आवश्यकता है एक तम्बाकू रहित जीवन की
तम्बाकू उपभोग से उत्पन्न हुए खतरों के बारे में आंकड़े बयान करना तो सरल है --तम्बाकू सेवन भारतीयों में असामयिक मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है; प्रत्येक वर्ष १० लाख भारतीय तम्बाकू जनित मृत्यु के शिकार होते हैं; लगभग ११% (५४० लाख) महिलायें किसी न किसी प्रकार के तम्बाकू का सेवन करती हैं; ३५ से ६९ वर्ष की आयु की प्रत्येक २० महिलाओं में से एक (यानी ९०,०००) तम्बाकू रूपी ज़हर के कारण ही मरती है; तम्बाकू अनेक प्रकार के कैंसर को जन्म देता है, तथा उच्च रक्तचाप, ह्रदय/श्वास संबंधी रोगों का कारक है; गर्भावस्था के दौरान तम्बाकू सेवन करने से भावी शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है; आदि आदि.
परन्तु क्या तम्बाकू सेवियों पर इन सब चेतावनियों का कुछ भी प्रभाव पड़ता है? आदम और हव्वा के ज़माने से वर्जित फल स्वादिष्ट और मीठा माना जाता रहा है. यही हाल तम्बाकू पदार्थों का भी है. प्राय: मेरे धूम्रपानी मित्र प्रतिवाद करते हैं कि सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वो उनके खान पान को नियंत्रित करे. उन्हें एक स्वतंत्र देश का नागरिक होने के कारण तम्बाकू खाने व सिगरेट पीने की आजादी होनी चाहिए. यदि एक बार उनके व्यक्तिगत चुनाव की स्वतंत्रता के तर्क को उचित मान भी लिया जाय, तो भी उन्हें यह तो मानना ही पड़ेगा कि हमारी निजी स्वतंत्रता तभी तक मान्य है जब तक वह किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं करती. सरकार को इस बात का पूरा अधिकार है कि धूम्रपान करने वालों की सिगरेट/बीड़ी से निकलने वाले दूषित धुएं के कुप्रभावों से निर्दोष अधूम्रपानियों को बचाए. घर परिवार के भीतर भी सिगरेट पीने वाले के बच्चे, जीवन साथी, तथा अन्य रिश्तेदार पैसिव स्मोकिंग (अर्थात अपरोक्ष धूम्रपान) के शिकार होते हैं. यह सर्वथा अनुचित है. धूम्रपान करने वालों को दूसरों की स्वतंत्रता का भी आदर करना होगा. इसके बाद वो जाने और उनका काम. उन्हें इस बात की आज़ादी है कि वो एक स्वस्थ जीवन चुनना चाहते हैं अथवा एक नारकीय मौत. परन्तु इस नरक में किसी अबोध को घसीटने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.
एक बात और. राज्य सरकार का कर्तव्य केवल तम्बाकू निषेध क़ानून पारित करना ही नही है-- उनका कठोर अनुपालन होना भी आवश्यक है. यह वास्तव में खेद का विषय है कि हमारे देश में तम्बाकू विरोधी नियम तो बढ़िया बने हैं, परन्तु वे केवल कागजों तक ही सीमित हैं. कुछ माह पूर्व लखनऊ के लौरेटो कॉन्वेंट कॉलेज की कुछ छात्राओं ने शहर का एक आकस्मिक सर्वेक्षण किया. उन्होंने विभिन्न आय तथा आयु वर्गों के २०० व्यक्तियों से बातचीत करी जिनमें १५० पुरुष तथा ५० महिलायें शामिल थीं.
उन्होंने शैक्षिक संस्थानों की १०० गज की परिधि में स्थित पान/सिगरेट बेचने वाली दुकानों के चित्र खींचे, तथा इन संस्थानों में 'धूम्रपान निषेध' के साइन बोर्डों की असफल तलाश करी. १८ वर्ष से कम आयु की होने पर भी उन्होंने ग्राहक बन कर बड़ी सरलता से सिगरेट व तम्बाकू के पैकेट खरीदे.
सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले हैं तथा क़ानून के घटिया अनुपालन की ओर इंगित करते हैं. हालांकि ९८.५% प्रतिवादियों ने तम्बाकू निषेध सम्बन्धी सन्देश रेडिओ/टेलीविजन पर सुने थे, परन्तु ७०% पुरुष तथा ५०% महिलायें किसी न किसी रूप में तम्बाकू सेवन करते थे. ४१% प्रतिवादियों ने सार्वजनिक स्ताथाओं पर धूम्रपान किया था, परन्तु उनमे से केवल ६% को इस कानूनी उल्लंघन के लिए दण्डित किया गया. लगभग ३०% प्रतिवादियों ने बताया कि उनके कार्य स्थलों पर धूम्रपान पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है.
७६% लोगों ने माना कि क़ानून के बावजूद, अवयस्कों के लिए तम्बाकू पदार्थ खरीदना या बेचना ज़रा भी मुश्किल नहीं है. ५१% लोगों ने कभी न कभी अवयस्क बच्चों से तम्बाकू पदार्थ/सिगरेट आदि ख़रीदे थे.
छात्राओं ने शहर के जिन ३६ स्कूल/कॉलेजों का सर्वे किया , उनमे से ३० के आस पास (१०० गज के दायरे में) सिगरेट/तम्बाकू बेचने वाली कम से कम एक दुकान तो थी ही -- कहीं कहीं तो स्कूल गेट के ठीक बगल में.
जब प्रदेश की राजधानी में यह हाल है, तो राज्य के अन्य शहरों में कानून के उल्लंघन की भयावह स्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.
यह सच है कि तम्बाकू उद्योग युवाओं और महिलाओं को अपनी आक्रामक विज्ञापन और विपणन तिकड़मों का निशाना बना रहा है. परन्तु उसकी चालों को विफल करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ नहीं होगा. अवयस्कों द्वारा तम्बाकू पदार्थ खरीदने व बेचने पर पाबंदी सम्बन्धी कानून का कठोरतम पालन होना चाहिए, तथा उल्लंघन karta का लाइसेंस हमेशा के लिए ज़ब्त हो जाना चाहिए. इस दिशा में कोई भी नरमी बरतने का मतलब होगा, सभी तम्बाकू विरोधी प्रयासों पर पानी फेरना. इसके अलावा, हमारे भावी नागरिक भी इसी परिवेश में पाले बढ़ेंगे जहां कानून तोड़ना आम बात है.
तम्बाकू का ज़हर बेचने वाले अपने शिकार को जाल में फँसाने के लिए नित नए हथकंडे अपनाते हैं. इसकी सबसे नवीनतम कड़ी है महानगरों में बेहद लोकप्रिय हुक्का या शीशा बार/लाउंज. यहाँ का सबसे बड़ा ग्राहक तथाकथित संभ्रांत परिवार से आने वाला विद्यार्थी वर्ग है. बार मालिकों ने यह भ्रान्ति फैला रखी है कि हुक्के के धुएं में निकोटिन नहीं होता, इसलिए वो सिगरेट के samaan हानिकारक न होकर ट्रेंडी व कूल है. परन्तु वैज्ञानिक शोधों के अनुसार, हुक्का पीने से शरीर में कार्बन डाई ऑक्साइड नामक ज़हरीली गैस की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है, जिसके घातक परिणाम निकल सकते हैं. एक घंटे लम्बे, एक ठेठ हुक्का सत्र के दौरान, एक सिगरेट के धुएं के मुकाबले १०० से २०० गुना अधिक धुआँ शरीर के अन्दर जाता है. डाक्टरों का कहना है कि हुक्का पीने से श्वास सम्बन्धी परेशानियाँ बढ़ती हैं.
महिलाओं में तम्बाकू का बढ़ता हुआ सेवन चिंता का विषय है. इस समय महिलायें व युवा वर्ग-दोनों ही तबाकू कंपनियों के निशाने पर हैं. इन कंपनियों को अब नए ग्राहकों की तलाश है, क्योंकि उनके ५०% वर्त्तमान ग्राहक तो आने वाले कुछ वर्षों में काल के गाल में समां जायेंगे. इसलिए उन्होंने महिलाओं, विशेषकर युवतियों को अपने जाल में फसानां शुरू कर दिया है. उनकी नई रणनीति में सिगरते पीने को स्त्रियोचित एवं आधुनिकता का प्रतीक माना गया है, न कि सामाजिक रूप से अवांछनीय एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक.
भारतीय महिलाओं में भले ही धूम्रपान बहुत प्रचलित न हो, परन्तु उनमें खाने वाली तम्बाकू बेहद लोकप्रिय है. इसको सिगरेट/बीड़ी के मुकाबले अधिक सुरक्षित एवं सामाजिक रूप से अधिक ग्राह्य माना जाता है. बड़े, छोटे, पुरुष, महिलायें-- सभी गुटखा, पान मसाला, ज़र्दा, मावा,गुल आदि चबाने में लिप्त हैं. धुआं रहित तम्बाकू के ये प्रकार छोटे छोटे पाउचों में बहुत कम कीमत पर बिकते हैं, तथा इनमे पैक किये गए पदार्थ अनेकों ज़हरीले तत्वों से परिपूर्ण होने के कारण हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं .
जाने माने विशेषज्ञ, डा. पी.सी. गुप्ता के अनुसार सुगन्धित एवं स्वादिष्ट गुटखे की बिक्री को भारत भर में प्रतिबंधित कर देना चाहिए. गोवा राज्य ने इस दिशा में अनुकरणीय पहल करी है. मुंबई स्थित टाटा मेमोरियल अस्पताल के डा. चतुर्वेदी का तो यहाँ तक कहना है कि तम्बाकू रहित सुपाड़ी भी बहुत हानिकारक है. गुटखा, सुपाड़ी, पान मसाला आदि के चलते मुख के कैंसर समेत अनेकों बीमारियों के रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है.
क्या हम इन ज़हरीले पदार्थों की बिक्री को प्रतिबंधित करने के लिए तैयार है? या केवल ज़बानी जमा खर्च का रुख अपना रहे हैं. एक तरफ तो हमारी सरकार तम्बाकू पदार्थों की बिक्री को कानूनी मान्यता देती है, वहीं दूसरी ओर जनसाधारण से उन्हें न खरीदने का आह्वान करती है. कदाचित तम्बाकू की बिक्री को पूर्णता: रोकना कठिन होगा, परन्तु यह तो किया ही जा सकता है कि तम्बाकू/सिगरेट के पैक पर इन पदार्थों में पाई जाने वाली निकोटिन और टार की मात्रा को पैकटों के ऊपर चिन्हित किया जाना अनिवार्य हो. कम से कम जनता को उस ज़हर की मात्रा तो पता चलेगी जो उसके शरीर में जा रही है. फिलहाल तो इसका उल्टा ही हो रहा है. सिगरेट के पैकटों पर स्त्रियों को लुभाने वाले शब्द लिखे रहते हैं, जैसे हलकी, मेंथोल युक्त, माइल्ड आदि. इसी प्रकार गुटखा/पान मसाला पैकेट सुगन्धित/प्रीमियम/केसर युक्त आदि प्रलोभनकारी शब्दों से सुसज्जित होते हैं. भ्रामक एवं अपरोक्ष विज्ञापनों के जाल को यथार्त चित्रण के द्वारा तोडना ही होगा.
इसके अलावा, सिगरेट/ बीड़ी पर टैक्स बाधा कर उनके मूल्य में अत्यधिक वृद्धि करके उन्हें आम जनता,एवं बच्चों की पँहुच से दूर रखा जा सकता है.
यह भी आवश्यक है कि मीडिया एवं अन्य उपायों द्वारा जन मानस को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तम्बाकू के स्वास्थ्य संबधी खतरों से सावधान करते हुए, उन्हें अनेकों प्रचलित तथा तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रसारित भ्रांतियों से बचाया जाए.
हम सभी को याद रखना होगा कि सभी तम्बाकू पदार्थ घातक हैं, भले ही उन्हें किसी भी भ्रामक नाम से पुकारा जाए, उनको कितने ही लुभावने रूप में प्रस्तुत किया जाए, और कितने ही तड़क भड़क वाले विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिपादित किया जाए.
