(कश्मीर के जाने माने पत्रकार जनाब अर्ज़िमंद हुसैन तालिब द्वारा लिखे गए लेख का हिंदी अनुवाद)
कश्मीर में इस बार की ईद बेहद संजीदा थी। माहौल दर्द से भरा था, त्यौहार की उमंग गायब थी। मेरी याद में पहली बार, ईद पर न तो खिलौने ही बिके, न ही कोई आतिशबाजी हुई। सभी लोग ग़मज़दा दिखे ।
मेरे लिए तो यह ईद बहुत ही ख़ास थी। इस ईद पर, मेरी डेढ़ साल की बेटी हिबा बे मुझे पहली बार 'बाबा' कहकर पुकारना शुरू किया था । यह उसकी पहली ईद थी जब उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझसे बाहर घुमाने ले चलने का इशारा किया था। मैं भी बहुत खुश था। अपने काम के सिलसिले में एक महीना चीन में बिता कर मैं अपने वतन वापस लौटा था और अपनी बेटी को साथ लेकर घूमने के लिए बेकरार था ।
घर से बाहर निकलने पर मुझे लगा कि जैसे श्रीनगर एक बारूद के ढ़ेर पर बैठा हुआ है, और किसी भी वक़्त फट सकता हैं । हफ़्तों की बेबसी के बाद, लोगों का हुजूम गाँवों से चलकर शहर की ओर आ रहा था। फिजाओं में गुस्से और बदले की आग भड़क रही थी। इस सबसे बेखबर, मेरी बच्ची हिबा, कार में सीट बेल्ट बांधे, मज़े में बैठी हुई चिड़ियों, गायों, गली के कुत्तों और बच्चों की बातें कर रही थी।
मगर पुराना श्रीनगर कुछ ज्यादा ही तनाव ग्रस्त लग रहा था। सड़कें गंदी थीं, चेहरों से मुस्कराहट गायब थी, और शायद ही कोई ऐसा घर रहा होगा जिसकी खिड़कियों के शीशे पैरामिलिटरी फोर्सेस ने तोड़ न दिये हों । रिश्तेदारों से ईद मिल कर हमने शाम होते ही कार जल्दी ही घर की तरफ वापस मोड़ दी। अलूची बाग़ पहुँचते ही हमारे आगे की गाड़ियों की रफ़्तार धीमी हो गयी । लग रहा था कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है । तभी, अचानक ही न जाने कहाँ से दर्जनों सिपाही बंदूकें और लाठियां लिए हुए वहां आ पहुंचे और हर गाडी के शीशे तोड़ने लगे। मैंने हिबा को सीट पर से उठा कर अपने दोनों बाजुओं से ढँक दिया। अब वापस गाड़ी मोड़ लेना तो मुमकिन ही न था ।
अपने वहशीपन में, सिपाही कारों में बैठे लोगों को बेवजह ही मार रहे थे। मेरा मन कह रहा था कि कार को पीछे घुमा लूं । पर भागने का कोई रास्ता नहीं था। मेरे पीछे वाली गाड़ियाँ भागने की कोशिश में एक दूसरे से टकरा रही थीं। मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या करूँ ।
जल्द ही सिपाही मेरी कार तक भी आ पहुंचे। तभी हमारी कार के शीशे के टूटने की आवाज़ आयी। हिबा डर कर चिल्लायी और मुझ से चिपट गयी। उसका चेहरा नीला पड़ गया था। मेरा सारा ध्यान हिबा की तरफ था। मुझेअपनी जान की परवाह न थी। तभी मेरे आगे की गाड़ियाँ एक तरफ को हो गयीं। मुझे सामने कुछ खुली जगह मिल गयी। एक हाथ से हिबा को संभालते हुए, मैं वहाँ से गाड़ी निकालने की कोशिश करने लगा। तभी गाडी का एक और शीशा तड़ाक से टूटा। मैं और तेज़ गाड़ी चलाने लगा। मैं सोच रहा था कि बस इन सिपाहियों के हुजूम से निकल जाने के बाद मैं खैरियत से रामबाग की तरफ जा सकूँगा। पर मेरा यह ख़याल बिलकुल गलत निकला । मैंने दहशत से देखा कि बंदूकों और लाठियों से लैस तकरीबन १०० सिपाही मेरी कार की ओर बढ़ कर मुझे रुकने का इशारा कर रहे हैं । उस वक़्त सड़क पर सिर्फ हम दो ही सिविलियन थे, और सिपाही गुस्से से भरे थे । मुझे पता था कि अगर मैं वहां रुक गया तो वे मुझे मार ही डालेंगें। वो मुझे रुकने का इशारा करते रहे , पर मैं बेतहाशा तेज़ कार चलाते हुए वहाँ से भागने की कोशिश में लगा रहा । सिपाहियों को शायद यह लगा कि मैं उन्हें कार से कुचलने की कोशिश कर रहा था । जल्दी ही कुछ बंदूकें मेरी कार की तरफ तन गयीं । मैं दहशत से काँप उठा । मैं वैसे ही तेज़ रफ़्तार से कार चलाता रहा । शायद उन्होंने मेरे साथ एक बच्चे को देखकर गोली नहीं चलायी । उस जगह से रामबाग़ पहुँचने तक सिर्फ दो बार ही हमारी गाड़ी पर गोली लगी, पर हम दोनों में से किसी को भी चोट नहीं लगी । हिबा अभी भी रो रही थी ।
मैं बघात में रुका। मैं अभी भी सकते और सदमे की हालत में था। हिबा की आंसू भारी आँखें देख कर मेरे भी आंसूबह रहे थे। कुछ राह चलतों ने हमें पानी पिलाया और हमारी खैरियत पूछी। उनका शुक्रिया अदा करके मैं अपने घरकी तरफ बढ़ा ।
आज यह सब कुछ लिखते हुए मेरा ध्यान बार बार उन ७० लडके और लड़कियों की तरफ जाता है, जो ११ जून से अब तक,कश्मीर में सिपाहियों की गोली का शिकार हो चुके हैं । उनके माँ-बाप की दर्द भारी दास्ताँ को कौन लिखेगा ?
हिबा तो अभी बहुत छोटी है। शायद वो यह सब भूल जाय। पर क्या उसके ज़ेहन से खौफ की ये तस्वीरें पूरी तरह मिट पाएंगी ? हज़ारों बदनसीब कश्मीरी बच्चों की तरह, हिबा भी उस कश्मीर में पैदा हुई है जहाँ सिपाहियों को आम जनता को गोली मारने का लाइसेंस मिला हुआ है, जो किसी को भी एक इज्ज़तदार और आज़ाद ज़िंदगी नहीं जीने देना चाहते। और सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है, कि जब हम अपने दर्द का बयान करते हैं, तो उसे हिंसा का नाम दिया जाता है।
(अनुवादिका: शोभा शुक्ला )
घर से बाहर निकलने पर मुझे लगा कि जैसे श्रीनगर एक बारूद के ढ़ेर पर बैठा हुआ है, और किसी भी वक़्त फट सकता हैं । हफ़्तों की बेबसी के बाद, लोगों का हुजूम गाँवों से चलकर शहर की ओर आ रहा था। फिजाओं में गुस्से और बदले की आग भड़क रही थी। इस सबसे बेखबर, मेरी बच्ची हिबा, कार में सीट बेल्ट बांधे, मज़े में बैठी हुई चिड़ियों, गायों, गली के कुत्तों और बच्चों की बातें कर रही थी।
मगर पुराना श्रीनगर कुछ ज्यादा ही तनाव ग्रस्त लग रहा था। सड़कें गंदी थीं, चेहरों से मुस्कराहट गायब थी, और शायद ही कोई ऐसा घर रहा होगा जिसकी खिड़कियों के शीशे पैरामिलिटरी फोर्सेस ने तोड़ न दिये हों । रिश्तेदारों से ईद मिल कर हमने शाम होते ही कार जल्दी ही घर की तरफ वापस मोड़ दी। अलूची बाग़ पहुँचते ही हमारे आगे की गाड़ियों की रफ़्तार धीमी हो गयी । लग रहा था कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है । तभी, अचानक ही न जाने कहाँ से दर्जनों सिपाही बंदूकें और लाठियां लिए हुए वहां आ पहुंचे और हर गाडी के शीशे तोड़ने लगे। मैंने हिबा को सीट पर से उठा कर अपने दोनों बाजुओं से ढँक दिया। अब वापस गाड़ी मोड़ लेना तो मुमकिन ही न था ।
अपने वहशीपन में, सिपाही कारों में बैठे लोगों को बेवजह ही मार रहे थे। मेरा मन कह रहा था कि कार को पीछे घुमा लूं । पर भागने का कोई रास्ता नहीं था। मेरे पीछे वाली गाड़ियाँ भागने की कोशिश में एक दूसरे से टकरा रही थीं। मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या करूँ ।
जल्द ही सिपाही मेरी कार तक भी आ पहुंचे। तभी हमारी कार के शीशे के टूटने की आवाज़ आयी। हिबा डर कर चिल्लायी और मुझ से चिपट गयी। उसका चेहरा नीला पड़ गया था। मेरा सारा ध्यान हिबा की तरफ था। मुझेअपनी जान की परवाह न थी। तभी मेरे आगे की गाड़ियाँ एक तरफ को हो गयीं। मुझे सामने कुछ खुली जगह मिल गयी। एक हाथ से हिबा को संभालते हुए, मैं वहाँ से गाड़ी निकालने की कोशिश करने लगा। तभी गाडी का एक और शीशा तड़ाक से टूटा। मैं और तेज़ गाड़ी चलाने लगा। मैं सोच रहा था कि बस इन सिपाहियों के हुजूम से निकल जाने के बाद मैं खैरियत से रामबाग की तरफ जा सकूँगा। पर मेरा यह ख़याल बिलकुल गलत निकला । मैंने दहशत से देखा कि बंदूकों और लाठियों से लैस तकरीबन १०० सिपाही मेरी कार की ओर बढ़ कर मुझे रुकने का इशारा कर रहे हैं । उस वक़्त सड़क पर सिर्फ हम दो ही सिविलियन थे, और सिपाही गुस्से से भरे थे । मुझे पता था कि अगर मैं वहां रुक गया तो वे मुझे मार ही डालेंगें। वो मुझे रुकने का इशारा करते रहे , पर मैं बेतहाशा तेज़ कार चलाते हुए वहाँ से भागने की कोशिश में लगा रहा । सिपाहियों को शायद यह लगा कि मैं उन्हें कार से कुचलने की कोशिश कर रहा था । जल्दी ही कुछ बंदूकें मेरी कार की तरफ तन गयीं । मैं दहशत से काँप उठा । मैं वैसे ही तेज़ रफ़्तार से कार चलाता रहा । शायद उन्होंने मेरे साथ एक बच्चे को देखकर गोली नहीं चलायी । उस जगह से रामबाग़ पहुँचने तक सिर्फ दो बार ही हमारी गाड़ी पर गोली लगी, पर हम दोनों में से किसी को भी चोट नहीं लगी । हिबा अभी भी रो रही थी ।
मैं बघात में रुका। मैं अभी भी सकते और सदमे की हालत में था। हिबा की आंसू भारी आँखें देख कर मेरे भी आंसूबह रहे थे। कुछ राह चलतों ने हमें पानी पिलाया और हमारी खैरियत पूछी। उनका शुक्रिया अदा करके मैं अपने घरकी तरफ बढ़ा ।
आज यह सब कुछ लिखते हुए मेरा ध्यान बार बार उन ७० लडके और लड़कियों की तरफ जाता है, जो ११ जून से अब तक,कश्मीर में सिपाहियों की गोली का शिकार हो चुके हैं । उनके माँ-बाप की दर्द भारी दास्ताँ को कौन लिखेगा ?
हिबा तो अभी बहुत छोटी है। शायद वो यह सब भूल जाय। पर क्या उसके ज़ेहन से खौफ की ये तस्वीरें पूरी तरह मिट पाएंगी ? हज़ारों बदनसीब कश्मीरी बच्चों की तरह, हिबा भी उस कश्मीर में पैदा हुई है जहाँ सिपाहियों को आम जनता को गोली मारने का लाइसेंस मिला हुआ है, जो किसी को भी एक इज्ज़तदार और आज़ाद ज़िंदगी नहीं जीने देना चाहते। और सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है, कि जब हम अपने दर्द का बयान करते हैं, तो उसे हिंसा का नाम दिया जाता है।
(अनुवादिका: शोभा शुक्ला )