जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, द मूवमेंट ऑफ इंडिया, स्टॉप-टीबी इफोरम, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस और आशा परिवार ने संयुक्त रूप से मांग की है कि टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट (ब्लड या एनटीबाडी टेस्ट) पर भारत सरकार द्वारा लगाए हुए प्रतिबंध को सख्ती से लागू कराया जाये। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पुरुस्कृत और सीएनएस स्टॉप-टीबी इफोरम के निदेशक बाबी रमाकांत ने बताया कि भारत सरकार ने 7 जून 2012 के बाद से टीबी सीरोलोजिकल टेस्ट के इस्तेमाल, बिक्री, आयात, या निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया है क्योंकि यह टेस्ट टीबी परीक्षण के लिए उपयोगी नहीं हैं और रोगी का पैसा बेफजूल ही खर्च होता है।
तीसरा लिंग समाज में बहिष्कृत क्यो?
रवीना बरिहा छत्तीसगढ़ की एक पढ़ी लिखी मितभाषी आदिवासी हिजड़ा हैं। उनकी दुबली पतली काया से यह पता ही नहीं लगता कि वो एक तेज़ तर्रार कार्यकर्ता हैं जो हिंजड़ों/किन्नरों को सभ्य समाज में एक सम्मानित स्थान दिलाने के लिए दृण संकल्प हैं। अन्य कार्यकर्ता उन्हें छोटा रॉकेट के नाम से बुलाते हैं। अपने पहनावे और बातचीत के तौर तरीकों से रवीना कहीं से भी एक किन्नर जैसी नहीं दिखती हैं। हाल ही में दिल्ली में आयोजित हिजड़ा हब्बा सम्मेलन में उनसे बात करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जहाँ उन्होने किन्नर समुदाय की आकांक्षाओं और आशाओं की; उनके दारुण दु:खों और पीड़ा के बारे में खुल कर चर्चा की।
स्नेहमयी चिकित्सा से जीती जा सकती है बीमारी की जंग: किस्सा शांति का
शांती मुंबई में रहने वाली एक 38 वर्षीय अल्पशिक्षित और गरीब महिला हैं| वह पिछले पाँच वर्षो से एचआईवी-ग्रस्त हैं और उन्हें ड्रग-रेजीस्टेंट (औषधि प्रतिरोधक) टीबी भी है | उनकी कहानी सड़कों पर जिन्दगी बसर करने वाले उन लाखों लोगों की कहानी है जिनके लिए कोई बीमारी न होने पर भी जीवन का प्रत्येक दिन एक कठिन संघर्ष होता है | एचआईवी-टीबी के सह-संक्रमण के दोहरे बोझ की चिकित्सा लेना जिन्दगी की अंतिम उम्मीद समाप्त हो जाने जैसा है | शांती ने अपनी व्यथा-कथा हाल ही मे मेडिसिन्स सान्स फ़्रोंटिएर (एमएसएफ) नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था को बयान की, जिसकी देख-रेख में कुछ माह पूर्व उनकी एमडीआर-टीबी की चिकित्सा प्रारम्भ हुई थी|
उनके पूर्व-पति की म्रत्यु 1991 में एड्स के कारण हो गई थी, और उनकी एकमात्र पुत्री भी कुछ वर्षो पहले चल बसी| वे अपने पुराने दिनों और वर्तमान की व्यथा का बयान इस प्रकार करती हैं—“मेरा जन्म व पालन मुंबई में हुआ| मेरे बचपन के दिन बहुत अच्छे थे| मुझे समुद्र के किनारे खेलना और फोटो खींचना बहुत पसंद है| अपने विवाह के बाद भी मैं अक्सर अपनी पुत्री और पति के साथ यहाँ (चौपाटी तट) पर आकर खुश होती थी। पर अब मैं बाहर कहीं भी घूमने नहीं जा पाती हूँ| मैं हर समय काफी थकी सी और बीमार रहती हूँ| यहाँ तक कि कोई त्योहार या उत्सव भी नहीं मनाती| मेरी जिन्दगी दवाओं के इर्द-गिर्द घूमने के कारण नारकीय हो गई है| काश कि वो पुराने दिन फिर से लौटकर आ पाते|”
शांति की मुसीबतों की कहानी 2006 में शुरू हुई जब वह दस्त, और बार-बार होने वाले तेज़ बुखार व उल्टियों के कारण बहुत बीमार हो गईं| उन्होने गैर-सरकारी अस्पताल में इलाज करवाया| वह उस समय अपने दूसरे पति के साथ रह रही थीं| काम भी करती थीं। लेकिन सारा धन उनकी बीमारी पर ही व्यय हो जाया करता था | वह याद करती हैं कि, “मैं एक महीने ठीक रही हूंगी कि फिर से परेशानी शुरू हो गई| मैंने 400 रुपए खर्च करके प्राइवेट में एचआईवी की जाँच भी कराई लेकिन रिपोर्ट निगेटिव थी। लेकिन बाद में एचआईवी की पुष्टि हुई और 2007 में जे जे हॉस्पिटल में मुझे एंटिरेट्रोवाइरल थेरेपी (एआरटी) पर रक्खा गया |”
जो भी हो, उनके डीआर-टीबी रोग का निदान और इलाज तो और भी कठिन कार्य था| मरीन लाइंस के म्यूनिस्पल अस्पताल में उनके थूक का तीन बार परीक्षण किया गया पर टीबी के लिए परिणाम नकारात्मक रहा| फिर भी उन्हें छः महीने तक टीबी की दवा दी गई | उनको एक-एक दिन छोड़कर 24 इंजेक्शन और गोलियां लेनी होती थीं| लेकिन हालत में कोई सुधार न होने के कारण, वो दो महीने की चिकित्सा की बाद फिर उसी अस्पताल में वापस गईं और उनके एक्स-रे (जो उन्होने निजी तौर पर अस्पताल के बाहर करवाया था) के आधार पर उन्हे दुबारा आठ माह का टीबी उपचार दिया गया |
लेकिन फिर भी उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, और वे लगातार खाँसी, कमजोरी, और भूख न लगने की वजह से बहुत परेशान रहीं| लेकिन डॉक्टरों ने उनको तीसरी बार टीबी की दवाएं देने से मना कर दिया क्योंकि इससे उनकी किडनी खराब हो सकती थी|
“तब मैं जे जे अस्पताल में पहले से ही एआरटी पर थी | लेकिन इलाज से कोई फायदा नहीं हो रहा था | मेरी तबीयत और भूख में कुछ भी सुधार नहीं था | मैंने वहाँ के डाक्टरों को बताया कि टीबी के इलाज के मैं पहले ही दो कोर्स ले चुकी थी | तब मुझसे एक फार्म भरवाया गया और मुझे जीटी के एक अस्पताल मे भेज दिया गया | वहाँ फिर मैंने टीबी के इलाज के लिए गोलियों और इंजेक्शन का 6 माह का कोर्स पूरा किया|”
अंत में जे जे अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा 2007 में उनको ड्रग रेजीस्टेंट टीबी (डीआर-टीबी) होने की पुष्टि की गई और यह भी बताया गया कि इस महँगे इलाज को पूरा करना उनके लिए कठिन होगा | अस्पताल में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने परेशान शांति को समझाया कि, “यहाँ पर इसका कोई इलाज नहीं है| निजी डॉक्टर से इलाज कराना काफी महंगा भी है| तुम्हारे पास लाखों रूपये कहाँ से आयेंगे? इसलिए तुम बस पौष्टिक आहार खाती रहो और जिन्दगी भर एआरटी दवा जारी रखो| अगर तुम यह दवा छोड़ दोगी तो मर जाओगी”।
शांति पूरी तरह से निराश हो चुकी थी। वह अब तक टीबी की चिकित्सा का पूरा कोर्स तीन बार ले चुकी थी – दो बार 6-6 महीने का और एक बार 8 महीने की अवधि का, लेकिन हर बार उसकी हालत सुधरने के बजाय और भी बिगड़ती गई | भाग्यवश, नवम्बर 2011 में उनका सम्पर्क एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जिसने उन्हें एमएसएफ तक पहुँचाया और जहाँ अन्त में उनको सही इलाज मिला | एमएसएफ में अब डीआर-टीबी का उपचार कराते हुये उन्हें कुछ महीने हो चुके हैं| लेकिन उनको एचआईवी का भी संक्रमण होने के कारण (वो 2007 से एआरटी पर हैं),उनकी रोज़ लेने वाली दवाओं की संख्या बहुत है | वे कहती हैं, “मेरी दवाओं की संख्या काफी है | मुझे केवल टीबी के लिये ही बहुत सी गोलियां लेनी होती हैं—सवेरे 6 गोली और रात को 8 गोली| इसके अलावा एंटि-रेट्रोवाइरल दवाएं भी लेनी होती हैं| कभी-कभी कुछ गोलियां उलटी में निकल भी जाती हैं, इसलिये उल्टी रोकने के लिये भी कुछ दवाएं खानी होती हैं| मुझे इंजेक्शन भी लगवाने पड़ते हैं| यदि दवाएं कुछ कम हो जाएँ तो काफी आराम होगा| अब तो यह लगने लगा है है कि जैसे दवाएं ही मेरा खाना हैं | मेरे पेट मे खाने से अधिक दवाएं होती है | डाक्टर कहते हैं कि मेरा वजन बढ्ने पर गोलियों की संख्या कम हो जाएगी| लेकिन अभी मेरा वजन नहीं बढ़ रहा है| मुझे फल और दूध लेने को कहा गया है, लेकिन दूध और दही मेरा पेट पचा नहीं पा रहा है| इस समय ज़िंदगी बहुत बेकार है|”
इन सभी दवाओं के बहुत बुरे साइड इफेक्ट (पार्श्व प्रभाव) का सामना कर सकना बहुत कठिन होता है| शांति दुखित होकर कहती हैं कि, “मैं ठीक से खा नहीं सकती हूँ| हर समय उल्टी करती रहती हूँ और सारे दिन उनींदापन महसूस करती हूँ- जैसे कि मैंने नशा किया हो| ऐसा लगता है कि जैसे मेरा दिमाग काम ही नहीं कर रहा हो, मैं निराशा का अनुभव करती हूँ | हर वक़्त इतनी अधिक घबराहट महसूस होती है कि जैसे मैं मर ही जाऊँगी | दवा लेने के बाद मुझे चक्कर आते हैं और बहुत गर्मी भी लगती है|”
शांति के रहने की सुविधाएं भी अपर्याप्त हैं | वर्षो से उनकी अधिकांश कमाई जाँचों और दवाओं पर खर्च होती रही है | अपने पहले पति की म्रत्यु के बाद से वह अपने एक दोस्त के साथ रह रही हैं जिनका प्यार और देखभाल ही उनकी एकमात्र आशा है| शांति का शराबी भाई और बूढ़ी माँ (जो मधुमेह की रोगी हैं) भी उसके साथ रहते हैं | शांति को शिकायत है कि “मेरे पास रहने के लिए सही जगह तक नहीं है | मेरा घर बहुत छोटा और बुरे हाल में है | मेरे यहाँ बिजली भी नहीं है | पंखा न होने से अधिक गरम हो जाता है| जब मैं दवाएं खाती हूँ तो बहुत गरम महसूस करती हूँ| यहाँ पर नहाने की समस्या भी है| मुझे ऐसी जगह की जरूरत है जहाँ मैं पंखे के नीचे आराम से सो सकूँ और दवा खाने के बाद आराम कर सकूँ|”
शांति के जीवन की तूफानी राहों में उनके साथी का प्यार एक लंगर की तरह है | उसके शब्दों में, “मेरे पति सदा मुझे आशावान बनाये रखते हैं| वही मेरी हिम्मत के स्रोत हैं| मैं आज उनके कारण ही जीवित हूँ | मेरे पहले पति की म्रत्यु के पश्चात मेरा इनसे विवाह हुआ| मेरे अनेकों दोषों के बावजूद, वह मेरी अच्छे से देखभाल करते हैं| यहाँ तक कि वे मेरे कपड़े भी धोते हैं और नहाने में मेरी मदद भी करते हैं| यदि ऐसा न होता मेरा इलाज बहुत पहले ही बंद हो गया होता| उनके साहस और विश्वास के कारण ही मैं सब कुछ करती रही| मैंने तो जीने की सभी आशाएँ छोड़ दी थीं| मैं बस मरना चाहती थी, कोई दवा या इंजेक्शन लेना नहीं चाहती थी| लेकिन मैं अपने पति के प्यार के कारण ही इतनी दवाएं खा रही हूँ। वो कहते हैं—“यदि तुम मर जाओगी तो मैं भी यह संसार छोड़ दूँगा”।
इतना अधिक ध्यान रखने वाले साथी को पाकर शांति भाग्यशाली तो हैं ही, लेकिन इससे भी अधिक भाग्यशाली एमएसएफ की शरण में आकर हैं (शर्मिला मैडम और रोमा मैडम के प्रयासों के माध्यम से) जहाँ पर वे डीआर-टीबी का निःशुल्क इलाज पा रही हैं| यह उनके लिए स्वर्णिम अवसर के समान है| लेकिन हजारों अन्य इतने किस्मत वाले नहीं होते| बीमारी के प्रथम चरण में ही अयोग्य डाक्टरों के चक्करों में पड़कर वे अपनी बीमारी का सही निदान नहीं प्राप्त कर पाते हैं | इलाज शुरू होने पर भी अनेकों कारणों से—महँगा इलाज, दवाओं का बोझ, दवाओं के विषाक्त पार्श्व-प्रभाव, बीमारी के बारे में जानकारी और जागरूकता का अभाव-- इलाज पूरा नहीं हो पाता है| इसलिए वे अपने दुखों को समाप्त करने के लिए, मौत का इंतजार करते हुये, दयनीय परिस्थितियों में जीवन के दिन काटते हैं| हमें उस दिन का इंतज़ार है जब सभी जरूरतमंदों को, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का विचार किए बगैर, गुणात्मक एवं उचित चिकित्सा दी जा सकेगी।
(अंग्रेजी में शोभा शुक्ला के मूल लेख का सुश्री माया जोशी द्वारा हिंदी में अनुवाद)
राजिन्दर सच्चर भी हो सकते हैं राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार
पिछले दिनों विभिन्न राजनीतिक दल अपनी-अपनी पसंद के राष्ट्रपति पद हेतु नाम प्रस्तावित करने में लगे रहे। शुरू में माना जा रहा था कि मुलायम सिंह यादव भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नाम का समर्थन करेंगे। यह धारणा तब और मजबूत हो गई जब शरद पवार के इस प्रस्ताव का कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार गैर-राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए मुलायम सिंह ने समर्थन किया। किन्तु फिर मुलायम सिंह इस बात से पीछे हटते दिखे। उधर लालू यादव ने उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के नाम का प्रस्ताव राष्ट्रपति पद के लिए रख दिया। लालू यादव कांग्रेस के इतना नजदीक हैं कि ऐसा प्रतीत हुआ कि कांग्रेस की पसंद भी हामिद अंसारी ही हों। पश्चिम बंगाल के भूतपूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी, ए.के. एंटनी, मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे और यहां तक कि डॉ मनमोहन सिंह,के नाम भी चर्चा में आए। किन्तु अब वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रणव मुखर्जी के नाम पर सहमति बनती दिखाई पड़ रही है। पक्ष-विपक्ष के कई दलों को अभी तक चर्चा में आए सभी नामों में से सबसे स्वीकार्य नाम यही मालूम पड़ रहा है।
किन्तु कांग्रेस के ही कुछ नेताओं, जैसे, सलमान खुर्शीद व रेणुका चौधरी, के बयानों से यह भी लगता है कि शायद कांग्रेस पार्टी, जो वर्तमान समय में विश्वसनीयता के गम्भीर संकट से गुजर रही है, के लिए प्रणव मुखर्जी जैसे संकट मोचक व्यक्ति की सेवाओं की पार्टी को ज्यादा जरूरत है। यह प्रणव मुखर्जी का दुर्भाग्य ही है कि नरसिंह राव के समय से प्रधान मंत्री पद के दावेदार होते हुए भी हमेशा उनसे अपेक्षा की गई है कि वे अपने व्यक्तिगत हित को पार्टी हितों के आधीन ही रखेंगे।
वैसे राष्ट्रपति पद की गरिमा और इस पद पर रहने वाले के लिए तटस्थता बनाए रखने की अवाश्यकता को देखते हुए यह व्यक्ति किसी मुख्य धारा के दल से न ही जुडा़ हो तो अच्छा रहेगा। लेकिन अब्दुल कलाम जैसा एकदम अराजनीतिक व्यक्ति भी ठीक नहीं है क्योंकि उसे देश की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति की ठीक-ठीक समझ तो रखनी चाहिए।
देश की राजनीतिक स्थिति की अच्छी समझ रखने वाले एक व्यक्ति जो दलीय राजनीतिक के दायरे से बंधे नहीं हैं और जो शायद इस समय देश के सबसे लोकप्रिय जन नायक हैं वे है अण्णा हजारे। उन्होंने लोकतंत्र में संसद की ताकत से सम्प्रभु जनता की ताकत है यह देशवासियों को दिखाया है। संसद ने भी उनको वो सम्मान दिया है जो किसी युग पुरुष को मिलना चाहिए। कायदे से तो सभी दलों को अण्णा के लिए सर्व सम्मति से राष्ट्रपति पद छोड़ देना चाहिए। किन्तु अण्णा ने किसी संवैधानिक पद को न ग्रहण करने का अपना फैसला पहले ही सुना दिया है। वैसे अण्णा हजारे के राष्ट्रपति बनने से उस प्रक्रिया की शुरुआत हो सकती थी जिसके लिए देशवासियों की अपेक्षा उनके आंदोलन से जग गई है - यानी भ्रष्टाचार से मुक्ति की।
इस कड़ी में एक अन्य नाम है न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर का। दिल्ली उच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश होने की वजह से संविधान एवं विधि के ज्ञाता होने के साथ-साथ राजिन्दर सच्चर समाज की भी बहुत गहरी समझ रखते हैं जैसा उन्होंने मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर अपनी अध्यक्षता में बनी समिति की रपट प्रस्तुत कर दिखाया है। आजादी के पहले, 1946, में ही वे सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे और डॉ राम मनोहर लोहिया के साथ काम करने का उनको बहुमूल्य अनुभव प्राप्त है। उनके पिता भीमसेन सच्चर अविभाजित पंजाब में मंत्री तथा आजादी के बाद भारतीय पंजाब के पहले मुख्य मंत्री रहे। इसलिए राजिन्दर सच्चर को राजनीति को काफी करीब से देखने का मौका मिला है। राजिन्दर सच्चर उस दौर के व्यक्ति हैं जब लोग अपने राजनीतिक मूल्यों में निष्ठा की वजह से अपने को राजनीतिक प्रलोभन से दूर रखना जानते थे।
भारतीय राजनीति में जो सबसे बड़ा क्षरण हुआ है वह है मूल्यों का। जिस किस्म की अवसरवादी राजनीति हमारे देश पर हावी है उससे किसी का भला तो नहीं हो सकता। इस देश की राजनीति को पटरी पर लाने का महत्वपूर्ण काम अण्णा हजारे और राजिन्दर सच्चर जैसे व्यक्ति ही कर सकते हैं जिनकी देश के संविधान में निहित मूल्यों में गहरी आस्था हो। कोई मुख्य धारा की राजनीति से आया हुआ व्यक्ति तो यह काम नहीं कर सकता न हम आज दावे के साथ यह कह सकते हैं कि उसकी संवैधानिक मूल्यों में आस्था ही है।
राजिन्दर सच्चर का इस देश के लिए सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि जब आतंकवाद की राजनीति ने इस देश को सशंकित कर दिया था और मध्य वर्ग और संचार माध्यम देश के हरेक मुसलमान में आतंकवादी की छवि देखने लगे थे तो मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का वास्तविक चित्रण जनता के सामने रख इस देश को बताया कि मुसलमान दोषी नहीं बल्कि पीड़ित है। रातों-रात देश के मन में मुसलमान का चित्रण बदल गया। इससे राजिन्दर सच्चर ने न सिर्फ मुसलमानों का भला किया बल्कि देश का भी भला किया। समस्या को ठीक से समझे बिना उसका हल नहीं खोजा जा सकता है। अब देश ने यह समझ लिया है कि आंतकवाद का किसी धर्म विशेष से ताल्लुक नहीं है और मुसलमानों का पिछड़ापन उनकी असुरक्षा का कारण बनता है।
यह राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता वाली रपट का ही परिणाम है कि मुस्लिम आरक्षण का सवाल अब भाजपा को छोड़ लगभग सभी दल उठा रहे हैं। बल्कि इस बात की होड़ लगी है कि कौन मुसलमानों का ज्यादा भला कर दे। इस दृष्टि से राजिन्दर सच्चर का योगदान ऐतिहासिक है।
यदि सभी दल मिल कर न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर का चुनाव राष्ट्रपति पद के लिए करते हैं तो इस देश में एक नए राजनीतिक अध्याय की शुरुआत हो सकती है जिसमें वे मूल्य पुनः स्थापित होंगे जिनके बिना हमारे लोकतंत्र का लाभ आम इंसान को नहीं मिल पा रहा। राजनीतिज्ञ न होते हुए भी गहरी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समझ रखने वाला और जीवन में सादगी के मूल्य को जीने वाला व्यक्ति भारतीय राजनीति को वह दिशा दे सकता है जिसका सपना हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा था।
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक, मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं। संदीप जी, लोक राजनीति मंच के अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं. वें पूर्व आई.आई.टी. कानपुर और आई.आई.टी. गांधीनगर में पढ़ा चुके हैं, और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के समन्वयक हैं)
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