शोभा शुक्ला,
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
हर साल की तरह इस वर्ष भी विश्व तम्बाकू निषेध दिवस तरह तरह की नारेबाजी के साथ धूम धाम से मनाया गया. परन्तु केवल वाक्पटुता से काम चलने वाला नहीं है. जब तक हम अपने व औरों के लिए स्वास्थ्य का उचित अर्थ नहीं जानेंगे, तथा मन, कर्म व वचन से एक स्वस्थ समाज के निर्माण में एक जुट होकर कार्य नहीं करेंगे, तब तक तम्बाकू का हिंस्र दानव हमें त्रसित करता ही रहेगा. तम्बाकू के विरुद्ध छेड़ा गया विश्व व्यापी युद्ध हमें न केवल लड़ना है, अपितु नवीकृत प्रतिज्ञाओं, कठोर नियमों, मौलिक जागरूकता अभियानों, तथा कामयाब होने की अटूट इच्छाशक्ति को रखते हुए जीत कर भी दिखाना है.
तम्बाकू उपभोग से उत्पन्न हुए खतरों के बारे में आंकड़े बयान करना तो सरल है --तम्बाकू सेवन भारतीयों में असामयिक मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है; प्रत्येक वर्ष १० लाख भारतीय तम्बाकू जनित मृत्यु के शिकार होते हैं; लगभग ११% (५४० लाख) महिलायें किसी न किसी प्रकार के तम्बाकू का सेवन करती हैं; ३५ से ६९ वर्ष की आयु की प्रत्येक २० महिलाओं में से एक (यानी ९०,०००) तम्बाकू रूपी ज़हर के कारण ही मरती है; तम्बाकू अनेक प्रकार के कैंसर को जन्म देता है, तथा उच्च रक्तचाप, ह्रदय/श्वास संबंधी रोगों का कारक है; गर्भावस्था के दौरान तम्बाकू सेवन करने से भावी शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है; आदि आदि.
परन्तु क्या तम्बाकू सेवियों पर इन सब चेतावनियों का कुछ भी प्रभाव पड़ता है? आदम और हव्वा के ज़माने से वर्जित फल स्वादिष्ट और मीठा माना जाता रहा है. यही हाल तम्बाकू पदार्थों का भी है. प्राय: मेरे धूम्रपानी मित्र प्रतिवाद करते हैं कि सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वो उनके खान पान को नियंत्रित करे. उन्हें एक स्वतंत्र देश का नागरिक होने के कारण तम्बाकू खाने व सिगरेट पीने की आजादी होनी चाहिए. यदि एक बार उनके व्यक्तिगत चुनाव की स्वतंत्रता के तर्क को उचित मान भी लिया जाय, तो भी उन्हें यह तो मानना ही पड़ेगा कि हमारी निजी स्वतंत्रता तभी तक मान्य है जब तक वह किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं करती. सरकार को इस बात का पूरा अधिकार है कि धूम्रपान करने वालों की सिगरेट/बीड़ी से निकलने वाले दूषित धुएं के कुप्रभावों से निर्दोष अधूम्रपानियों को बचाए. घर परिवार के भीतर भी सिगरेट पीने वाले के बच्चे, जीवन साथी, तथा अन्य रिश्तेदार पैसिव स्मोकिंग (अर्थात अपरोक्ष धूम्रपान) के शिकार होते हैं. यह सर्वथा अनुचित है. धूम्रपान करने वालों को दूसरों की स्वतंत्रता का भी आदर करना होगा. इसके बाद वो जाने और उनका काम. उन्हें इस बात की आज़ादी है कि वो एक स्वस्थ जीवन चुनना चाहते हैं अथवा एक नारकीय मौत. परन्तु इस नरक में किसी अबोध को घसीटने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.
एक बात और. राज्य सरकार का कर्तव्य केवल तम्बाकू निषेध क़ानून पारित करना ही नही है-- उनका कठोर अनुपालन होना भी आवश्यक है. यह वास्तव में खेद का विषय है कि हमारे देश में तम्बाकू विरोधी नियम तो बढ़िया बने हैं, परन्तु वे केवल कागजों तक ही सीमित हैं. कुछ माह पूर्व लखनऊ के लौरेटो कॉन्वेंट कॉलेज की कुछ छात्राओं ने शहर का एक आकस्मिक सर्वेक्षण किया. उन्होंने विभिन्न आय तथा आयु वर्गों के २०० व्यक्तियों से बातचीत करी जिनमें १५० पुरुष तथा ५० महिलायें शामिल थीं.
उन्होंने शैक्षिक संस्थानों की १०० गज की परिधि में स्थित पान/सिगरेट बेचने वाली दुकानों के चित्र खींचे, तथा इन संस्थानों में 'धूम्रपान निषेध' के साइन बोर्डों की असफल तलाश करी. १८ वर्ष से कम आयु की होने पर भी उन्होंने ग्राहक बन कर बड़ी सरलता से सिगरेट व तम्बाकू के पैकेट खरीदे.
सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले हैं तथा क़ानून के घटिया अनुपालन की ओर इंगित करते हैं. हालांकि ९८.५% प्रतिवादियों ने तम्बाकू निषेध सम्बन्धी सन्देश रेडिओ/टेलीविजन पर सुने थे, परन्तु ७०% पुरुष तथा ५०% महिलायें किसी न किसी रूप में तम्बाकू सेवन करते थे. ४१% प्रतिवादियों ने सार्वजनिक स्ताथाओं पर धूम्रपान किया था, परन्तु उनमे से केवल ६% को इस कानूनी उल्लंघन के लिए दण्डित किया गया. लगभग ३०% प्रतिवादियों ने बताया कि उनके कार्य स्थलों पर धूम्रपान पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है.
७६% लोगों ने माना कि क़ानून के बावजूद, अवयस्कों के लिए तम्बाकू पदार्थ खरीदना या बेचना ज़रा भी मुश्किल नहीं है. ५१% लोगों ने कभी न कभी अवयस्क बच्चों से तम्बाकू पदार्थ/सिगरेट आदि ख़रीदे थे.
छात्राओं ने शहर के जिन ३६ स्कूल/कॉलेजों का सर्वे किया , उनमे से ३० के आस पास (१०० गज के दायरे में) सिगरेट/तम्बाकू बेचने वाली कम से कम एक दुकान तो थी ही -- कहीं कहीं तो स्कूल गेट के ठीक बगल में.
जब प्रदेश की राजधानी में यह हाल है, तो राज्य के अन्य शहरों में कानून के उल्लंघन की भयावह स्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.
यह सच है कि तम्बाकू उद्योग युवाओं और महिलाओं को अपनी आक्रामक विज्ञापन और विपणन तिकड़मों का निशाना बना रहा है. परन्तु उसकी चालों को विफल करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ नहीं होगा. अवयस्कों द्वारा तम्बाकू पदार्थ खरीदने व बेचने पर पाबंदी सम्बन्धी कानून का कठोरतम पालन होना चाहिए, तथा उल्लंघन karta का लाइसेंस हमेशा के लिए ज़ब्त हो जाना चाहिए. इस दिशा में कोई भी नरमी बरतने का मतलब होगा, सभी तम्बाकू विरोधी प्रयासों पर पानी फेरना. इसके अलावा, हमारे भावी नागरिक भी इसी परिवेश में पाले बढ़ेंगे जहां कानून तोड़ना आम बात है.
तम्बाकू का ज़हर बेचने वाले अपने शिकार को जाल में फँसाने के लिए नित नए हथकंडे अपनाते हैं. इसकी सबसे नवीनतम कड़ी है महानगरों में बेहद लोकप्रिय हुक्का या शीशा बार/लाउंज. यहाँ का सबसे बड़ा ग्राहक तथाकथित संभ्रांत परिवार से आने वाला विद्यार्थी वर्ग है. बार मालिकों ने यह भ्रान्ति फैला रखी है कि हुक्के के धुएं में निकोटिन नहीं होता, इसलिए वो सिगरेट के samaan हानिकारक न होकर ट्रेंडी व कूल है. परन्तु वैज्ञानिक शोधों के अनुसार, हुक्का पीने से शरीर में कार्बन डाई ऑक्साइड नामक ज़हरीली गैस की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है, जिसके घातक परिणाम निकल सकते हैं. एक घंटे लम्बे, एक ठेठ हुक्का सत्र के दौरान, एक सिगरेट के धुएं के मुकाबले १०० से २०० गुना अधिक धुआँ शरीर के अन्दर जाता है. डाक्टरों का कहना है कि हुक्का पीने से श्वास सम्बन्धी परेशानियाँ बढ़ती हैं.
