दिसम्बर 17 सितंबर 1943 दिल्ली इंडियन फेडररेशन ऑफ लेबर के तत्वाधान में आयोजिन, आल इंडिया ट्रेड यूनियन वर्कर्स स्टडी कैम्प के समापन-सत्र में दिया गया बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का व्याख्यान आज की शाम आप लोगों के बीच आने और आकर आप लोगों को सम्बोधित करने के लिये मुझे आपके सचिव द्वारा जो आमंत्रित करने की कृपा की गयी उस आमंत्रण के लिये मैं अत्यन्त आभारी हूँ। दो कारणों से इस आमंत्रण को स्वीकार करने में संकोच कर रहा था। पहला कारण तो यह था कि मैं ऐसा कुछ तो बहुत थोड़ा ही कह सकता हूँ। जो सरकार को मानने के लिये बाध्य कर सके। दूसरा कारण यह था जिस ट्रेड यूनियनवाद में आप लोगों की मुख्य रूप से दिलचस्पी है उस ट्रेड यूनियनवाद के बारे में तो मैं बहुत थोड़ा ही कुछ कह सकता हूँ। मैंने आमंत्रण स्वीकार इसलियें कर लिया था क्योंकि मेरी तरफ से अस्वीकृति तो आप के सचिव को स्वीकार ही न होती। मैंने यह भी महसूस किया कि भारत में मजदूर संगठन के विषय में अपने उन विचारों को अभिव्यक्त कर सकने का संभवत: यह सबसे अच्छा अवसर है जो विचार मेरे दिमाग में सबसे ऊपर रहे हैं और मेरा ऐसा ख्याल था कि जो उन लोगों के लिये भी शायद रूचिकर हो सकते हैं जो लोग मुख्य रूप से ट्रेड यूनियनवाद में ही रूचि रखते हैं।
मानव समाज का शासन कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण बदलावों के दौर से गुजरा हैं। एक समय था जब मानव समाज के शासन ने स्वेच्छाचारी राजाओं के द्वारा निरंकुश एकतंत्र का रूप ले लिया था। एक लम्बे और रक्तपातपूर्ण संघर्ष के बाद इसके स्थान पर एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित हुई जो संसदीय लोकतंत्र के नाम से जानी जाती हैं। ऐसा महसूस किया गया था कि शासन व्यवस्था के रूप में बस यही नाम अन्तिम शब्द होगा। ऐसा विश्वाश किया गया था कि यह एक ऐसी सहस्त्राब्दी लाने वाली शासन प्रणाली होगी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता, सम्पत्ति तथा सुख प्राप्त करने का अधिकार होगा। और ऐसी आशाओं की अच्छी खासी वजहें भी थी। संसदीय लोकतंत्र में जनता की आवाज को अभिव्यक्त करने के लिए विधायिका होती है, कार्यपालिका होती है जो विधायिका की अधीनस्थ तथा विधायिका का आज्ञा पालन करनें के लिये बाध्य होती है और विधायिका तथा कार्यपालिका से भी ऊपर इन दोनों को नियंत्रित करने के लिए और इन दोंनों को अपनी निर्धारित सीमाओं में रखने के लिए न्यायपालिका होती है। संसदीय लोकतंत्र में एक लोक प्रिय सरकार-यानी जनता 'की', जनता 'द्वारा' एवं जनता 'के लिए' सरकार के सारे चिन्ह मौजूद होते हैं। इसलियें यह कुछ अचरज ही की बात है कि हालांकि इसे प्रारंभ हुये और अपनाये हुये एक शताब्दी भी नहीं बीती फिर भी इसके खिलाफ एक विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इसके खिलाफ इटली में, जर्मनी में, रूस में और स्पेन में विद्रोह हो गया और ऐसे बहुत थोडे ही देश है जहाँ संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ असंतोष न रहा हो। संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ यह अतृप्ति और असंतोष आखिर क्यों कर होना चाहिये ? यह एक विचारणीय प्रश्न हैं। भारत के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार किया जाना जितना जरूरी है उतना ही कदाचित किसी दूसरे देश में भी जरूरी न होगा। भारत संसदीय लोकतंत्र स्थापित करने की दिशा में अग्रसर होने जा रहा है। किसी को भारतवासियों से पर्याप्त साहस जुटाकर टोकने की जरूरत हैं कि संसदीय लोकतंत्र से सावधान, यह एक ऐसी सर्वश्रेष्ठ वस्तु तो नहीं है जैसी कि यह ऊपर से देखने में लगती हैं ।
संसदीय लोकतंत्र असफल क्यों हो गया ? तानाशाहों के देशो में तो यह इसलिए असफल हो गया क्योंकि यह एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसकी गतिविधियाँ अत्यन्त धीमी और मन्थर गति से चलती है। यह तीव्र कार्रवाई को विलंबित कर देती है। संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका विधायिका द्वारा अवरूद्ध न भी कर दी गयी तो न्यायपालिका द्वारा अवरूद्ध की जा सकती है। संसदीय लोकतंत्र तानाशाही को खुली छूट नहीं देता हैं। यही कारण है कि इटली, स्पेन, जर्मनी जैसे देशो में यह शासन प्रणाली एक गैर भरोसेमन्द या अविश्वासनीय संस्था बन गयी जिसने खुशी-खुशी तानाशाहियों का स्वागत किया। यदि सिर्फ तानाशाह अकेले ही संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ होते तब तो कोई बात न थी। उनके संसदीय लोकतंत्र विरोधी रवैये का स्वागत ही किया जाता क्योंकि उनका यह विरोधी रवैया इस बात का प्रमाण होता कि संसदीय लोकतंत्र तानाशाही को रोकथाम का एक कारगर औजार हो सकता हैं। लेकिन विडम्बना की बात तो यह है कि उन देशो में भी संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ एक भारी असंतोष है जहां के लोग तानाशाही के विरोधी है। संसदीय लोकतंत्र के लिए यही तो सबसे ज्यादा अफसोस की बात है। यह और भी ज्यादा अफसोसजनक बात है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र एक जगह पर जड़ और स्थिर बन कर नहीं ठिठका रहा। यह तीन दिशाओं में आगे बढ़ा। इसने अपना सफर समान मताधिकारों के रूप में राजनीतिक अधिकारों की समानता से शुरू किया। संसदीय लोकतंत्र रखने वाले ऐसे बहुत कम देश हैं। जहां वयस्क मताधिकार न हों। संसदीय लोकतंत्र राजनीतिक समानता के सिद्धान्त को सामाजिक एवं आर्थिक अवसर की समानता तक विस्तार देते हुये अग्रसर हुआ। इसने मान्यता दी कि राज्य को उन व्यापारिक निगम समूहों द्वारा पकड़ कर दूर नहीं रखा जा सकता जो अपने उदेश्यों के चरित्र में ही समाज-विरोधी होते हैं। इस सबके बाद भी संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ उन देशो तक में काफी असंतोष है जो लोकतंत्र के हामी हैं। स्पष्ट ही है कि ऐसे देशो में असंतोष के कारण उन कारणों से तो भिन्न ही होने चाहिये जो कारण तानाशाहों देशो द्वारा बताये-ठहराये जाते हैं। बहुत ज्यादा विस्तार में जाने का समय तो नहीं है लेकिन सामान्य भाषा में यही कहा जा सकता है कि यह आम जनों को स्वतंत्रता, सम्पत्ति और सुख प्राप्त करने के अधिकार प्रदान कराने का भरोसा दिलाने में विफल रहा।अगर यह सच है तो उन कारणों को जानना महत्वपूर्ण है जिन कारणों ने यह विफलता पैदा की है। इस विफलता के कारणों को या तो गलत विचार धाराओं में या फिर ढाँचागत गलत संरचना अथवा दोनों मे ढूँढ़ा जा सकता हैं। और मेरे ख्याल से तो वे कारण दोनों में निहित हैं। अगर उन गलत विचारधाराओं की बात करूं जो संसदीय लोकतंत्र की विफलता के लिये जिम्मेदार रही हैं तो मुझे कोई सन्देह नहीं हैं कि “ संविदा की स्वतंत्रता '' (लिबर्टी ऑफ़ कोंट्राक्ट) (यानी द्विपक्षीय सौदेबाजी का अनुबन्ध करने की स्वतंत्रता) का विचार उन त्रुटिपूर्ण विचारधाराओं में से एक हैं। संविदा का विचार पवित्रीकृत हो गया और उसे स्वतंत्रता के नाम पर जायज ठहराया गया। संसदीय लोकतंत्र ने आर्थिक विषमताओं पर कोई ध्यान ही नहीं दिया और संविदा की स्वतंत्रता का संविदा के पक्षों पर आये नतीजों का आंकलन करने की परवाह इस तथ्य के बावजूद भी नहीं की कि वे पक्ष अपनी सौदेबाजी या मोल-तोल करने की व्यक्ति के मामले में परस्पर असमान थे। यदि संविदा की स्वतंत्रता ने सबल को निर्बल पर ठगी और धोखाधड़ी करने का अवसर दे दिया तब भी संसदीय लोकतंत्र ने उस की परवाह नहीं की । उसी का नतीजा है कि संसदीय लोकतंत्र स्पष्ट रूप से स्वतंत्रता के मुखर हिमायती के रूप में डटा दिख रहा है और यह गरीब, पद-दलित और अधिकार-वंचित वर्ग की बेइंसाफियों में लगातार इजाफा ही करता रहा ।
दूसरी गलत विचार धारा जिसने संसदीय लोकतंत्र को दूषित-विकृत कर दिया है वह है इस अहसास की विफलता कि जहां कोई सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र ही न हो वहां तो राजनैतिक लोकतंत्र सफल हो ही नहीं सकता। कुछ लोग इस बात पर प्रश्न उठा सकते हैं। जो लोग इस पर प्रश्न उछालनें में लगे रहते है मैं उन लोगों से एक प्रति-प्रश्न करना चाहता हूँ। और वह प्रति-प्रश्न यह है कि संसदीय लोकतंत्र इटली, जर्मनी और रूस जैसे देशो में आखिर इतनी आसानी से क्यों खत्म हो गया ? यह इंग्लैण्ड और अमेरिका में उतनी आसानी से खत्म क्यों नहीं हुआ ? मेरे ख्याल से इसका सिर्फ एक ही उत्तर है और वह उत्तर यह है कि बाद के गिनायें देशो में पूर्वोल्लिखित देशो की तुलना में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र ज्यादा मात्रा में मौजूद था। राजनीतिक लोकतंत्र के लिये सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र ऊतक और तन्तु जैसे ताना-बाना होते हैं। ये ऊतक और तन्तु जितने ज्यादा मजबूत होंगे, लोकतन्त्र के श रीर की मजबूती उतनी ही ज्यादा होगी। लोकतन्त्र तो समानता का ही दूसरा नाम है। संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता के लिए तो एक जुनून की भावना विकसित कर दी लेकिन इसने समानता के साथ करीबी रिश्ता तो दरकिनार, कभी भी साधारण परिचय तक का रिश्ता नहीं रखा। यह समानता के महत्व को महसूस करने में निहायत विफल रहा और इसने स्वतंत्रता तथा समानता के बीच एक सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश तक नही की, जिसका नतीजा है कि स्वतंत्रता ने समानता को निगल लिया और लोकतंत्र को महज एक घृणित नाम और मखौल मात्र बना डाला।