व्यक्ति स्वभाव से अपने निजी संरक्षण और सुख की दिशा में निर्दिष्ट होता है । वह उनकी प्राप्ति के अलावा और कोई उद्देश्य नहीं रखता है । प्राकृतिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने जैसे से ही युद्ध की स्थित में रहता है । जिससे सभी का जीवन खतरे में अकेला,असहाय, पशुवत और अल्पकालिक होता है । जीवन का भय उसे राजनीतिक एकता में बंधने कों विवश करता हैं । किसी विचार पर सहमति या असहमति जाहिर करना ही राजनीति हैं । चाहे विचार हमारी जिंदगी और हमारी हिस्सेदारी कों ही लेकर क्यों न हो ।
क्या इस असहमति या विद्रोह के माध्यम से व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि की जा सकती है । राजनीति की वर्तमान धारणा जो शक्ति, सामूहिक निर्णयों की निर्मात्री, भय संसाधनों के बंटवारे, छल, चालबाजी ऐसे बहुत सारे गुणों से युक्त हैं । इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि नहीं की जा सकती हैं जिसका कारण इसके पीछे एक या दो नहीं बल्कि दिमागों के हुजूम का काम करना हैं ।
रोचक बात है कि असहमति के द्वारा जन्मी विरोध के साथ ही सहयोग की भी संगिनी है। जहाँ किसी मत या आवश्यकता से असंतुष्ट होकर तोड़ने का काम करती है। वही एक जैसे लोगों को जोड़ने का काम करती है। राजनीतिक विचार पूरी तरह परिवेश या समाज की प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर नहीं आते हैं। इसमें प्राकृतिक पोषण का भी योगदान होता है। यानी परिवेश साथ-साथ संरचना भी महत्वपूर्ण होती है।
राजनीति का एक मात्र उद्देश्य सत्ता पाना है। इसकी प्राप्ति के दो ही रास्ते है। किसी राजघरानें में जन्म हो यदि यह, किस्मत में नहीं हैं। तो पगडंडिया चुननी पड़ेगी। जिन पर चलने के लिये कोई नियम कानून नहीं होता है। बस आगे रहने के लिये तेज दौड़ये या फिर तेज दौड़ने वाले को बाहर कर दीजिये। सत्ता के लिये परिवारों में ही बहुत सी हत्याये हुई इसलिये सत्ताधारी परिवार का सदस्य हमेशा भय के साये में जीता हैं। हमेशा कमजोर शिकार और ताकतवर शिकारी होता हैं। इससे स्पष्ट है कि राजनीति जो परिवार जैसी संस्था से उपजी, उसी को कमजोर किया।
हमें जितनी सरकारों की जानकारी है सभी ने जनता के पीछे उदासीन होकर ही शासन किया हैं । यह सभी राजनीतिक रूप से सचेत अल्पसंख्यक सरकारें ही हैं । अरस्तु ने कहा हैं राजनीति पर सभी हितों के लिए काम करने वाले कुछ चुनिन्दा लोगों का अधिकार होता हैं । चुनिन्दा शब्द आते ही राजनीति को शक की नजरों से देखा जाने लगता हैं । भारत में चाणक्य नीति ही राजनीति का मुख्य वाहक बनी हुई है । इसलिए आज देश में विचारों के लिए जीने-मरने और राजसत्ता के विरोध में खड़े होकर लोकतंत्र बहाली के लिए काम करने वाले राजनेताओं का अभाव हैं । यही अभाव देश में भ्रष्टाचार के रास्तों को और सुदृढ़ कर रहा हैं ।
हिटलर ने अपने मित्र से कहा था "राजनीति में यदि झूठ बोलना हो तो उसकी घोषणा करनी पड़ती है । यही एक मात्र सत्य है यह राजनीति का नियम है । मैं उसका पालन करता हूँ । इस दुनिया में शायद ही कभी राजनीति में नीति रही हों । लेकिन व्यावहारिक स्तर पर राजनीति सदा अनीति पर आधारित रहती है। और घोषणायें सदा नीति की होती है । इन घोषणाओं के आधार पर ही राजनेताओं कों चुन लिया जाता है । जो राजनेता जितना अधिक कुशल एवं प्रभावशाली होता है । नीति की घोषणाएं करने में उतना अधिक सफल होता है ।" आज देश के अधिकतर लोग राजनीति से अपने कों अलग रखते हैं । उनको देश से कोई लेना देना ही नहीं हैं । जब कि राजनीति हमारा भविष्य तय करती है । तो हमें भी भविष्य की राजनीति तय करनी चाहिए । हम सभी को अच्छी राजनीति के लिए निस्वार्थ, ईमानदारी और नैतिकता कों ध्यान में रखना होगा । अभिभावक वर्ग को इस भ्रम से बाहर आना होगा कि हमारे पड़ोसी के घर भगत सिंह जन्म लेगा और पूरी व्यवस्था को सुधार देगा । जब जनता जागेगी तो उसकी मर्जी लागू होगी देखने योग्य बात है कि यह समय से जागेगी या नहीं।
आज हमारी आजादी के ६३ वर्ष बीत चुके है । हमारी विचार धारा और इतिहास भी धूमिल हो चुका है । भ्रष्टाचार की नाव अबाध रूप से बहती जा रही हैं । इन विषम परिस्थितियों में हमे अपने ही बीच वो नेतृत्व तलाशना हैं । जो हमें ऊर्जा दे और आगे बढ़ने कों प्रेरित करे। सपने हमें जीवित रखते है और चुनौतियाँ हमारे जीवन में अनिश्चितता लाकर आगे बढ़ने में सहयोग करती हैं । अभी-भी जीवन में बहुत कुछ बचा है जिसे हासिल कर समाज कों सुन्दर बनाया जा सकता है । यह सिर्फ राजनीति से ही सम्भव है चाहे लोकतंत्र हो या मानवाधिकार।
-देवेश पटेल