़बानी जमा खर्च का रुख अपना रहे हैं. एक तरफ तो हमारी सरकार तम्बाकू पदार्थों की बिक्री को कानूनी मान्यता देती है, वहीं दूसरी ओर जनसाधारण से उन्हें न खरीदने का आह्वान करती है. कदाचित तम्बाकू की बिक्री को पूर्णता: रोकना कठिन होगा, परन्तु यह तो किया ही जा सकता है कि तम्बाकू/सिगरेट के पैक पर इन पदार्थों में पाई जाने वाली  निकोटिन और टार की मात्रा को पैकटों के ऊपर चिन्हित किया जाना अनिवार्य हो. कम से कम जनता को उस ज़हर की मात्रा तो पता चलेगी जो उसके शरीर में जा रही है. फिलहाल तो इसका उल्टा ही हो रहा है. सिगरेट के पैकटों पर स्त्रियों को लुभाने वाले शब्द लिखे रहते हैं, जैसे हलकी, मेंथोल युक्त, माइल्ड आदि. इसी प्रकार गुटखा/पान मसाला पैकेट सुगन्धित/प्रीमियम/केसर युक्त आदि प्रलोभनकारी शब्दों से सुसज्जित होते हैं. भ्रामक एवं अपरोक्ष विज्ञापनों के जाल को यथार्त चित्रण के द्वारा तोडना ही होगा.
इसके अलावा, सिगरेट/ बीड़ी पर टैक्स बाधा कर उनके मूल्य में अत्यधिक वृद्धि करके उन्हें आम जनता,एवं बच्चों की पँहुच से दूर रखा जा सकता है.

यह भी आवश्यक है कि मीडिया एवं अन्य उपायों द्वारा जन मानस को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तम्बाकू के स्वास्थ्य संबधी खतरों से सावधान करते हुए, उन्हें अनेकों प्रचलित तथा तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रसारित भ्रांतियों से बचाया जाए.
हम सभी को याद रखना होगा कि सभी तम्बाकू पदार्थ घातक हैं, भले ही उन्हें किसी भी भ्रामक नाम से पुकारा जाए, उनको कितने ही लुभावने रूप में प्रस्तुत किया जाए, और कितने ही तड़क भड़क वाले विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिपादित किया जाए.



शोभा शुक्ला,

एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस