कोआर्पोरेट भूमंडलीकरण के तहत वर्तमान विनाशकारी विकास : हमारे संकटों का मूल कारण

1-विकास क्या है ? विकास विश्व युद्ध के बाद की घटना हैं ।

यह शब्द साम्राज्यवादी ताकतों का गढ़ा हुआ है और 1940 के दशक में अमरीकी नीति दस्तावेजों में प्रकट होता है। अमरीका और इगंलेंड के संरक्षण में बनी ब्रैटन वुड्स संस्थाएँ खास तौर से पुनर्निमाण और विकास की अंर्तराष्ट्रीय बैंक, जो सामान्य बोलचाल में विश्व बैंक कहलाती हैं, विकास की अवधारणा की अभिभावक परी बनी। 1949 में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने दुनिया को दो भागो में बाँट दिया विकसित दुनिया और अविकसित दुनिया । भारत जैसे देश, जो उपनिवेश शासन में रहे थे, अविकसित देशो की टोकरी में डाल दिये गये और सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह हैं कि हमारे देश ने यह मंजूर कर लिया ।

विकास भारतीय संकल्पना नहीं है। यह शब्द गाँधी जी, टैगोर या डा अम्बेडकर की कृतियों में नहीं मिलता। भारत के संविधान में यह मात्र दो स्थानो में आया हैं। पूर्व विश्व युद्ध युग में भूमंडलीकरण के पहले चरण में जिसे पश्चिम की औद्योगिक क्रांति ने पुष्ट किया था, राज्य उपनिवेशवाद को मान्यता देने के लिये सभ्यकरण या आधुनिकीकरण जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था । ठीक उसी तरह उत्तर विश्व युद्ध में वर्तमान भूमंडलीकरण कें वर्तमान चरण में जिसे सूचना तकनीकि क्रान्ति ने पुष्ट किया है, कोआर्पोरेट उपनिवेशवाद को मान्यता देने के लिए विकास शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

२- विकास का पैमाना वृद्धि जीडीपी इस पश्चिम माडल दल में विकास को वृद्धि दर में मापा जाता हैं, वृद्धि दर ऊंचा होगी तो विकास भी ऊंचा होगा। इसे प्राप्त करने के लिए पिछले 6 दशकों में सरकारों ने औद्योगिककरण को बढ़ावा दिया है। यह हुआ है खेती की कीमत पर १६० साल पहले, जीडीपी में खेती का योगदान लगभग 51 प्रतिशत था लेकिन इस अवधि में यह योगदान लगातार घटता गया हैं और आजकल यह मात्र लगभग 14 प्रतित है। ऐसा तब है जब ६५ से 70 प्रतित आबादी अपने जीवन के लिए खेती पर निर्भर है। विकास के लिए परजीवी वृद्धि का पश्चिमी माडल केवल पूंजी सघन है बल्कि ऊर्जा -जल-संसाधन सघन भी है। इस विकास का जिम्मा बड़े-बड़े कुछ सरकारी पर ज्यादातर निजी देशी -विदेशी कारपोरेशन को सौपा गया और प्रक्रिया में आमजन हा सही ये पर डाल दिये गये है। इसका नतीजा हुआ है कि सम्पत्ति कुछ हाथों में केन्दित हो गयी है पूंजी का पलायन हो रहा हैं और पारिस्थितिकीय विनाश, संसाधनों भूमि, जल, जंगल, खनिजों का दोहन, गैर बराबरी, गरीबी भुखमरी और भ्रष्टाचार फैल रहे है। एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही हैं और दूसरी तरफ देश की ७७ फीसदी आबादी 20 रू0 या उससे भी कम पर रोज गुजर कर रही है,हर चौथा भारतीय भूखा हैं, हर दूसरा बच्चा कुपोषित है हमारे संसाधन और सम्पति बड़ी कम्पनियों, मल्टीनेशनलों, बैकों, फर्मो के हाथ में जा रही हैं

यह पूरी दुनिया में सिद्ध हो गया है कि किसी देश के लोगो की खुशहाली से जी डी पी का कोई रिश्ता नहीं हैं । यूएनडीपी की ताजी रिर्पाट बताती है कि क्यूबा जैसे दे का जीडीपी नीचा हैं परन्तु उनका मानव विकास सूचकांक बहुत ऊँचा। और ऐसे भी देश है जैसे अमरिका और मैक्सीको जिनका जीडीपी तो ऊँचा है पर मानव विकास सूचकांक नीचा है। ऐसे भी देश है जिनका जीडीपी ऊँचा है और गैरबराबरी भी ज्यादा है।इस विकास के मॉडल का सबसे खराब नतीजा यह है कि उसने आवयकताओं को माँग में बदल दिया है और मांगो की पूर्ति के लिए एक दबदबे वाला बाजार खड़ा हो गया है। विश्व बैंक मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन डब्लूटीओ के दबाव में मुक्त व्यापार के नाम पर हमारे बाजार खुलवा लिए हैं।सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करते हुए आक्रमक विज्ञापनों से आमजन के दिमाग पर काबू पा लिया गया है और खतरे की रफ्तार से उपभोक्तवादी संस्कृति फैल रही है।और इस लूट का सबसे चिन्ताजनक पक्ष यह हैं कि सरकार भीमकाय कॉरपोरेशनो की एजेंट बन गयी है।राज्य और बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनो के बीच की इस अपवित्र सन्धि को छिपाने के लिए दो मिथक पैदा किये गये। पहला मिथक है कि कॉरपोरेशनो के पास पूंजी होती है जो विकास के लिए नितान्त जरूरी है। राज्य कहता है कि उसके पास पर्याप्त धन नही है। इसलिए राज्य सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेच रहा है और सार्वजनिक निजी भागीदारी में लगा हुआ हैं।राज्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियो को तमाम रियायतें दे रहा है और विदेशो मे जमा काले धन को वापस नहीं ला रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि देश से बहुत ज्यादा धन बाहर जा रहा है।दूसरा मिथक यह है कि बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनो और बड़ी कम्पनिया अपनी प्रौद्योगिकी और प्रबन्धन लाती है। असलियत यह है कि भारत न तो प्रौद्योगिकी और न प्रबन्धन में ही पीछे है। पश्चिमी प्रौद्योगिकी और प्रबन्धन का मिथक तो पिछले 3 वर्षों के दौरान बुरी तरह लड़खड़ा गया है, क्योकि मन्दी के चलते बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैली है और वित्तीय व आर्थिक संकट गहराता गया है। उनके ढाँचें में व्याप्त भष्टाचार भी उजागर हुआ है ।

एक नये विकास मॉडल को खड़ा किया जाना है -
राज्य एवं सैन्य सत्ता
हथियार उद्योग
बड़े उद्योग
मौजदा पश्चमी मॉडल को निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है इस मॉडल की धुरी बड़ा उद्योग है जो हथियार उद्योग दवारा समर्थित है और जिसकी सैन्य शक्ति सुरक्षा करती है।
हमें इसे अस्वीकार करना होगा और उसके स्थान पर एक नया मॉडल खड़ा करना पड़ेगा, जिसकी स्वरूप इस प्रकार होगा :
जन व्यक्ति
छोटे उद्योग
कृषि
इस मॉडल मे कृषि केन्द्र में होगी । इसकी तत्काल आवयकता न सिर्फ भारत वर्ष लिये है, बल्कि समूची दुनिया के लिये है जहाँ 1 अरब लोग भूखे सोते हैं।श्रम सघन छोटे उद्योगों द्वारा कृषि समर्थित रहेगी । केवल एक यही रास्ता है जिसके द्वारा बेकारी का हल ढूँढा जा सकता

संसाधनों पर लोगों के समुदायों का मालिकाना हक कैसे कायम होगा
इस वैकल्पिक मॉडल को खड़ा करने के लिये जो समुचित तकनीक और लोगों की भागीदारी के साथ श्रम सघन है और जिसमें संसाधनों पर समुदायों की मिल्कियत रहेगी, तमाम आन्दोलन और प्रयोग चल रहे है ताकि सामाजिक -आर्थिक स्तर पर लोगों की भागीदारी वाले लोकतन्त्र की स्थापना की जा सके, जिसमें निर्णय लेने के सारे हक नौकर शाहों और बहुराष्ट्रीय कारपोरेशनों के हाथो से छीने जा सकें और उन्हें समुदायों को सौंपा जा सके । इस दिशा में एक मध्यवर्ती कदम हो सकता है-प्रोडयूसर्स कम्पनीज एक्ट 2002 के तहत ऐसी प्रोडयूसर्स कम्पनियों की स्थापना जिसमें कॉरपोरेटिव के सारे गुण होंगे। ये कम्पनिया, बगैर राज्य के हस्तक्षेप के भीमकाय निजी कम्पनियों के हमले को कानूनी तौर पर रोकने में कारगर हथियार बनेंगी। यह दो तरफा मुहिम है-संघर्ष और निर्माण।आर्थिक और राजनीतिक समाज के हर स्तर पर निर्णय लेने की व्यवस्था के विकेंद्रीकरण के लिये सामूहिक रूप में लड़ाई लड़ी जानी है। एक विकल्प को खड़ा करने की लड़ाई हमें साहस के साथ लड़नी होगी ।

