समता मूलक मानव विकास कैसे ?

28 मई 1931 को अपने अखबार, यंग इण्डिया में राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने एक लेख लिखा जिसका एक छोटा अंश इस प्रकार है-

. हर पंचायत से यह आशा की जाती है कि वह गांव में निम्न चीजों को सुनिश्चित करेगा- गांव में ही लड़के लड़कियों को पढ़ने के लिये शिक्षा की व्यवस्था
2. सफाई का प्रबन्ध
3. गांव में कुओं तालाबों की सफाई की व्यवस्था
4. गांव में रहने वाले गरीबों अछूतों के उद्धार उनकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था

आजादी के आन्दोलन के दौरान जो लड़ाई लड़ी जा रही थी, उसका उद्देश्य केवल अंग्रेजों को भारत की सीमा के बाहर खदेड़ना ही नहीं था, वरन आजादी के बाद नये भारत के स्वरूप कैसा होगा, इसका भी रेखा चित्र धीरे-धीरे उभर कर सामने रहा था। स्वतंत्रता संग्राम की अगली कतार में रहने वाले नेताओं ने स्वतंत्र भारत के लिये एक विकेन्द्रित व्यवस्था का सपना गढ़ा था। विकेंद्रीकरण का मतलब यह ही था कि सारे फैसले की सर्वोत्तम राजनैतिक संस्थासंसदमें बैठे लोग लें और इसे नौकरशाही के जरिये दिल्ली से सारे देश में उतारा जाए।

15 अगस्त, 1947 को जब हम आजाद हुए उससे पहले से ही संविधान सभा संविधान बनाने के काम में जुटी हुई थी। 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू हुआ। इसकी उद्देशिका में कहा गया-हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोक तंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक त्याग सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बनाने के लिये वृत्र संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं ‘‘इस संविधान के रचनाकार’’ ‘हम भारत के लोगही तो थे। आर्थिक और राजनैतिक सम्प्रभुत्ता का अर्थ था किहम भारत के लोगकैसा विकास चाहते हैं ? यह भी हम ही भारत के लोगों को ही तय करना था। विकास ऐसा होना चाहिये था जिससे सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय मिलता

संविधान मात्र कानूनों की किताब नहीं है। राज्य और राजनीति के चरित्र को निर्धारित करने वाला यह राष्ट्र का एक मौलिक दस्तावेज है। भारतीय संविधान की प्रारम्भिक उदघोषणा और चौथा भाग, जिसे निदेक सिद्धान्त कहा गया है, सर्वाधिक महत्व की चीज है। समाजवाद और समता मूलक मानव विकास की अवधारणा इसमें निहित है।

स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान संजोय गये मूल्यों और मान्यताओं तथा जन आकांक्षाओं को समझते हुऐ हमारे देश की संविधान सभा ने देशवासियों को एक संविधान सौंपा जिसमें राज्य संचालन के लिये कुछ संस्थायें दी गई और इस देश के नागरिकों को कुछ मूल अधिकार और देश के संचालन के लिये कुछ मूल नीति निर्देशक संविधान के भाग 4 में दिये गये। संविधान के अध्याय 4 में शामिल किये गये नीति निर्देशक तत्व को एक समय सीमा के अन्तर्गत पूरा करने का संकल्प भी संविधान के अन्दर दिखायी पड़ता है जैसा कि धारा 45 जो कि संविधान के भाग 4 में ही है। इसमें कहा गया है कि राज्य 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु तक के बालकों को प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान करेगा। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुए उसके 10 वर्ष के अन्दर यानी 26 जनवरी 1960 तक देश के उन बालकों को जो उस समय 14 वर्ष की आयु तक पहुंचे होंगे, को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करनी थी। इसके अलावा इन नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत संविधान में ये कहा गया कि राज्य अपनी नीति का विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से :-

(क) पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो,
(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो,
(ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्व साधारण के लिये अहितकारी संकेन्द्रण न हो,
(घ) पुरूषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिये समान वेतन हो,
(ड) पुरूष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों,
(च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दी जाये और बालकों अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।

कई दशकों के बीत जाने पर भी इन उद्देश्यों को कागज से निकाल कर जमीन पर नही उतारा जा सका। इस देश के लोगों के छ: दशकों के कटु अनुभव ने इस सच्चाई को सामने ला दिया है कि जिस प्रतिनिधि मूलक जनतांत्रिक प्रणाली के ढांचे को संविधान के अन्तर्गत निर्मित संस्थाओं के द्वारा सारे देश को चलाया जा रहा है, वह न सिर्फ पूरी तरह विफल हो चुका है बल्कि जिस जनता के लिये इस देश के संविधान की रचना की गयी वह उसके खिलाफ चला गया।

अगर हम एक बार पीछे मुड़कर देखें तो यह साफ दिखायी देता है कि प्रतिनिधिमूलक प्रजातांत्रिक प्रणाली के अन्त की शुरुवात 1971 में हुयी जब इन्दिरा गांधी ने संसद के और विधान सभाओं के चुनाव को, जो उससे पहले एक साथ होते थे, अलग-अलग कर दिया जो कि 1972 में होना था। एक साल पहले जनता को इस बात का अंदेशा पार्टी के पास था, चुनाव में खर्च करने के लिये बांट दिया 1971 और 1991 के बीच की राजनीतिक उथल-पुथल में उन क्तियों की ही जीत हुई है जो जनता की भागीदारी के प्रजातंत्र के विरोधी हैं। इस बीस वर्ष की राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि 1001 में जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने खजाना खाली पाया। उसके बाद नरसिंहा राव प्रधान मंत्री और डा. सिंह, वित्त मंत्री बने और इस युगल जोड़ीं ने हमारे दे को विश्व बैंक और आई.एम.एस. के मकड़जाल में फंसा दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि हमारी राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता के समाप्त होने का सिलसिला तेजी से शुरू हो गया। इसके बाद जो सरकारें आयी, चाहे केंद्र की या राज्यों की, उनके तरीकें भी वही हो गये जो केंद्र की सरकार के थे और सब सरकारें इन दो बेंकों के कर्जदार होने शुरू हो गये और अपने संसाधनों को उन्होंने गिरवी रखना शुरू कर दिया। राजनीति सिर्फ इस बात की शुरू हो गयी कि इन संसाधनों की लूट में कौन शामिल है। आम आदमी की भागीदारी समाप्त हो गयी। यह बात आज बिल्कुल साफ है कि प्रतिनिधिमूलक प्रजातांत्रिक प्रणाली एक धोखा साबित हुई।

संविधान को जनता के हक में लागू करने के लिये जिस केन्द्रीयकृत व्यवस्था का सहारा लिया गया उसमें आम जनता की भागीदारी को बिल्कुल हाशिये पर ला दिया। प्रतिनिधि मूलक प्रजातांत्रिक प्रणाली ने एक नये प्रकार की संवैधानिक निरंकुशता को आगे बढ़ाया। आम आदमी की भूमिका धीरे-धीरे चुनाव में वोट डाल कर एक सरकार चुनने से ज्यादा कुछ भी नही रहीं। काले धन और बाहुबल को सरकार बनने, बदलने और चुनाव जीतने का हर राजनीतिक दल ने औजार बना लिया है। जल, जंगल, जमीन, कृषि, उद्योग पर आम जनता के हक समाप्त होते जा रहे हैं।

केन्द्रीयकृत शासन व्यवस्था ने नौकरशाही को मजबूत किया है। नौकरशाही शासन पर हावी हो गयी जिसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया और आम आदमी को हासिये पर ला दिया।

आज स्थिति यह है कि सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार भी 75 प्रतिशत लोग 20/- रूपये से भी कम कमाते हैं। मानव संसाधन मंत्रालय की जनवरी 1997 की एक रिपोर्ट के अनुसार 6 और 14 वर्ष की आयु के बीच के 6 करोड़ 30 लाख बच्चे स्कूल नही जा पा रहे थे। 13 करोड़ 50 लाख लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य की सुविधायें भी उपलब्ध नहीं थी। 22 करोड़ 60 लाख लोगों को पीने लायक पानी की सुविधायें भी उपलब्ध नही थी, 64 करोड़ लोगों को बेसिक सेनिटेशन यानि शौच आदि की सुविधायें आदि भी उपलब्ध नही थी।

10 जलाई 2008 के ‘‘हिन्दुस्तान टाइम्स’’ (अंग्रेजी पत्रिका) में एन सी सक्सेना जो योजना आयोग के पूर्व सचिव रहे हैं, ने एक लेख में कहा कि इस देश के 70 करोड़ लोग आज भी सेनिटेशन की सुविधाओं से वंचित हैं। एक हजार बच्चे 5 साल की आयु के पहुँचने के पूर्व ही रोजाना इस देश में सिर्फ डायरिया की वजह से मर जाते हैं और भी बहुत से आंकड़े इस प्रकार के रोजाना बहुत से लेखों में उपलब्ध होते हैं।

समाजवाद और समता मूलक मानव विकास सिर्फ उस लोकतंत्र या जनतंत्र में सम्भव हैं जहां जनता की भागीदारी हो। प्रतिनिधि मूलक प्रजातंत्र में यह असम्भव है। भारत के संविधान की उद्देशिका के अनुसार ‘‘हम भारत के लोग’’ भारत को एक समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये संकल्प लेकर भाग 4 में निहित राज्य की नीति के निदेशक तत्व के अनुसार सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय के लिये प्रतिबद्ध हैं। यही प्रजातांत्रिक समाजवाद है। प्रजातंत्र, जनतंत्र, लोकतन्त्र, तीनों के अर्थ एक है। ध्वनि में कुछ भिन्नता है। प्रजा पुराना शब्द है। ‘जनतंत्र’ या ‘लोकतंत्र’ की ध्वनि ऐसी है कि मानो जन या लोक खुद राज्य संचालन तथा प्रशासन में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। जिस प्रतिनिधि मूलक जनतांत्रिक प्रणाली व्यवस्था में देश की सरकारें चल रही है उसमें जन या लोक की राज्य संचालन तथा प्रशासन में कोई सक्रिय भूमिका संभव नही हैं।

जाने अनजाने जन आकांक्षाओं के काफी नजदीक संविधान के 72 वें और 74 वें संशोधन के जरिये एक नये सामाजिक ढांचे की परिकल्पना की गयी। संविधान में अध्याय 9 और ९(अ) जोड़कर हुए एक विकेन्द्रित शासन-प्रशासन प्रणाली का बीज बोया गया परन्तु जिन सत्ता सरकारों को इन्हें लागू करना था, वे किसी भी कीमत पर अपनी मुट्ठी में समाई हुई ताकत को जनता के हाथों में सौंपने को तैयार नही हैं।

अध्याय 9 व 9(अ) पंचायतों का पुनर्भाषित कर इन्हें स्थानीय स्तर पर शासन की एक इकाई के रूप में गठित करने की परिकल्पना करती है और नगर निकायों को इसी प्रकार नगर विकास के लिये स्थानीय स्तर पर इसी प्रकार की इकाई के रूप में प्रस्तुत करती है।

इस नव निर्मित स्वायत्त शासन को संस्थाओं की ऐसी शक्तियों और अधिकार प्रदान किये गये हैं इसके अन्तर्गत उन्हें स्वायत्त शासन को संस्थाओं के रूप में कार्य करने के लिये आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से सम्बन्धित ऐसे कार्यों को जो उन्हें सौंपा जाना है, जिनके अन्तर्गत वो कार्य भी है, जो ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है। इन्हें कार्यान्वित करने का कार्य भी इन संस्थाओं को सौपा गया है। ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध करने का कार्य भी इन संस्थाओं को सौपा गया है। ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषय बहुत व्यापक है। ये दोनों सूचियां इस दस्तावेज के साथ संलग्न है। कृपया इनको गौर से देखें। ये प्राविधान पंचायतों के बारे में संविधान की धारा 243 छ में हैं। नगर पालिकाओं के लिये धारा 243 ब में ये कार्य दिये गये हैं। ये धारायें भी इस दस्तावेज में पृष्ठ 5 पर अंकित हैं। कृपया इन्हें भी ग्यारहवीं व बारहवीं सूचियों के संदर्भ में गौर से देखें।

अगर इन विषय सूचियों को गौर से देखा जाये तो लगेगा कि अगर पंचायत स्तर पर जनता को सक्रिय किया जाये तो वह बुनियादी जनतंत्र की इस इकाई को विकास व समतामूलक राजनीति का केंद्र बना सकती है। पंचायतें न सिर्फ सड़क, दीवार, सीवर, पानी, स्कूल, कुटीर उद्योग के लिये जिम्मेदार होगी वरन यह जनवितरण प्रणाली से लेकर पंचायत स्तर पर सारी शिक्षा प्रणाली, गरीबी उन्मूलन, जन वितरण प्रणाली, सांस्कृति किया कलाप, तकनीकी प्रशिक्षण आदि सारी योजनाओं को बनाने व उसे लागू करने के लिये जिम्मेदार होगी। जनभागीदारिता व जवाबदेही पर आधारित राजनीति के इस प्रयोग को अगर देश की जमीन पर सफलतापूर्वक उतार लिया गया तो एक ऐसे विकास का द्वारा खुल सकता है जो लूट खसोट, भ्रष्टाचार व मुनाफे पर आधारित नही रहेगा और रोजगार के अवसर मुहैया कराने से लेकर विकास के लाभ को जनता के पास तक पहुंचाने का काम करेगा। हमारे सामने दो ही विकल्प हैं, एक है- ग्लोबलाईजेशन ‘भूमण्डलीकरण’ की दानवी शक्तियों के आगे घुटने टेक दें और उसका चारा बन जायें और दूसरा है- आम जनता को निर्णय लेने से निर्माण तक की हर प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाकर जनतंत्र की बुनियादी इकाई से विकास का अभियान शुरू करना। आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी हम सभ्य समाज की न्यूनतम जरूरतों से अभी वंचित है और इस पूरा करने का संकल्प व शक्ति शासक पार्टियों में नही हैं।

संविधान की धारायें 243 छ व 243 ब
243छ : पंचायतों की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व- संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान मण्डल, विधि द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियां व प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप् में कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हो और ऐसी विधि से पंचायतों को उपयुक्त स्तर पर, ऐसी शर्तों के अधीन रखते हुए, जो उसमें निर्दिष्ट की जायें, निम्नलिखित के सम्बन्ध में शक्तियां और उत्तरदायित्व न्यायगत करने के लिये उपबन्ध किये जा सकेंगे, अर्थात-
क. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनायें तैयार करना।
ख. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय ऐसी स्कीमों को, जो उन्हें सौंपी जाये, जिनके अन्तर्गत वो स्कीमे भी है, जो ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में है, कार्यान्वित करना।

243 : नगरपालिकाओं, आदि की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व-
इस संविधान के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान मण्डल्, विधि द्वारा :
१. (क.) नगर पालिकाओं को ऐसी क्तियां और प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हों और ऐसी विधि से नगर पालिकाओं को उपयुक्त स्तर पर ऐसी र्तों के अधीन रखते हुए जो उसमें निर्दिष्ट की जाये, निम्नलिखित के सम्बन्ध मे क्तियां और उत्तरदायित्व न्यागत करने के लिये उपबन्ध किये जा सकेंगे, अर्थात-
1. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनायें तैयार करना।
2. ऐसे कृत्यों का पालन करना और सामाजिक न्याय की ऐसी स्कीमों को जो उन्हें सौंपी जाये, जिनके अन्तर्गत व स्कीमें भी हैं जो बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में हैं, कार्यान्वित करना।
ख. समितियों को ऐसी क्तियां व प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें अपने को प्रदत्त उत्तरदायित्वों को, जिनके अन्तर्गत वे उत्तरदायित्व भी है जो बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में हैं, कार्यान्वित करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हो।

ग्यारहवीं अनुसूची : अनुच्छेद 243छ
1. कृषि जिसके अन्तर्गत कृषि विस्तार है।
2. भूमि विकास, भूमि सुधार का कार्यान्वयन, चकबन्दी और संरक्षण।
3. लघु सिंचाई, जल प्रबन्ध और जल विभाजक क्षेत्र का विकास।
4. पशुपालन, डेरी उद्योग और कुक्कुट पालन।
5. मत्स्य पालन।
6. सामाजिक वानिका और फार्म वानिका।
7. लघु वन उपज
8. लघु उद्योग, जिनके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी है।
९. खादी ग्रामोद्योग और कुटीर उद्योग।
10. ग्रामीण आवासन
11. पेय जल
12. ईंधन और जल।
13. सड़कें, पुलिया, पुल, फेरी, जलमार्ग और अन्य संचार साधन।
14. ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण है।
15. अपारम्परिक र्जा स्त्रोत।
16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
17. शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी हैं।
18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यवसायिक शिक्षा।
19. प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा।
20. पुस्तकालय।
21. सांस्कृतिक क्रिया कलाप।
22. बाजार और मैल
23. स्वास्थ्य और स्वच्छता जिनके अन्तर्गत अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय भी है।
24. परिवार कल्याण।
25. महिला और बाल विकास।
26. समाज कल्याण, जिसके अन्तर्गत विकलांगों और मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों का कल्याण भी है।
27. दुर्बल वर्गों का और विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण।
28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
29. सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण।

बारहवीं अनुसूची : अनुच्छेद 243छ
1. नगरीय योजना, जिसके अन्तर्गत नगर योजना भी हैं।
2. भूमि उपयोग का विनिमयन और भवनों का निर्माण।
3. आर्थिक और सामाजिक विकास योजना।
4. सड़के और पुल।
5. घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिये जल प्रदाय।
6. लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई और कूड़ा-करकट प्रबन्धन।
7. अग्नि शमन सेवायें
8. नगरीय वानिकी, पर्यावरण का संरक्षण और परिस्थितिकीय आयामों की अभिवृद्धि।
9. समाज के दुर्बल वर्गों के, जिनके अन्तर्गत विकलांगों और मानसिक रूप से मंद व्यक्ति भी हैं, हितों की रक्षा।
10. गंदी बस्ती सुधार और प्रोन्नयन।
11. नगरीय निर्धनता उन्मूलन।
12. नगरीय सुख सुविधाओं और सुविधाओं जैसे पार्क, उद्यान, खेल के मैदानों की व्यवस्था।
13. सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौन्दर्यपरक आयामों की अभिवृद्धि।
14. व गाड़ना और कब्रिस्तान, व दाह और शान और विद्युत वदाह गृह
15. काजा हाउस, पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण।
16. जन्म मरण सांख्यिकी, जिसके अन्तर्गत जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण भी है।
17. सार्वजनिक सुख सुविधायें, जिनके अन्तर्गत सड़कों पर प्रका, पार्किग स्थल, बस स्टाप और जन सुविधायें भी हैं।
18. वधशालाओं और चर्मशोधन शालाओं का विनियमन।

पंचायतों और नगर निकायों के स्तर पर एक निरन्तर जन आंदोलन केन्द्रीयकरण के खिलाफ विकेंद्रीकरण विकास के लिये करना होगा। इन नव निर्मित स्वायत्त शासन की संस्थाओं को ऐसी शक्तियां प्रदान करने के लिये मांग करनी होगी ताकि जन आकांक्षाओं की पूर्ति का इन संस्थाओं को वाहक बनाया जाये। अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्यात्मक राजनीति के विकल्प के रूप में विकेंद्रीकृत एवं पारदर्शी नौकरशाही से मुक्त जनभागीदारी युक्त राजनीति के लिये मुहिम चलानी होगी। महिलायें देश और समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकती हैं। विकास की राजनीति की प्राथमिताओं में सबसे पहले हर गांव को पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और बिजली जैसी प्राथमिकताओं को वास्तविक अर्थ में मुहैया कराना होगा। स्थानीय संसाधनों की संभावनाओं पर विकास अर्जित करना होगा। यह सब पंचायत राज संस्थाओं के द्वारा लोगों की भागीदारी द्वारा ही सम्भव है।

डॉ. रवि किरण जै

दंत चिकित्सकों की बढती संख्या एवं सरकार का उदासीन रवैया

उ० प्र० डेन्टिस्ट वेलफेयर एसोसिएशन
सरकार
का अंधाधुंध तरीके से निजी डेंटल कॉलेजों को खोलने की अनुमति प्रदान करने एवं डेंटल काउसिंल ऑफ़ इंडिया द्वारा इनका अनुमोदन / सत्यापन / मान्यता प्रदान के कारण हमारे देश में बी.डी.एस. डॉक्टरों की संख्या जरूरत से बहुत ज्यादा हो गयी है। जिससे नौकरी के साथ-साथ प्रैक्टिस के अवसर भी लगभग ख़त्म हो गये है।

पहले से ही जहां आम जनता दांतों की बीमारियों के प्रति ज्यादा जागरूक नहीं है, वही दूसरी ओर अन्य विधाओं (एलोपैथी, आयुर्वेद, होम्योपैथ एवं यूनानी) दस डॉक्टर भी लगभग ५० से ६० प्रतिशत दांतों की बीमारियों का असफल इलाज कर देते हैं। इसी लिये बड़ें शहरों को छोड़ कर डेंटिस्ट के लिये अन्य जगहों पर प्रैक्टिस के अवसर लगभग खत्म हो गये हैं।

हमारे देश में इस समय लगभग २९१ डेंटल कॉलेज है जिसमें से मात्र ३९ सरकारी डेंटल कॉलेज है, जबकि २५२ प्राइवेट डेंटल कॉलेज हैइन सभी कॉलेजों से लगभग २४ हजार बी.डी.एस. डॉक्टर प्रति वर्ष डिग्री लेकर निकलते हैं एवं लगभग २६०० एम.डी.एस. डॉक्टर (मोस्टर ऑफ़ डेंटल सर्जरी) प्रति वर्ष निकलते हैं।

इन २४ हजार बी.डी.एस. डॉक्टरों में से मात्र २३३० सीटें सरकारी डेंटल कॉलेजों में जबकि २१३६० सीटें प्राइवेट डेंटल कॉलेजों में हैं। एम.डी.एस. की २६०० सीटों में से मात्र २८० सीटें सरकारी डेंटल कॉलेजों में है जबकि शेष २३२० सीटें प्राइवेट डेंटल कॉलेजों में है।

इस प्रकार केवल उत्तर प्रदेश को ही लिया जाए तो लगभग ३००० दंत चिकित्सक प्रति वर्ष डिग्रियां लेकर निकल रहे है। जबकि पहले प्रदेश में केवल ५५ सीटें बी.डी.एस. के लिये केवल के.जी.एम.सी. लखनऊ में थी। वही अब उक्त सीटों में लगभग ५५ गुना इजाफा हुआ है। जबकि एम.डी.एस. की सीटें उ.प्र. में मात्र १२ हैं। प्राइवेट डेंटल कॉलेजों में फ़ीस के नाम पर बी०डी०एस० कोर्स के लिये १५ से २० लाख रु० तथा एम० डी० एस० कोर्स के लिये ३० से ४० लाख रु० तक वसूले जाते हैं। जिससे यह साफ़ पता चलता है कि हमारे देश में
डेन्टिस्टों की डिग्री रु० देकर खरीदी जा रही है, न की इसे छात्र अपनी योग्यता से हासिल कर रहे हैं।

पूरे देश में ३९ सरकारी डेंटल कॉलेजों की तुलना में २५२ प्राइवेट डेंटल कॉलेजों की संख्या से साफ़ पता चलता है कि हमारे देश
में डेन्टिस्टों की शिक्षा का पूर्ण रूप से व्यवसायीकरण हो चुका है। एक ओर ज्यादातर प्राइवेट डेंटल कॉलेज डी० सी० आई० द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करते हैं, इन कॉलेजों की ओ० पी० डी० में मरीजों की संख्या बहुत कम होती है, दूसरी ओर खराब गुणवत्ता होने के कारण इन कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र उपयोगी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं।

प्राइवेट डेंटल कॉलेजों के डिग्री धारक डॉक्टर भी खुद परेशान हतोत्साहित एवं दिग्भ्रमित और उनसे ज्यादा उनके अभिभावक परेशान हैं। क्योंकि पहले उन्होंने लाखों खर्च करके बी०डी०एस० डिग्री दिलाई और अब जॉब के लिए भी इधर-उधर भटक रहे हैं और भविष्य को लेकर परेशान हैं।

डेन्टिस्टों के प्रति सरकार की उदासीन सोच के कारण न तो डेन्टिस्ट के नये पदों का सृजन हो रहा है और न ही प्रतिवर्ष निकलने वाले डेन्टिस्टों की संख्या पर किसी प्रकार का नियन्त्रण है। जिसके कारण डेन्टिस्टों की बेरोजगारी लगातार बढ़ रही हैं इसका अन्दाजा विभिन्न साक्षात्कारों के लिये प्राप्त होने वाले आवेदनों की संख्या से लगाया जा
सकता है।

१- सरकारी संस्था यू.पी.पी.एस.सी. का पद ९० तथा आवेदकों की संख्या २७०० हैं।
२- सरकारी संस्था यू.के.पी.एस.सी. का पद २५ तथा आवेदकों की संख्या २५०० हैं
३- सरकारी संस्था एन.आर.एच.एम.लखनऊ का पद ०६ तथा आवेदकों की संख्या १७० हैं
४- सरकारी संस्था एन.आर.एच.एम. बाराबंकी का पद ०३ तथा आवेदकों की संख्या २९८ हैं
५- सरकारी संस्था एन.आर.एच.एम. सीतापुर का पद ०३ तथा आवेदकों की संख्या १६० हैं
६- सरकारी संस्था एन.आर.एच.एम. बलरामपुर का पद ०१ तथा आवेदकों की संख्या ८९ हैं
७- सरकारी संस्था एन.आर.एच.एम. श्रावस्ती का पद ०१ तथा आवेदकों की संख्या १०८ हैं
८- सरकारी संस्था आई.टी.बी.पी. दिल्ली का पद १८ तथा आवेदकों की संख्या १७९४ हैं।

इस तरह का अनुपात क्या एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नियुक्ति के लिये भी देखा गया है। इन सब कारणों से डॉक्टर जैसी विशिष्ट श्रेणी का व्यक्ति होने के बावजूद डेन्टिस्ट अब तृतीय श्रेणी की नौकरी करने के लिये तैयार है। प्राइवेट क्लीनिक एवं डेन्टल कालेजों में डेन्टिस्ट मात्र २००० से ५००० रूपये प्रतिमाह पर ही काम कर रहे हैं। जिन्हें किसी भी समय बिना पूर्व सूचना दिये निकाला जा सकता है। इतना ही नहीं प्राथमिक विद्यालयों के लिये होने वाली बी.टी.सी. ट्रेनिंग २०१० में भी डेन्टिस्ट आवेदन कर रहे है। ऐसी विषम परिस्थितियों में वे छात्र जिन्होंने ०६ वर्ष कठिन परिश्रम करके बी0डी0एस0 की डिग्री की है, हतोत्साहित हो रहे है, मानसिक रूप से अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं और आत्म हत्या जैसे कदम भी उठाने के लिये मजबूर है।

एक ओर जहाँ सरकार के पास डेन्टिस्टों के समायोजन का कोई उचित प्रबन्ध नहीं है, वहीं दूसरी ओर सरकार बी0आर0एम0एस0 (बैचलर ऑफ़ रूरल मेडिसिन एण्ड सर्जरी) जैसे पाठयक्रम शुरू करके बेरोजगारी को और बढ़ावा देना चाहती है।

डॉक्टर जैसे विशिष्ट पद के लिये कम से कम 5 वर्षीय कोर्स की अपेक्षा मात्र साढ़े तीन वर्षीय कोर्स किस प्रकार उपयुक्त साबित होगा।

मांगे :-
1. सभी पी0एच0सी0 पर डेन्टिस्टों के पदों का सृजन किया जाय एवं सी0एच0सी0 एवं जिला अस्पतालों में खाली पड़े डेन्टिस्टों के पदों को भरा जाये एवं नये पदों का सृजन किया जाय।
2. डब्लू एच0 ओ0 के अनुसार डेन्टिस्ट व जनसंख्या का अनुपात 1:4000 है परन्तु इस मानक के आस पास भी डेंटिस्ट तैनात हैं।
3. डब्लू एच0 ओ0 के सुझाव के अनुसार प्रत्येक पी0एच0सी0 पर 02 एवं प्रत्येक सी0एच0ओ0 पर 03 डेन्टिस्टों की नियुक्ति की जाय।
4. यह नियुक्तिया पूरी तरह निष्पक्ष हों एवं लिखित परीक्षा तथा साक्षात्कार के माध्यम से उ0प्र0 संघ लोक सेवा आयोग के अन्तर्गत कराई जाये।
5. बी0आर0एम0 एस0 जैसे असंवैधानिक कोर्स शुरू करने से अच्छा है सरकार डेन्टिस्टों को ही जिनका पाठयक्रम एम0बी0बी0एस0 डॉक्टरों के समतुल्य है, उनको ग्रामीण क्षेत्र में नियुक्ति प्रदान करें। जिससे ग्रामीण क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवायें भी सुधरेंगी और डेन्टिस्टों की बेरोजगारी भी दूर होगी एवं सरकार एक नये पाठयक्रम के बोझ से भी बच जायेगी।
6. बी0डी0एस0 एवं एम0डी0एस0 का पाठयक्रम केवल उन्हीं डेन्टल कॉलेजों को चलाने दिया जाय जो डी0सी0आई द्वारा निर्धारित मानको को पूरा करते हैं, बाकी सभी डेन्टल कॉलेजों को बन्द किया जाय। डी0सी0आई0 जिस कालेज को बन्द करने का प्रस्ताव भेजती है उसे तत्काल बन्द किया जाय एवं राज्य सरकार इसमें पूरा सहयोग करे। अब किसी भी नये डेन्टल कॉलेज को अगले 10 साल तक खोलने की अनुमति न दी जाए।
7. निजी कॉलेजों के मानकों का वास्तविक औचक परीक्षण, विश्लेषण या निरीक्षण किया जाये, जैसे कि उनके विभागों में वास्तव में स्टाफ प्रतिदिन आते हैं या फिर केवल कागजों पर ही नाम दर्ज है। ओ0पी0डी0 में मरीज आते हैं या नहीं यदि आते हैं तो उनका इलाज होता है या केवल रजिस्टर के पन्ने ही भरे जाते हैं।
8. डी0सी0आई द्वारा निर्धारित मानकों कें अनुसार डेन्टल मैकेनिक एवं हाईजिनिस्ट को स्वतन्त्र रूप से प्रैक्टिस को कोई अधिकार नहीं है। अत: इनकी प्रैक्टिस को तत्काल बन्द किया जाय एवं इन्हें रजिस्टर्ड बी0डी0एस0 डॉक्टर के अधीन ही प्रैक्टिस की अनुमति दी जाये।
९- सरकार बी0डी0एस0 की सीटों की संख्या के अनुपात में एम0डी0एस0 की सीटों की संख्या में अतिशीघ्र पर्याप्त बढ़ोत्तरी की जाये।

संयोजक
डॉ० मुजीब आलम अंसारी
डॉ० विनोद कुमार शुक्ला
डॉ० अजय कुमार गुप्ता
डॉ० श्वेताभ त्रिपाठी

मुख्य सचिव उ० प्र० का आदेश नहीं मानता ग्राम सचिव

देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उ०प्र० में जहाँ नौकरशाही की भी सबसे भारी भरकम फ़ौज है। जो बुरी तरह से प्रशासनिक व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने में नकारा साबित हो रही है। इसका ज्वंलत उदाहरण है। मुख्य सचिव उ०प्र० के आदेश को ग्राम पंचायत अधिकारी / सचिव द्वारा न मानना यूँ तो सूचना अधिकार अधिनियम २००५ को भी लागू हुए पांच वर्ष पूरे हो गये और ठीक उ०प्र० की भारी भरकम नौकरशाही की तरह ही यहाँ भी देश के किसी भी राज्य से सबसे ज्यादा ११ मा० सूचना आयुक्त पदासीन है। और ये भी नौकरशाही की तरह अधिनियम को कारगर तरीके से अनुपालन कराने में पूरी तरह से विफल हुए है पिछले पांच वर्षों में बल्कि उ०प्र० देश का पहला ऐसा राज्य होने का गौरव भी प्राप्त किया है जहां के मुख्य सूचना आयुक्त को कदाचार के आरोप में निलम्बित किया गया है। इसी से आयोग की कार्य प्रणाली व साख का अंदाज लगाया जा सकता है।

फिर भी दायित्वशील नागरिकों द्वारा रस्सी की तरह पत्थर पर निशान डाल देने की कर्मठ जिजविषा के साथ सूचना अधिकार को मजबूती देने के लिए राज्य के जिले के विकास खंड रतनपुरा के ग्राम पंचायत साहूपुर के अरविन्द मूर्ति जिले के विकास खंड-फतेहपुर मड़ाव की आंबेडकर ग्राम सभा-कटघरा शंकर के निवासी कृष्ण मोहन मल्ल द्वारा अपनी-अपनी ग्राम पंचायतो से सम्बन्धित सूचना जन सूचना अधिकारी / ग्राम पंचायत अधिकारी से सूचना मांगते-मांगते प्रथम अपील करते आयोग आते और सूचना नहीं पाते हुए भी निराश होकर बल्कि अधिनियम की धारा ६(३) का उपयोग करते हुए अपनी-अपनी ग्राम पंचायत से सम्बन्धित सूचना मुख्य सचिव उ०प्र० शासन से दिनांक १३-०३-१० को रजिस्ट्रर्ड डाक द्वारा भेज कर मांगी गई तद्क्रम में मुख्य सचिव कार्यालय उ०प्र० द्वारा अपने पत्र दिनांक १८ मार्च १० पंत्राक सं० ८९०/मु.स./सू.का.अ.अ./०९ के द्वारा आवेदक को कहा गया कि आपका पत्र कार्यालय को १६.०३.१० को प्राप्त हुआ और आपका आवेदन धारा ६(३) के तहत ग्राम पंचायत सचिव को अंतरिम कर दिया गया आप उन्ही से सम्पर्क कर सूचना प्राप्त करे, इस पत्र प्राप्ति के पश्चात इसकी छायाप्रति के साथ ग्राम पंचायत अधिकारी क्रमश: साहुपुर के श्री कृष्ण कुमार राम व कटघरा शंकर के ग्राम पंचायत अधिकारी श्री सुरेश यादव से आवेदन कर्ता मिले परन्तु उक्त ग्रा०प०अ० / सचिवों ने पत्र लेने से स्पष्ट इनकार कर दिए तब दिनांक ११.५.१० को सहायक खंड विकास अधिकारी के यहाँ प्रथम अपील गई, प्रथम अपील के समय सीमा पूरी होने के बाद राज्य सूचना आयोग में अपील हुई आयोग में मा० आयुक्त ज्ञान प्रकाश मौर्य के यहाँ अपील संख्या एस-११-११५१/सी/१० व एस-११-११५२/सी०/१० में दिनांक २.११.१० को प्रथम सुनवाई हुई शासन का कोइ भी प्रतिनिधि नहीं उपस्थित हुआ वादी अरविन्द मूर्ति उपस्थित हुई मा० आयुक्त ने मऊ जिले के जिला पंचायत राज अधिकारी को नोटिस भेजने के आदेश के साथ अगली तिथि २१.१२.१० निर्धारित की २१.१२.१० की तिथि पर सुनवाई के दौरान पंचायत राज विभाग के प्रमुख सचिव कार्यालय से प्रतिनिधि सुनवाई पर उपस्थित हुआ और शासन को मुख्य सचिव कार्यालय को सुनवाई से हटाने की सिफारिश की जिसे मा. आयुक्त ने तुरन्त स्वीकार कर ली इस पर सुनवाई के समय उपस्थितवादी अरविन्द मूर्ति ने आपत्ति करते हुए सवाल उठाया कि जब मुख्य सचिव का आदेश ग्राम सचिव नहीं मानता है तो मुख्य सचिव कार्यालय को कैसे प्रतिवादी से हटाया जाएगा परन्तु मा० आयुक्त ने इनका पक्ष न सुनते हुए प्रशासन से आये प्रतिनिधि के सुझाव पर जिलाधिकारी मऊ को नोटिस भेजने के आदेश के साथ अगली तिथि १ मार्च ११ निर्धारित की मा. आयुक्त अधिनियम के प्राविधानों के तहत अपने कर्त्तव्यों और अधिकार का उपयोग न करके बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों के सुझावों के तहत कभी डी.पी.आर.ओ. को तो कभी डी. एम. को पिछली दो सुनवाईयों में सिर्फ नोटिस भेजने की खाना पूर्ति का रहे। जिससे सूचना अधिकार अधिनियम की मूल भावना समयबद्ध सूचना मिलने की धोर उपेक्षा मा० आयुक्तगणों के उदासीन व प्रशासनिक अधिकारियों / जनसूचना अधिकारियों के पक्ष में तटस्था के कारण हो रही है। जिससे एक अति प्रभावशाली कानून की साख पर बट्टा लग रहा है। और अगर आयुक्त गणों ने अपने रवैये में बदलाव नहीं लाया तो वह दिन दूर नहीं जब लोकायुक्त जैसे शक्तिशाली संवैधानिक संस्था के कार्यालय पर धुल जमी पड़ी रहती है । और आम नागरिक उसे सिर्फ भ्रष्टाचार रोकने की सफ़ेद हाथी समझते हुए नकारा मान चुका है। वही हश्र सूचना आयोग का भी न हो।

अरविन्द मूर्ति

''अयोध्या फैसला : लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ''

वाराणसी २८ नवंबर १०/अयोध्या फैसला लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ विषय पर मैत्री भवन में हुए सम्मलेन में लोकतंत्र के चारों स्तंभों के भूमिका और उनकी गैरजिम्मेदारी पर सवाल उठाए गए। जहाँ प्रथम सत्र में इतिहास के आइनें में कानून की भूमिका पर बात हुयी तो वहीं द्वितीय सत्र में लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी मूल्य के प्रति मीडिया और राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता पर भी सवालिया निशान लगाए गए।

अयोध्या फैसला कानून का मजाक और सांप्रदायिक राजनीति से प्रेरित है। यह बात इलाहाबाद हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रविकिरण जैन ने कहते हुए कहा कि न्यायपालिका में बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप लोकतंत्र के भविष्य के लिए खतरनाक है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने सांप्रदायिकता को बढ़ाने में संविधानिक संस्थाओं की भूमिका का जिक्र करते हुए कहा कि अयोध्या फैसले को सिर्फ मंदिर - मस्जिद तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि इसके बहाने राज्य स्वयं अपने घोषित लोकतांत्रिक मान्यताओं को ध्वस्त करने का अभियान चलाएगा।