महिलाओं में तम्बाकू का बढ़ता हुआ सेवन चिंता का विषय है. इस समय महिलायें व युवा वर्ग-दोनों ही तबाकू कंपनियों के निशाने पर हैं. इन कंपनियों को अब नए ग्राहकों की तलाश है, क्योंकि उनके ५०% वर्त्तमान ग्राहक तो आने वाले कुछ वर्षों में काल के गाल में समां जायेंगे. इसलिए उन्होंने महिलाओं, विशेषकर युवतियों को अपने जाल में फसानां शुरू कर दिया है. उनकी नई रणनीति में सिगरते पीने को स्त्रियोचित एवं आधुनिकता का प्रतीक माना गया है, न कि सामाजिक रूप से अवांछनीय एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक.
भारतीय महिलाओं में भले ही धूम्रपान बहुत प्रचलित न हो, परन्तु उनमें खाने वाली तम्बाकू बेहद लोकप्रिय है. इसको सिगरेट/बीड़ी के मुकाबले अधिक सुरक्षित एवं सामाजिक रूप से अधिक ग्राह्य माना जाता है. बड़े, छोटे, पुरुष, महिलायें-- सभी गुटखा, पान मसाला, ज़र्दा, मावा,गुल आदि चबाने में लिप्त हैं. धुआं रहित तम्बाकू के ये प्रकार छोटे छोटे पाउचों में बहुत कम कीमत पर बिकते हैं, तथा इनमे पैक किये गए पदार्थ अनेकों ज़हरीले तत्वों से परिपूर्ण होने के कारण हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं .
जाने माने विशेषज्ञ, डा. पी.सी. गुप्ता के अनुसार सुगन्धित एवं स्वादिष्ट गुटखे की बिक्री को भारत भर में प्रतिबंधित कर देना चाहिए. गोवा राज्य ने इस दिशा में अनुकरणीय पहल करी है. मुंबई स्थित टाटा मेमोरियल अस्पताल के डा. चतुर्वेदी का तो यहाँ तक कहना है कि तम्बाकू रहित सुपाड़ी भी बहुत हानिकारक है. गुटखा, सुपाड़ी, पान मसाला आदि के चलते मुख के कैंसर समेत अनेकों बीमारियों के रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है.
क्या हम इन ज़हरीले पदार्थों की बिक्री को प्रतिबंधित करने के लिए तैयार है? या केवल ज़बानी जमा खर्च का रुख अपना रहे हैं. एक तरफ तो हमारी सरकार तम्बाकू पदार्थों की बिक्री को कानूनी मान्यता देती है, वहीं दूसरी ओर जनसाधारण से उन्हें न खरीदने का आह्वान करती है. कदाचित तम्बाकू की बिक्री को पूर्णता: रोकना कठिन होगा, परन्तु यह तो किया ही जा सकता है कि तम्बाकू/सिगरेट के पैक पर इन पदार्थों में पाई जाने वाली निकोटिन और टार की मात्रा को पैकटों के ऊपर चिन्हित किया जाना अनिवार्य हो. कम से कम जनता को उस ज़हर की मात्रा तो पता चलेगी जो उसके शरीर में जा रही है. फिलहाल तो इसका उल्टा ही हो रहा है. सिगरेट के पैकटों पर स्त्रियों को लुभाने वाले शब्द लिखे रहते हैं, जैसे हलकी, मेंथोल युक्त, माइल्ड आदि. इसी प्रकार गुटखा/पान मसाला पैकेट सुगन्धित/प्रीमियम/केसर युक्त आदि प्रलोभनकारी शब्दों से सुसज्जित होते हैं. भ्रामक एवं अपरोक्ष विज्ञापनों के जाल को यथार्त चित्रण के द्वारा तोडना ही होगा.
इसके अलावा, सिगरेट/ बीड़ी पर टैक्स बाधा कर उनके मूल्य में अत्यधिक वृद्धि करके उन्हें आम जनता,एवं बच्चों की पँहुच से दूर रखा जा सकता है.
यह भी आवश्यक है कि मीडिया एवं अन्य उपायों द्वारा जन मानस को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तम्बाकू के स्वास्थ्य संबधी खतरों से सावधान करते हुए, उन्हें अनेकों प्रचलित तथा तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रसारित भ्रांतियों से बचाया जाए.
हम सभी को याद रखना होगा कि सभी तम्बाकू पदार्थ घातक हैं, भले ही उन्हें किसी भी भ्रामक नाम से पुकारा जाए, उनको कितने ही लुभावने रूप में प्रस्तुत किया जाए, और कितने ही तड़क भड़क वाले विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिपादित किया जाए.
शोभा शुक्ला,
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस