सूचना अधिकार के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये

आर.टी.आई युजर ग्रुप की राष्ट्रीय परिषद, राज्य परिषदें एवं जिला परिषदें बनाई जाये इजहार अहमद अंसारी
पिछले 60 वर्षों में देश की प्रगति एवं समृद्धि के लिये सैकड़ों कानून और हजारों योजनायें बनी और लागू की गयीं और इसमें भी कोई शक नहीं कि इन वर्षों में देश ने बड़ी प्रगति की एवं एक विश्व शक्ति के रूप में न सिर्फ ख्याति अर्जित की बल्कि अपने आप को स्थापित भी कर लिया है। लेकिन यह भी सच है कि अनेक महत्वपूर्ण योजनायें भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयीं। अच्छे-अच्छे और आदर्श कानून क्रियान्वयन के स्तर पर दिखावे की चीज बन जाएं यह लोकतन्त्र के लिये अच्छा शगुन नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा कानूनों के क्रियान्वयन के बारे में अनुश्रवण का कोई प्रभावी ढांचा विकसित नहीं किया गया और न ही प्रशासनिक सुधारों की समीक्षा के लिये उच्च स्तर पर कोई ढांचा विकसित किया गया है। जिससे प्रशासनिक सुधारों के नाम पर जो कुछ भी आज तक किया गया वह सिर्फ कानून की पुस्तकों या अखबारों के पन्नों की शोभा बनकर रह गये है। वास्तविक धरातल पर भारत के आम नागरिकों को इनका लाभ नहीं मिल पा रहा है। जो कानून और योजनाएं आम आदमी के संरक्षण एवं खुशहाली के लिए बनाये गये। आज वही उसका उपहास उड़ा रहे है।

केंद्र सरकार द्वारा अरबों-खरबों रूपये देश की गरीब जनता के लिये विभिन्न योजनाओं की मदों में खर्च किये जा रहे है। इनका क्या हश्र हो रहा है इस पर पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की टिप्पणी आप की नजर से जरूर गुजरी होगी जिसमें उन्होंने कहा था कि एक रूपये में से मात्र पंद्रह पैसे जरूरत मंदों तक पहुंच रहे हैं। गोया की पचासी भ्रष्टाचारियों की जेबों में पहुंच गये। पिछले दिनों कुछ स्थितियां जरूर बदली और पंचायती राज्य एक्ट में पब्लिक ओडिट की व्यवस्था लागू करने से कुछ लीकेज, कुछ राज्यों में जैसे कर्नाटक, आन्ध्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि- आदि में कम हुआ है। लेकिन कुछ राज्यों में लीकेज कम होने की बजाय और बढ़ गया हैं। पिछले दिनों उड़ीसा में केंद्र सरकार द्वारा विशेष ओडिट से पता चला कि मनेरेगा योजना में सौ दिनों के सापेक्ष मात्र अठठारह दिनों का काम मजदूरी ग्रामीणों को मिल सका है। कुछ यही हालत उत्तर प्रदेश की है। जहां बुन्देलखण्ड में जमीनी हकीकत का अवलोकन करने के बाद पता चला कि यहां केंद्र पोषित विभिन्न योजनाओं के एक रूपये में से सिर्फ पांच पैसे आम आदमी तक पहुंच पा रहे है। उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार का बोल-बाला तो है ही साथ ही नौकरशाही जिस प्रकार से सियासी गिरोहबंदी का शिकार हो गयी है वह बहुत ही चिंताजनक एवं निराशाजनक है। जो अफसर सियासी बंदी से बचे हैं उन में भी न ही काम करने का उत्साह है और न ही इच्छा शक्ति.....और मौजूदा सियासी हालत मे इस की आशा करना भी बेकार है। प्रशासनिक सुधारों की दिशा में जो अनेक सार्थक प्रयास केंद्र द्वारा किए गए हैं एवं इनफारमेंशन टेक्नालोजी ने जिस स्वच्छ एवं पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था का जो हथियार उपलब्ध कराया है उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र में एवं उसकी कार्यशैली में कही भी देखने को नहीं मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में - गर्वनेन्स और सूचना का अधिकार भी मजाक बन कर रह गया हैं ।

सुशासन के लिये पारदर्शिता और जवाबदेही सबसे ज्यादा जरूरी हैं। इनफारमेंशन टेक्नालोजी ई-गर्वनेन्स और सूचना का अधिकार इसके बुनियादी एवं मूल हथियार हैं। इनका सही इस्तेमाल किया जाए तो भ्रष्टाचार का भूत
रातो-रात भाग सकता है। भ्रष्ट सरकारी तंत्र इसे बखूबी समझता है और इसलिये यह तंत्र इसे लागू न होने के लिये कुचक्रों में लगा हुआ है। सूचना का अधिकार अधिनियम जब लागू हुआ तो लोकतंत्र की वास्तविक सत्ता लोक (आम जनता) के हाथ मे आती हुई साफ-साफ दिखायी देने लगी। इस कानून से देश में पहली बार नौकरशाहों को एहसास हुआ कि वह वास्तव में कुछ ही दिनों में नौकर और आम जनता शाह (मालिक) बनने वाली हैं। जनता उनसे एक-एक पैसे का हिसाब मांगेगी उनके हर फैसले का आधार और औचित्य पूछेगी। हर कार्य का निरीक्षण करेगी। ओडिट करेगी और हर अफसर को अपने (कु) कृत्यों के प्रति जवाबदेह होना पड़ेगा। जिससे अब तक शाही भूमिका में रहे अफसरों ने इस कानून को धाराशायी करने की एक व्यापक रणनीति बनायी और उस पर अमल करना शुरू कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप चार वर्ष बीतने के बाद भी सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 अपनी
शक्तियों के अनुरूप सुशासन, जवाबदेही स्थापित करने में नाकाम रहा है। और यदि इस ओर तुरन्त ध्यान न दिया गया तो इस कानून द्वारा भारत में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का जो सपना आम नागरिक देख रहा हैं वो चकनाचूर हो जायेगा कानून लागू होने के बाद ही इसमें बदलाव की बात की जाने लगी थी और बदलाव के हामी अधिकारियों ने लामबन्द होकर राजनैतिक सत्ता को भी अपने साथ कर लिया है। लेकिन लोकतंत्र के कुछ सजग प्रहरियों की दूरदर्शिता के कारण इस कानून को कमजोर करने वाली शक्तियों को इस समय पीछे हटना पड़ा है लेकिन वह क्तियां आज भी सक्रिय हैं। इसलिये इस कानून को बचाने और इस कानून द्वारा भारत के नागरिकों को नौकरशाही पर जो निगरानी की क्तियां प्राप्त हुई है। उन्हें और प्रभावी बनाने के लिये यह निहायत जरूरी है कि इस कानून को जिले स्तर से लेकर केन्दीय आयोग तक एक लड़ी में पिरोया जाये और एक श्रृंखलाबद्ध संस्था के रूप में स्थापित एवं विकसित किया जायें।