पीयूसीएल के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह ने कहा कि इस फैसले पर कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों के रवैये के कारण मानवाधिकार संगठनों की भूमिका बढ़ गयी है। सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गाँधी संस्थान के अध्यक्ष दीपक मलिक ने कहा कि इस फैसले से न्यायपालिका ने भविष्य के विध्वंसक राजनीति और सांप्रदायिक कत्लेआम के लिए रास्ते खोल दिए है।

मैग्सेसे पुरस्कार द्वारा सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डेय ने कहा कि सांप्रदायिक तत्वों को पूरी व्यवस्था संरक्षण दे रही है जबकि पूरे देश में लोकतान्त्रिक आवाज उठाने वालों का दमन किया जा रहा हैलखन हाई कोर्ट के अधिवक्ता मों.शोएब ने कहा कि अगर अब आस्था के आधार पर ही फैसले होंगे तो कोई भी कही भी आस्था के आधार पर दावा कर सकता है, इससे न्यायिक अराजकता फ़ैल जाएगीसुनील सहस्त्रबुद्धे ने कहा कि न्यायालय सांप्रदायिक तत्वों के आस्था को कानूनी वैधता तो दे रहा है लेकिन आदिवासियों की आस्था और मान्यताओं के साथ खिलवाड़ कर उन्हें उनके जल-जंगल-जमीन से उजाड़े जाने पर न्यायपालिका क्यों चुप रहती है।

डिबेट सोसाइटी द्वारा आयोजित सम्मलेन में मों.आरिफ, जहांगीर आलम, प्रशां शुक्ला, चित्रा सहस्त्रबुद्धे, आनंद दीपायन आदि ने भी अपने विचार रखे। सम्मेलन में शाहनवाज आलम, अंशु माला सिंह, मनीष शर्मा, राजीव यादव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, लक्ष्मण प्रसाद, बलबीर यादव, तारिक शफीक, आनंद, गुरविंदर सिंह, ताबीर कलाम, शशिकांत, युसूफ, ज्ञान चन्द्र पाण्डेय, विनोद यादव, मसिहुद्दीन संजरी आदि मौजूद रहे। सम्मेलन के प्रथम सत्र का संचालन एकता सिंह और द्वितीय सत्र का संचालन गुंजन सिंह ने किया और रवि शेखर ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

गुंजन सिंह और रवि शेखर

मेरी तुर्की यात्रा

मैं पहले भी डॉ बार तुर्की जा चुका हूँ। इस बार मैं तुर्की के अन्ताल्या शहर मे ‘‘राईटर्स एंड जर्नलिस्ट्स फाउंडेशन’’ द्वारा आयोजित संगोष्ठी में भाग लेने वहाँ गया था। तुर्की के अलावा, करीब 60 अन्य देशों से आए 600 प्रतिनिधियों ने 26-27 नवंबर 2010 को आयोजित इस संगोष्ठी में हिस्सा लिया। संगोष्ठी का विषय था, ‘‘इस्लाम और परिवार’’ परंतु इस संगोष्ठी के संबंध में मैं बाद में कुछ कहूँगा।

अपनी पूर्व तुर्की यात्राओं में, समयाभाव के चलते, इस्ताबूल से बाहर नहीं जा सका था। मेरी पहली इस्तांबूल यात्रा सितंबर 2002 में हुई थी। तब मैं ‘‘वैश्वीकरण की नैतिकता’’ विषय पर आयोजित सम्मेलन में हिस्सा लेने गया था। दूसरी बार मैं हैनरिच बॉल फाउंडेशन द्वारा ‘‘ इस्लाम और राज्य’’ विषय पर आयोजित सम्मेलन में हिस्सेदारी के लिए इस्तांबूल गया। इस सम्मेलन में बड़ी संख्या में तुर्की महिलाओं ने भाग लिया था। मजे की बात यह है मेरे द्वारा हिजाब का मुद्दा उठाने के बाद, लगभग सभी महिला वक्ताओं ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए। उनमें से कुछ को छोड़कर सभी ने हिजाब का विरोध किया। यही स्थिति आज भी है

तुर्की के इस्तांबूल, अन्ताल्या अन्य हरों में अधिकां महिलाएं पश्चिमी परिधान पहनती हैं परन्तु कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में हिजाब ज्यादा दिखलाई पड़ता है। अलबत्ता, बुर्के से सिर से पैर तक ढंकी हुई और अपना चेहरा छुपाए कोई महिला मुझे नहीं दिखी। अरब देशों भारत के विपरीत, तुर्की महिलाएं केवल काले रंग के कपड़ों से स्वयं को नहीं ढंकती। वे रंग-बिरंगे कोट स्कार्फ पहनती है और सुंदर दिखती हैं

तुर्की के लोग श्वेत हैं और वहां का जीवन स्तर जल्दी ही यूरोप के समकक्ष हो जावेगा। तुर्की पहँच ऐसा लगता है मानो हम किसी यूरोपीय दे में पहुंच गए हों। वहां की जो चीज सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह है साफ-सफाई का उच्च स्तर। क्वोनिया जैसे छोटे से हर और अन्ताल्या के आसपास के ग्रामीण क्षेत्र में भी मैंने किसी को सार्वजनिक स्थान पर कचरा फेंकते नहीं देखा। इसके विपरीत, हमारे दे में साफ-सफाई का नामोनिशा नहीं है। मुंबई हर में भी जगह-जगह कचरे के ढेर देखे जा सकते हैं। यह सचमुच र्मनाक है कि तुर्की से आर्थिक तकनीकी के क्षेत्र में बहुत आगे होने के बावजूद हमारे दे का साफ-सफाई का स्तर इतना निम्न है।

यद्यपि तुर्की की सौ प्रतिशत आबादी मुस्लिम है तथापि वहां धार्मिक अतिवाद ना के बराबर है। इसका एक कारण तो मुस्तफा कमाल अतातुर्क की विचार धारा का प्रभाव है परंतु इसके पीछे आधुनिक कारक भी हैं। फैतुल्लाह गुलैन, सबसे महान आधुनिक इस्लामिक आंदोलन के प्रणेता हैं। एक अमरीकी सर्वेक्षण के अनुसार वे दुनिया के दस सबसे प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक हैं। उन्होंने इस्लामिक दुनिया में यह संदेश फैलाया कि इस्लाम और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं है और मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर विज्ञान के क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ना चाहिए। उनकी प्रेरणा से हजारों आधुनिक शिक्षा केन्द्र स्थापित हुए हैं।

अन्ताल्या में मेरी मुलाकात जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली के पश्चिम एशिया अध्ययन केन्द्र के प्रोफेसर अनवर जमाल से हुई। वे इन दिनों तुर्की में रहकर फैतुल्लाह गुलैन के आंदोलन का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि भारत में ऐसा कोई आंदोलन नहीं उभर सका। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि तुर्की में समाज विज्ञानों के अध्ययन शोंध का स्तर बहुत ऊँचा है परंतु वहां केवल तुर्की भाषा का इस्तेमाल होता है, अंग्रेजी का नहीं। इस कारण, दुनिया उनकी उपलब्धियों से अनभिज्ञ है।

प्रो. अनवर ने मुझे यह भी बताया कि तुर्की में धार्मिकता की वापसी हो रही है परंतु अब तक, धार्मिकता ने अतिवादी स्वरूप् अख्तियार नहीं किया है। तुर्की में धार्मिकता की वापसी आश्चर्यजनक नहीं है। किसी भी आंदोलन, विचार या विचारधारा को कुचलना कतई कभी संभव नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं कि कमाल अतातुर्क का आंदोलन अत्यंत प्रभावी सफल था। कमाल अतातुर्क ने सन 1920 के दशक में तुर्की को आधुनिक बनाने का पुरजोर प्रयास किया था। परंतु यह आधुनिकता समाज पर जबरदस्ती लादी गई थी। सरकार ने धार्मिक गतिविधियों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया, धार्मिक रूढ़ियों को कड़ाई से प्रतिबंधित किया गया और जनता को यूरोपीय परिधान पहनने के लिए मजबूर किया गया। नतीजतन, तुर्की में धर्मनिरपेक्षता आधुनिकता ने तो जड़ें जमा लीं परंतु धार्मिक कट्टरता को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका। आज के तुर्की में आधुनिकता धार्मिक कट्टरता का सहअस्तित्व है परंतु दोनों के बीच के संघर्ष ने विस्फोटक स्वरूप नहीं लिया है।

जब यूरोपीय अमरीकी राष्ट्रों में, जहां धर्मनिरपेक्षता की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं, धार्मिकता की वापसी हो रही है तब हम तुर्की जैसे देशों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं। तुर्की में धार्मिक दकियानूसीपन कट्टरता को कुचला गया था। यूरोपीय देशों की तरह, आधुनिकता के प्रभाव से धार्मिक कट्टरता कमजोर नहीं हुई थी। इस तथ्य के प्रकाश में यह प्रंशसनीय है कि तुर्की में धार्मिक कट्टरता का पुनरूथान नहीं हो रहा है। ‘‘इस्लाम परिवार’’ सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिलने पर मैंने ‘‘इंडियालोंग’’ के श्री बिलाल से संपर्क किया। ‘‘इंडियालोंग’’ भारत में कार्यरत एक तुर्की संस्था है जो कई शहरों में स्कूल चलाती है अंतर्धार्मिकि संवाद के कार्यक्रम भी आयोजित करती है। मैंने श्री बिलाल से अनुरोध किया कि वे मेरी क्वोनिया यात्रा का प्रबंध करवा दें। क्वोनिया में मौलाना जलालुद्दीन रूमी की कब्र है। मैं मौलाना रूमी का जबरदस्त प्रंशसक हूं और मेरी हमेशा से यह इच्छा रही है कि मैं उनकी समाधि दर्शन करूं। ‘‘इंडियालोंग’’ ने कृपापूर्वक केवल मेरी क्वोनिया यात्रा का प्रबंध करवाया वरन मेरे साथ तुर्की जाने के लिए श्री यासर सुसाकेन को पाबंद भी किया। श्री सुसाकेन मेरे साथ मुबंई से इस्तांबूल, वहां से क्वोनिया अन्ताल्या गए और फिर मुंबई वापस आए। उनका साथ मेरे लिए बहुत उपयोगी रहा। तुर्क होने के नाते, उनके कारण मुझे भाषा की कोई समस्या नहीं हुई। इसके अलावा तुर्की में उनके व्यापक संपर्क-संबंध भी मेरे बहुत काम आए।

क्वोनिया एक छोटा परंतु बहुत सुंदर शहर है। तुर्की के अन्य हिस्सों की तरह, क्वोनिया भी बहुत साफ-सुथरा है। इस शहर में तेजी से नए भवन व संस्थाएं बन रहीं हैं। यहाँ इस्तांबूल व अन्ताल्या की तुलना में कहीं अधिक महिलाएं हिजाब पहने नजर आई। मुझे यह कहना होगा कि भारत की तरह, तुर्की के लोग भी अत्यंत मेहमाननवाज हैं। कम से कम इस मामले में वे यूरोपीय नहीं बने हैं ! हम लोग इस्तांबूल से हवाईजहाज द्वारा क्वोनिया पहुंचे। एयरपोर्ट पर हमारा स्वागत, यासर के साथी ओजर ओजसेलिक ने किया। उन्होंने हमें मुंह में पानी लाने वाला शानदार तुर्की डिनर करवाया और अगले दिन क्वोनिया के विभिन्न इलाकों में
घुमाया

हम मौलाना जलालुद्दीन रूमी की कब्र पर पहुंचे। यह मेरे लिए बरसों पुराने सपने के सच होने जैसा था। मैंने रूमी की मस्नवी (फारसी का कई खंडों का महाकाव्य) सन 1950 के दक के मध्य में पढ़ी थी। तब मैं मेट्रिक में था। यह मस्नवी इतनी असाधारण कृति है कि उसे फारसी में कुरान भी कहा जाता है। आज भी यह विश्व की महानतम साहित्यिक कृतियों में से एक मानी जाती हैं। मौलाना रूमी अत्यंत उदारमना व व्यापक दृष्टिकोण वाले साहित्यकार थे। वे सारी दुनिया से प्रेम करते थे। धार्मिक भेदभाव उन्हें छू तक नहीं गया। उनकी ब्रगाह के मुख्य द्वार पर लिखा है ‘यह प्रेमियों का काबा है’। प्रेम उनके दर्शन का केन्द्रीय तत्व था। अगर उनके दर्शन को एक पंक्ति में व्यक्त किया जाए तो वह होगी कि ‘प्रेम के बिना मानव हृदय, मुटठी भर धूल से ज्यादा कुछ नहीं है।’

रूमी की कब्रगाह की यात्रा ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। मैं कुछ क्षणों तक शांत खड़ा रहकर उनके प्रेम के शान्ति दर्शन के बारे में सोचता रहा और उनकी मस्नवी के हिस्सों को याद करता रहा। उस स्थल की गरिमा को ब्दों में बयान करना मुश्किल है। और जिस ढंग से आगन्तुक उस स्थल की गरिमा बनाए रखते है, वह सचमुच प्रशंसनीय है। वहां तो खुद्दाम (सेवक) हैं ओर ही भेंट चढ़ाने की परंपरा। वहां मुझे एक भी दानपेटी नजर नहीं आई। प्रशंसक वहां आते हैं, शान्तिपूर्वक प्रार्थना करते हैं और चले जाते हैं। भवन का अंदर का हिस्सा इतना सुंदर है कि वहां से बाहर निकलने को जी नहीं करता। वहां बाँसुरी सहित विभिन्न वाद्ययंत्र भी प्रदर्शित किए गए हैं जो कि महफिले समा (संगीत की महफिल) में इस्तेमाल किए जाते थे। मौलाना रूमी की मस्नवी की शुरूवात बाँसुरी के उदास स्वरों से होती है। वहां मौलाना के वस्त्र और उनकी अन्य चीजें भी प्रदर्शित की गई है।

मौलाना रूमी की दरगाह की गरिमा शाँति की तुलना हमारे दे की सूफी दरगाहों के शोर-राबे गंदगी से करने से मैं स्वयं को रोक सका। हमारे दे में सैकड़ों खुद्दाम हर आगंतुक के पीछे लग जाते हैं और तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ते जब तक वह कुछ भेंट नहीं चढ़ देता। कहने की जरूरत नहीं कि यह भेंट सीधे खुद्दामों की जेब में जाती हैं। कई बार तो रेलवे स्टे या बस स्टैंड से ही खुद्दाम आपके पीछे पड़ जाते हैं। वे बेहद लालची और बेर्म होते है।

मौलाना रूमी का उर्स हर वर्ष दिसंबर के महीने में मनाया जाता है पर इस मौके पर चादर चढ़ाने की परंपरा नही है। मुझे बताया गया कि हर दो-तीन साल में, जब चादर गंदी हो जाती है तब उसे बदल दिया जाता है। वहां किसी को भी कब्र को छूने या चूमने की इजाजत नही है। यहां तक कि कब्र पर फूल तक नहीं चढ़ाए जाते। का, ऐसा ही गंभीरता, शांति गरिमा का वातावरण हमारे दे की सूफी दरगाहों में होता।

और अब अन्ताल्या में आयोजितइस्लाम परिवारसम्मेलन के बारे में कुछ सम्मेलन, समुद्र के किनारे स्थित एक लुभावने होटल में आयोजित था। यद्यपि सम्मेलन में 60 देशों के 600 से अधिक प्रतिभागी उपस्थित थे तथापि पूरी कार्यवाही अत्यंत अनुशासित तरीके से संचालित की गई। सम्मेलन के विषय के रूप मेंपरिवारको चुना गया था क्योंकि तुर्की सहित पूरी दुनिया में परिवार की संस्था कमजोर हो रही है। मुझे एक सत्र की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया गया और उस सत्र में मैं ही मुख्य वक्ता था। मैंनेकुरआन, इस्लाम महिलाएंविषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए। परिवार संस्था के कमजोर होते जाने के कारणों को विश्लेषण करते हुए मैंने कहा कि इसके लिए मुख्यत: पितृसत्तात्मक मूल्य जिम्मेदार हैं। जब तक महिलाओं पर पितृसत्तात्मक मूल्य लादे जाते रहेंगे, तब तक परिवार, मजबूत स्थिर नहीं बन सकेगा।