गैर बराबरी
आधुनिक विकास मॉडल के तीन मुख्य असर हुए हैं:1.गैर बराबरी ,गरीबी, भूखमरी 2.सामाजिक विघटन और विस्थापन 3. पर्यावरणीय विनाश सोवियत यूनियन की समाप्ति के बाद,पूरी दुनिया में समाजवादी आन्दोलन कमजोर हुआ और अब पूंजीवाद पूरे विकास मॉडल पर छाया हुआ है। सम्पत्ति और संसाधन कुछ हाथों में सिमटते जा रहे है और बहुसंख्यक आबादी का सीमान्तीकरण हो गया है। इसके परिणाम स्वरूप राष्ट्रों के बीच और राष्ट्रों के अन्दर गैर बराबरी बढ़ रही है । यह इस तथ्य से जग जाहिर है कि दुनिया भर में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और लगभग 1 अरब लोग प्रतिदिन भूखे सोते है।
रिसन का सिद्धान्त असफल हो गया :
विकास के पूंजीवादी मॉडल में सम्पत्ति और संसाधनों का कुछ हाथों में इकटठा हो जाने को यह तर्क देकर न्यायोचित ठहराया जाता है जिसके मुताबिक यदि सम्पत्ति और संसाधन उन व्यक्तियों या कम्पनियों के हाथ में एकत्र हो जाते है जो दक्ष है जिसके पास और तकनीक हैं। तथा नवीन प्रबन्धन है तब सकल घरेलू उत्पाद,जिसे विकास नापने का पैमाना माना जाता है,बढ़ेगा। राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ने से समाज के सबसे निचले तबके को भी कुछ न कुछ संपत्ति रिस कर पहुँचगी और गरीबी,भूखमरी कम होगी । सिद्धान्त में यह काफी प्रभावशाली बात दिखायी पड़ती है। परन्तु वास्तविकता में यह बहुत ही भ्रामक है जिसका अब पूरी तरह खुलासा हो चुका है। 1970 में,पर खर्च किये गये 100 डालर में से नीचे रिस का २-2 डालर पहुँचता था, परन्तु परिस्थिति में और गिरावट आयी और 1990 में यह रिसन केवल 0।60 डालर ही रह गयी।
ऊंची जी डी पी वृद्धि दर का गैर बराबरी घटने से कोई लेना देना नहीं है-
एक राष्ट्र में गैर बराबरी अनुपात वह अनुपात है जो उसके ऊपरी तबके के 10 प्रतिशत लोगों की आमदनी और निचले तबके के 10 प्रतित की आमदनी के बीच में है। 5 अक्टूबर 2009 को प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र विकास कार्य क्रम की रिपोर्ट बताती है कि किसी देश का जीडीपी का उस देश की गैर बराबरी अनुपात के साथ कोई प्रतिलोमानुपात नहीं है। सामान्यतया यह उम्मीद की जाती है कि यदि किसी देश का जीडीपी ऊंचा है तब वहाँ कम गैर बराबरी होनी चाहिये । परन्तु यह अनिवार्य रूप से सत्य नहीं है। निम्न सूची से यह सिद्ध होता है-भारत के मामले में, सरकार की बहाने बाजी कि ऊंची जीडीपी वृद्धि दर 9 या10 प्रतिशत तक,गैर बराबरी घटा देगी एक गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य है। भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपये या 20 से कम रूपये प्रतिदिन पर गुजर बसर कर रही है।(अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रिपोर्ट) यह तस्वीर है किसी देश के अन्दर गरीबी की। और दो देशो के बीच तो परिस्थिति और भी खराब है। जी-७ देशो की कुल आबादी दुनिया की आबादी की महज 15 प्रतित है परन्तु ये सात दे दुनिया के लगभग 85 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं ।
गैर बराबरी के कारण
देश में फैली गैर बराबरी के चार कारण है। पहला ऐतिहासिक कारण हैं। हमेशा जाति व्यवस्था विरासत में मिली है जिसमे एक बड़े हिस्से (दलित ,आदिवासियों)-को सम्पत्ति और संसाधनों से वंचित रखा गया यद्यपि पिछले 60 वर्षों में इस दिशा में कुछ प्रगति हुई है। परन्तु फिर भी स्थितियाँ काफी परेशान करने वाली है। दूसरा कारण है विकास का पूँजीवादी ढाँचा जो उद्योगों पर जोर डालता है कृषि की कीमत पर। भूमण्डलीकरण ,उदारीकरण और निजीकरण के साथ काफी बड़ी संख्या में लोगों को नौकरियों से निकाल दिया गया है,बेरोजगारी,गरीबी और परिणाम स्वरूप गैर बराबरी बढ़ रही है। तीसरा बड़ा कारण है लोगों के हाथ में संसाधन नहीं बचे है वास्तव में उन पर बड़ी कॉरपोशन्स का कब्जा हो गया हैं।सच्चाई तो यह है कि आधुनिक विकास के ढाँचे में ही गैर बराबरी अन्तर्निहीत है। चौथा कारण सटटेबाजी के कारण उत्पन्न वित्तीय अस्थिरता है। अन्त में शिक्षा व्यवस्था जो गैर बराबरी पैदा करती है, खास कर मानसिक गैर बराबरी। विभिन्न किस्म की शिक्षायें जो बच्चों के दिमाग में ठूंस-ठूंस कर भरी जा रही है वह उनमें सामाजिक गैरबराबरी की तस्वीर बैठा देती है जो उनके बाद के जीवन में भी चलती रहती है यदि कॉमन स्कूल सिस्टम होता परिस्थितियाँ अलग होती ।
पाँचवा कारण है कि सरकार संविधान के विपरीत काम कर रही है। हमारा संविधान भारत को समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। परन्तु सरकार की सभी नीतियां इस समाजवाद को नकार देती है,जैसे निजी पूंजी और कॉरपोरेशन (घरेलू और विदेशी) के साथ गठजोड़ की नीतियां और उन्हें सभी तरह छूट देना टैक्स , टैरिफ, एक्साइज आदि उन्हें संसाधनों-जमीन, जल, खदान की मालकियत लगभग मुफ्त में सौंप देना, सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों में बेतहाशा करना ५ वां और ६ वां वेतन आयोग द्वारा संगठित तथा असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बीच भारी गैर बराबरी पैदा कर देना । ग्रामीण क्षेत्रों में भू- सुधार के कार्यक्रमों को केवल रोका ही नहीं गया वरन उन्हें अब उल्टी दिशा में चलाया जा रहा हैं। क्या किया जाय। कुछ कार्यक्रम सकते हैं। जो गैर बराबरी समाप्त करने या कम से कम करने में सहायक हो सकती हैं।
१. विरोधी प्रकृति विरोधी वर्तमान विकास मॉडल के खिलाफ जन आन्दोलन संगठित करना । कृषि को तथा लद्यु उद्योगों के जाल को केन्द्र में रख कर नया विकास मॉडल विकसित करके इसके स्थान पर लाना होगा।
२. लोगों के समुदायों की प्रोडयूसर कम्पनियां बना कर संसाधनों पर लोगों की मालकियत स्थापित करना।
३. शिक्षा के व्यापारी करण के खिलाफ राष्ट्रव्यापी संघर्ष छेड़ना और समान शिक्षा व्यवस्था कॉमन स्कूल सिस्टम को स्थापित करने की लड़ाई लड़ना।