एक क्रांतिकारी का शहर - नवांशहर
प्रदीप सिंह
देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूलने वाले क्रांतिकारियों के सपने चकनाचूर हो गए। अब उनके जीवन से जुड़े स्थानों को भी उपेक्षा से गुजरना पड़ रहा है। अपने छोटे से जीवन काल में ही मिथक बन चुके भगत सिंह का पैतृक गांव उनके सपनों और विचारों से कोसों दूर हो चुका है।
भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा, चकनंबर 105 (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 23 मार्च 1931 को इन्हें लाहौर में फांसी दी गई। यह अजीब संयोग है कि आजादी के बाद उनका जन्म स्थान और शहीद स्थल पाकिस्तान के खाते में चला गया। इनका जन्म वर्तमान पाकिस्ततान के लायलपुर जिले में हुआ लेकिन पजाब के नवांशहर के खटकड़कलां में भगत सिंह का पुष्तैनी गांव है। भगत सिंह का जन्म तो यहां नहीं हुआ था। पर एक पुष्तैनी घर को छोड़कर कुछ भी भगत सिंह से जुड़ी हुई नहीं दिखती है।
कहने को तो यह गांव देश के कई शहरों को भी संपंनता में मात दे सकता है। पर शहीद-ए-आजम की शनदार शहीदी परंपरा और राजनीतिक विरासत को अपनाने वाला गांव में कोई नहीं दिखता है । गांव में सब कुछ है। हरे-भरे खेत, पक्की सड़कें,आलीषान इमारतें जो अप्रवासी ग्रामीणीं के पैसें से बनी है। अगर नहीं है तो उनकी विचारधारा और उसको अपनाने वाले लोग।
गांव के ज्यादातर परिवारों का कोई न कोई सदस्य विदेशो में रहता है। गांव में कच्चे मकान नहीं दिखाई देते। भव्य इमारतों ने बेशक भगत सिंह के घर को ढक लिया है। पर अपने इस महान पूर्वज के याद में ग्रामीणों की तरफ से कुछ भी नहीं बना है। गांव के कुछ पहले ही एक प्रवेश द्वार है जो शहीद-ए-आजम भगत सिंह द्वार कहलाता है। जैसा कि पंजाब के अन्य गांवों में प्रवेश द्धार है। इसको पंजाब सरकार ने बनवाया है। मुख्यद्धार के पास ही पंजाब सरकार ने स्मारक बनवाया है। स्मारक में गांव के सरदार जोहन सिंह ( जो कैलिर्फोनिया में रहते है) द्धारा दिया वाटर फ्रीजर लाल रंगों में उनकी दानषीलता की कहानी कह रहा है। मुख्यद्धार की मुख्य सड़क रेलवे लाइन पार करके भगत सिंह के घर के बगल से निकल जाती है। चार कमरे का यह मकान पीले रंग से पुता है। घर के पास एक पुस्तकालय है यह पिछली सरकार ने चुनाव के समय बनवा दिया था। बाहर पंजाब सरकार के सांस्कृतिक और पुरातत्व विभाग की नोटिस चस्पा है।
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के प्रयास से घर के बाहर हाल ही में एक पार्क बनाया गया है। उसके पहले गांव भर का कचरा और गंदा पानी वहां जमा होता था। वैसे गांव और आस-पास की महिलाएं भगत सिंह की प्रतिमा पर मत्था टेकती है । दीवाली के दिन प्रतिमा पर दीप भी जलाये जाते है। भगत सिंह को याद करने के सवाल पर स्मारक की सुरक्षा व्यवस्था में तैनात रंजीत सिंह कहते है कि ऐसा नहीं है कि हम लोग भगत सिंह को याद नहीं करते है। क्यों याद करते हो पर तपाक से उत्तर दमते है कि आज जब लोग सिर्फ अपने लिए ही सोचते है । हमारे यहां का एक नौजवान ने पूरे देष के बारे में सोचा और फासी पर चढ़ गया।
युवा पीढ़ी दिलों में भगत सिंह शायद आज भी धड़कते है। तभी तो बगल के कस्बे गुनाचैर के सरकारी हाई स्कूल के दसवीं में पढ़ने वाले बीरेंदर सिंह और रोहित कुमार भगत सिंह जैसा बनाना चाहते है। इस उम्र में शायद उन नौजवानों को पता नहीं है कि भगत सिंह बनने पर जिदंगी और मौत का फासला खतम हो जाता है। छात्र बलजीत कुमार,बुद्धदेव और दीपक कहते है कि भगत सिंह ने लाला लाजपत राय के मौत का बदला लिया था। फिलहाल इससे ज्यादा भगतसिंह के बारे में सरकारी गैर सरकारी स्कूलों में कुछ नहीं पढ़ाया जाता है।
भगत सिंह पार्क में माली का काम करने वाले चूर सिंह कहते है कि जलियावाला बाग में हजारो किसानों की हत्या हुई। भगत सेंह ने बदला लिया और फांसी पर चढ़ गए। उसके बाद गांव के ही कुछ लोग भगत सिंह के परिवार के खिलाफ पुलिस को भड़काने लगे। जिससे पूरा परिवार गांव छोड़कर यूपी के सहारनपुर में बस गया। अब भगत सिंह के यादों को छोड़ कर गांव में कुछ नहीं है। चूर सिंह रामदासी सिख है। कहते है कि आज भी जमीन सिर्फ जाटों के पास है।
भगत सिंह का सपना और उस दौर के सवाल आज भी उनके गांव में मौजूद है। कमोवेश यही हाल सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान का है। भगत सिंह के जन्म के 102 वर्ष और भारत की आजादी के 62 साल हो चुके है। इस दौरान पूरे देश में बदलाव की बयार बही। इस गांव में भी बदलाव है। गांव में हर जाति के लोग है। जाट सिख, सवर्ण हिंदू, दलित, खत्री और बनिया। रामदासी सिख आज भी पहले की तरह ही मेहनत मजदूरी कर रहे है। यह बात अलग है कि मजदूरी कुछ बढ़ गयी है। गांव में दो गुरुद्धारे है। एक सिंह सभा का दूसरा रविदास का जिसमें दलित सिख जाते है। वैसे किसी गुरुद्धारे में किसी के जाने की रोक नहीं है। लेकिन तकनीकी रुप में ही सही दलितों को आज भी दूसरा पूजा स्थल बनाना पड़ रहा है। जाट सिख उनके साथ असहज महसूस करते है। भगत सिंह आजीवन जाति पांत,सांप्रदायिकता और छुआ-छूत का विरोध करते रहे । अपने निजी जीवन में वे नास्तिक थे। वे समानता के पक्षधर और पूंजीवाद के धुर विरोधी थे।
पिछले कुछ दिनों से गांव में 28 सितंबर (जन्म दिन) और 23 मार्च (शहादत दिवस) को एक मेला लगता है। शहादत दिवस का मेला सरकारी होता है। और जन्म दिन का गांव वालों के सहयोग से। सरकार के नुमामिंदे और मुख्यमंत्री तक इसमें शरीक होते है। मेंले में हर राजनीतिक दलों के लोग अपना लाव लष्कर के साथ आते है। मंच पर खड़े होकर वे अपने को भगत सिंह के विचारों का असली वारिष बताते है। फिलहाल इसमें शहीदों को श्रंद्धाजलि कम राजनीति ज्यादा होती है। सरपंच गुरमेल सिंह कहते है कि मेले के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है। मंत्री और अधिकारी आते है। यह मेला बच्चों के लिए सैर सपाटा से ज्यादा कुछ नहीं है।
आजादी के पहले और उसके बाद भगत सिंह और उनकं विचारों को सत्ता प्रतिस्ठानों ने लगातार दबाने और खारिज करने की कोषिश की। भगत सिंह को भुलाने की जितनी साजिषें और सड़यंत्र रचे गए। उसके विपरीत वे आम नौजवानों और मेहनतकशों के दिलों में उससे ज्यादा समाते गए। गांव की गलिओं से लेकर शहरी घरों में अकेले भगत सिंह के जितने चित्र टंगे मिलते है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतना सम्मान किसी दूसरे नेता को मयस्सर नहीं है । भाकपा-माले के दिवंगत महासचिव विनोद का यह कथन उनके गांव में जाने पर अप्रासंगिक लगता है। देश की सरकारों और भगवा विग्रेड तक ने भगत सिंह का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोषिश अपना बनाने की साजिश रची। पर कामयाब नहीं हुए।
चुनावों के समय देश की राजनीतिक पार्टियों को शहीदों की जरुरत पड़ती है। इसी के मद्देनजर केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी ने 23 फरवरी(2008) को खटकड़कलां में आकर 16 करोड़ 80 लाख की लागत से भगत सिंह का भव्य स्मारक बनाने की घोसणा की । पंजाब के मुख्यमंत्री ने नवांशहर का नाम शहीद-ए-आजम भगत सिंह नगर करने की घोषणा कर डाली है। अपनी जीवन और शहादत के बाद आम लोगों में भगत सिंह जितने लोकप्रिय रहे,आजादी के पहले और उसके बाद भगत सिंह को बार-बार मारने की कोशिश जारी है।
पाकिस्तान की मसहूर समाजसेविका और शिक्षाविद् सलमा हासमी (उर्दू के मसहूर शायर फैज अहमद फैज की बेटी) ने भगत सिंह की लोकप्रियता को लेकर ही कहा था कि अंग्रेज नहीं चाहते थे कि इतने लोकप्रिय व्यक्ति की शहादत का कोई निशान और उसे लोग यादगार बना सके। आगे वह कहती है कि मेरी समझ में अंग्रेज इस देश को छोड़ कर गए ही नहीं,वो खुद तो गद्दी से हटे पर अपने लोगों को बैठा गए। सियासी तौर तरीके और व्यवस्था का ढांचा वैसे ही है। सरकारी नजर में भगत सिंह जैसे लोगों को वैसे ही देखा जाता है। जैसे तब देखा जाता था।
क्रांतिकारी धारा के इस नायक ने पूंजीवाद बनाम समानता अथवा गांधी बनाम भगत सिंह का जो बहस छेड़ा था । वह आज भी चल रही है। भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता ही आज भी शासक वर्ग के सामने सवाल बनकर खड़ी है। कांग्रेस और अकाली दल चुनाव के ऐन वक्त भले ही उनके विरासत का दावा करे पर वह सिर्फ रस्मी तौर पर ही भगत सिंह को देखती है। भगत सिंह के सपने और राजनीति पर न तो उनके गांव के सामंतो की सहमति है। न देश के सरकार की। भगत सिंह का गांव भी पंजाब और भारत के आम गांवों जैसा ही है। यहां के युवा भी पंजाब और भारत के आम युवाओं जैसे ही है। जिनका सपना पैसा और सुख सुविधा है।
(पिछले दिनों पंजाब के नवांशहर के खटकड़कलां में भगत सिंह का पुश्तैनी गांव का दौरा करके लौटे नई पीढी के साथी प्रदीप सिंह ने हमें यह रिपोर्ट और उनके घर की तस्वीरे भेजी है. प्रदीप ने एक क्रांतिकारी के शहर में कई बदलावों को महसूस किया है. पंजाब जिसकी पहचान पहले एक क्रांतिकारियों की धरती के बतौर थी, अब पलायन के लिए जानी जाती है. अब यहाँ के मेहनतकश किसान भी खेतों में आत्महत्या की फसल उगने पर मजबूर है. बठिडा, मनसा, संगरूर और कई शहरों में उन्हें सामन्तवादी शक्तियों से लड़ना पड़ रहा है. भाकपा-माले के कामरेड बन्त सिंह उसी परंपरा के वाहक हैं. जिन्होंने सामंतो से लड़ते हुए अपने दोनों हाथ गवां दिए. उन जैसों को लड़ते देख एक उम्मीद सी जगती है की पंजाब में भगत सिंह जिदा हैं, उनके विचार जिन्दा हैं.)
प्रस्तुत द्वारा चुन्नीलाल, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस, लखनऊ |