दीजिये, पर कृतज्ञता से
खलील जिब्रान ने कहा है, “जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसे एक न एक दिन तो देना ही पड़ेगा, तो फिर आज ही दो, ताकि देने का पुण्य, बजाय तुम्हारे उत्तराधिकारी को, तुम्हे ही मिले।”
अभी हाल ही में, देश भर में ‘देने का उल्लास’ नामक सप्ताह मनाया गया। यह वास्तव में एक सुंदर विचार है। इस सप्ताह का मुख्य प्रयोजन था कि आप के पास जो कुछ भी प्रचुरता में है, उसका कुछ अंश किसी ऐसे को दान कीजिए, जिसके पास नहीं है। अभी तक पाश्चात्य देशों की नक़ल करके हम वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे, मदर्स डे, आदि दिवस मनाते आए हैं। इसी श्रृंखला में ‘दान का सप्ताह’ एक विशुद्ध भारतीय परिकल्पना है तथा इस विचार की नवीनता ने अनेकों का ध्यान आकर्षित किया है।
यह सब तो सराहनीय है। परन्तु दान देने की चेष्ठा को सात दिनों की समय रेखा का बंधन क्यों? देने का अनुष्ठान तो जीवन पर्यंत एक पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए।
अधिकांशतः हमारे दैनिक क्रिया कलापों का एक ही ध्येय होता है – ‘अधिक से अधिक संसाधन बटोरना ही सुखकर है’। अधिक धन, अधिक प्रतिष्ठा, अधिक सफलता, अधिक ऐशो आराम, अधिक भ्रष्टाचार। परन्तु देने का अर्थ है 'अल्पता में ही सुन्दरता है’। जब हम किसी को (जो हमारे समान समर्थ नहीं है), निश्छल मन से कुछ देते हैं तो एक अवर्णित आनंद की अनुभूति होती है। केवल धन का ही दान मत कीजिए, क्योंकि यह तो दान करने की सबसे सरल क्रिया है। जीवन की साधारण खुशियाँ बाँटिये। अपने परिवार को अपना बहुमूल्य समय दीजिये, जिसका अभाव उन्हें खटक रहा है। अपने शुभचिंतकों को अपना प्रेम ओर सत्कार दीजिये, जो आपके सान्निध्य के लिए आकुल हैं। एक डाक्टर, वकील, शिक्षक, कलाकार के रूप में अपनी सेवाओं का कुछ अंश नि:शुल्क दान कीजिए --- उन लोगों के लिए जिनके पास साधन नहीं हैं। कुछ नहीं तो किसी करुण ह्रदय की पुकार ही सुन लीजिये, या फिर किन्हीं दुखती रगों पर सांत्वना के कोमल शब्दों का लेप ही लगाइए।
और ईश्वर को, कृतज्ञ भाव से, अपना धन्यवाद देना मत भूलिए – जिस ईश्वर ने हमें देखने के लिए दृष्टि, सुनने के लिए श्रवण शक्ति , क्रियाशीलता के लिए अवयव, और सोच विचार करने के लिए बुद्धि प्रदान की है। यदि इनमें से एक भी अंग क्षत विक्षित हो जाए तो जीवन दूभर हो उठता है। इसलिए
‘जो नहीं मिला उसी का क्यों गिला है,
काफी नहीं है क्या जो अब तक मिला है?'
एक बार आजमा कर तो देखिये कि जो कुछ भी मिला है उसे मिल बाँट कर खाने से स्वाद दोगुना हो जाएगा।
अन्तिम महादान का महा सुख तो तब प्राप्त होगा जब हम दधीची ऋषि के समान, मृत्योपरांत, अपने शरीर का दान किसी की भलाई के लिए कर दें। फिर चाहे वो नेत्र दान हो, अथवा प्रत्यारोपण के लिए अंग प्रत्यंग दान हो, अथवा चिकित्सा विज्ञान के छात्रों की शिक्षण सामग्री हेतु देह दान। इस प्रकार हम दूसरों के शरीर में प्रत्यारोपित होकर स्वयं को जीवित रह सकेगें।
बौद्ध धर्म में दानशीलता के तीन सोपान बताये गए हैं:---
प्रथम चरण है ‘दरिद्र दान’--- हमारे पास जो कुछ भी कबाड़ या बचा खुचा सामान है उसे हम दान करते हैं, और वोभी बहुत अनिच्छा के साथ। देते समय भी मन में संशय बना रहता है – दूँ या न दूँ? शायद आगे कभी मेरे काम ही आए।
हममें से कइयों के पास पुराने कपडों एवम् अन्य रोज़मर्रा के सामानों का भण्डार होगा, जिनका हमने अनेक वर्षों से न तो उपयोग किया होगा न ही भविष्य में कभी करेंगे। फिर भी हम यही सोचते रहते हैं, ‘हाय इतनी सुंदर साडी ! किसको दूँ? कोई इसको पहनने लायक ही नहीं।’ हम अपना कबाड़ तक दान करने के लिए कोई उचित पात्र ही नहीं जुटा पाते। फिर चाहे वो संदूक में रखे रखे बरबाद ही क्यों न हो जाय।
ऐसा है हमारा दम्भी अहम्।
द्वितीय चरण है ‘मैत्रीपूर्ण दान’----हम उस वस्तु का दान करते हैं जो स्वयं हमारे उपभोग के लायक है। और हम उसे बिना किसी दुराग्रह के, खुशी खुशी देते हैं।
तृतीय ओर सर्वोत्तम चरण है ‘राजसी दान’ ---- हम अपनी सबसे बहुमूल्य ओर प्रिय वस्तु का दान, पूर्ण उदारता एवम् आह्लाद के साथ करते हैं। यही सर्वोत्तम दान है।
ये सब एक दूसरे के अनुरूप है। औदार्य से आनंद उत्पन्न होता है, आनंद हमें शान्ति प्रदान करता है, शांत चित्त से हम चिंतन कर सकते हैं, चिंतन से ज्ञान और विवेक प्राप्त होता है।
कोई भी उदार कर्म, लेने वाले से अधिक, देने वाले के लिए वरदान स्वरुप होता है। थाईलैंड के चियांग माई शहर में, उषाकाल के समय आपको एक विस्मयकारी दृश्य देखने को मिलेगा। हाथों में भिक्षा पात्र लिए, बौद्ध भिक्षु भिक्षा यापन के लिए निकलते हैं। गृहस्वामिनी/गृहस्वामी, अपने द्वार पर आए याचक के चरणों में अपनी भेंट नतमस्तक होकर समर्पित करते हैं, तथा भिक्षु उन्हें प्रेम भाव से आशीर्वाद देते हैं।
यह दृश्य (जिसमें दाता, याचक के चरणों में झुका हुआ होता) देखकर मुझे सदैव एक अलौकिक नम्रता एवम् विनयशीलता की अनुभूति होती थी। थाई बौद्ध धर्म के अनुयायियों का विश्वास है कि दान देकर वे अपने कर्मों को सुधारते हैं। अत: जो याचक उनकी भेंट स्वीकार करता है वह उन पर अनुग्रह करता है – दान देने वाला किसी का उपकार नहीं करता। ये विचार, स्वयं की निजता एवम् अहम् के सम्पूर्ण समर्पण के द्योतक हैं।
क्या हम इतने दरिद्र हैं कि हमारे पास देने के लिए कुछ भी नही है?
दान के पर्व का उत्सव तो पूरे साल मनाना चाहिए। आपकी एक मुस्कान से किसी अजनबी का चेहरा चमक उठेगा।आपकी थोड़ी सी मदद किसी के जीवन में अपार खुशियाँ ला सकती है। दयालुता, प्रशंसा, क्षमा से भरे हुए शब्दों का दान किसी का खोया हुआ विशवास लौटा सकता है।
दिल खोल कर दीजिये और बदले में उससे कई गुना अधिक मिलने का आनंद उठाइये। देने का प्रभाव अप्रत्याशितरूप से आह्लादकारी होता है।
इसलिए दूसरों को शान्ति, प्रेम, उल्लास, धैर्य ओर सांत्वना दीजिये.
बस किसी के लिए कुछ अच्छा कीजिए। नम्रता से दीजिये ताकि उसे मर्यादा से ग्रहण किया जा सके क्योंकि, 'भाग्यशाली हैं वो जो दे कर भूल जाते हैं, और जो लेकर सदैव याद रखते हैं’।
दीपावली की इस सुमधुर बेला पर दान के प्रकाश से दरिद्रता का अन्धकार दूर कीजिए। महात्मा गांधी का प्रिय भजन तो हम सबको याद होगा ही -- वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे , पर दु:खे उपकार करे, कोई मन अभिमान न आने रे।
तो दिल खोल कर और जुबां बंद करके दीजिये।
मेरी ओर से आप सबको दीपावली की यही शुभकामना है कि आपका सौभाग्य आपके दान देने के अनुपात में कई गुना अधिक बढे।
शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस ‘