आज की महिला पढ़ी-लिखी व अपने अधिकारों के प्रति जागृत हैं। अगर उसके साथ गरिमापूर्ण व्यवहार नहीं किया गया तो वह पुरूषों के आगे झुकेगी नहीं। कुरआन इस तथ्य से अच्छी तरह से वाकिफ थी और इसलिए वह महिलाओं को न केवल समान अधिकार देती है वरन पुरूषों से जोर देकर यह कहती है कि ऐसा कोई भी निर्णय लेने से पहले, जिसका प्रभाव उनके परिवार पर पड़ने वाला हो, अपनी पत्नी की सलाह अवश्य लें । हमारे दे में भले ही प्रजातंत्र हो परंतु परिवारों में आज भी प्रजातंत्र नहीं है। वहां तो पुरूषों का बोलबाला है। सारे महत्वपूर्ण निर्णय पति लेते है और महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उन निर्णयों को चुपचाप स्वीकार करें। कुरआन में जोर महिलाओं के अधिकारों पर है जबकि रीयत कानून में केवल उनके कर्तव्यों पर जोर दिया गया है। कुरआन व रीयत के इस विरोधाभास को खत्म किया जाना चाहिए।

आज महिलाएं कमातीं है और पारिवारिक आय में योगदान देती है फिर भला क्यों वे पुरूषों के आगे झुकें ? पारिवारिक मसलों में एक-दूसरे की भूमिका का पतियों को सम्मान करना चाहिए। पैगंबर साहब ने पुरूषों से आव्हान किया है कि वे आदर्श पति बनें और अपनी पत्नियों को तलाक का डर दिखाने से बाज आवें। कुरआन कहती है कि तलाक के पहले, पति-पत्नी के बीच मेल-मिलाप कराने के प्रयास अवश्य किये जाने चाहिए। इसके विपरीत, आज तलाक के मामले में पुरूष अंतिम व एकमात्र निर्णायक बन बैठा है। यह कुरआन के विरूद्ध है। कोई भी आधुनिक, पढ़ी-लिखी व अपने अधिकारों के प्रति जागृत महिला, इस स्थिति को स्वीकार नहीं करेगी।

सम्मेलन में प्रस्तुत किए गए सभी शोधपत्रों को एक पुस्तक के रूप में संकलित कर प्रकाशित किया गया हैं। इस पुस्तक का शीर्षक है ‘परिवार’। इस पुस्तक में चार सौ से अधिक पृष्ठ है। इन शोधपत्रों के प्रस्तुतकर्ताओं में शिक्षाविद, विभिन्न धर्मों के धर्मशास्त्री व सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। सम्मेलन में सभी प्रमुख धर्मों- ईसाई, यहूदी व इस्लाम- के धर्म शास्त्रियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन काफी दिलचस्प था। अलबत्ता एक शिकायत मुझे है और वह यह कि शोध पत्रों के प्रस्तुतिकरण में ही सारा समय निकल गया और आपसी चर्चा व बहस के लिए बचा ही नहीं।

डॉ. असगर अली इंजीनियर

विश्वशक्ति बनते भारत की कुपोषित-बीमार आबादी

पूरी दुनिया में यह अभियान जोर-शोर से चल रहे है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन का क़ानूनन अधिकार मिले। हमारे देश में भी लोगों ने इस बाबत कमर कस ली है। सरकार की नीति तो यह है कि गरीबी रेखा के नीचे जी रहे परिवारों को प्रतिमाह पैंतीस किलोग्राम अनाज सस्ते दर पर उपलब्ध करायी जाए पर इस सरकारी नीति को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करते वक्त अगर नौकरशाही और ठेकेदारों की सेंधमारी न हुई होती तो शायद नज़ारा कुछ और ही होता। गौरतलब है कि सरकारी योजनाकारों द्वारा गरीबी की रेखा व प्रति परिवार सस्ते दर पर अनाज की मात्रा का आकलन भी बेहद अदूरदर्शी और मनगढ़ंत लगता है। बहरहाल, तक़रीबन ११० करोड़ की आबादी वाले देश में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक सन २००६ तक २५.१५ करोड़ लोग यानी आबादी का कम से कम बीस फीसदी हिस्सा भीषण रूप से कुपोषित था। यह हालात कमोबेश बरकरार है। जाहिर है इसका प्रमुख कारण खाने-पीने की चीज़ों का लोगों की पहुँच से बाहर होना है क्योंकि शौकिया तो कोई भूखा नहीं ही रहेगा।

जून २०१० में जारी विश्व बैंक का रपट कहता है कि भारत में जनवरी २०१० तक भोजन के थोक मूल्यों में वित्तीय वर्ष २००८-०९ के बनिस्बत जो बदलाव आए हैं, उससे भोजन तक लोगों की पहुँच मुश्क़िल हुई है। चीनी की कीमत ४२ फीसदी बढ़ी है और अनाज १४ फीसदी महँगे हुए हैं। दालों की कीमत में औसतन २८ फीसदी का उछाल आया है जबकि दूध, अंडे, मछलियों और सब्जियों के भाव भी मई तक ३५ फीसदी बढ़कर आसमान छूने लगे हैं। हालाँकि दूसरी ओर देखने वाली बात यह है कि इसी वक्त भारतीय खाद्य निगम के पास गेहूँ और चावल का ४७५ लाख टन भंडारण हो चुका था, जो कि बफ़र स्टॉक से २७५ लाख टन फ़ाज़िल है। यानी खेती-किसानी की खस्ताहाल स्थिति के बावज़ूद भी सरकारी गोदामों में इतना अनाज तो है ही कि लोग भूखों न मरें। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में उनकी क्षमता से अधिक अनाज ठूँसे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। भूखे लोगों तक अनाजों को मुहैया कराने के बजाए विडंबना यह है कि या तो इन्हें चूहें हज़म कर जाते हैं या सड़ने के बाद इसे पानी में बहाया जा रहा है। अफ़सोस कि आज तक इन अनाजों के समुचित वितरण का सटीक और असरदार तरीका नहीं ढ़ूँढ़ा जा सका है। सरकार के लिए अब सिर्फ़ योजनाएँ बनाना नाकाफी है, ज्यादा ज़रूरी यह है ऐसी वितरण प्रणाली खड़ी की जाए जिससे ज़रूरतमंद लोगों का पेट आसानी से भर सके और हमारा समाज लंबे समय से चले आ रहे कुपोषण से मुक्त हो पाये।

२०१० के अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक के मुताबिक "सबसे भूखा कौन ?" के मुकाबिले में भारत अपने पड़ोसी देशों-चीन, पाकिस्तान और नेपाल से बहुत आगे है। कुल १२२ देशों में हुए अध्ययन में भारत ५५वाँ सबसे भूखा देश है। एक दूसरे स्रोत से पता चलता है कि दुनिया के कुल ९२.५ करोड़ लोगों की भूखी आबादी में से ४५.६ करोड़ लोग भारत में रहते हैं। क्या कारण है कि करीबन साढ़े आठ फीसदी की दर से तरक्की करने वाली इस देश की अर्थव्यव्स्था पर आश्रित आबादी में दो-तिहाई महिलाओं के शरीर में खून की कमी एक आम बात बन कर रह गई है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने भले ही, अस्थाई ही सही, सदस्यता हासिल की हो, लेकिन एक सवाल फन काढ़े खड़ा है कि जब इसके पाँच साल से छोटे बच्चे की लगभग आधी आबादी दिल दहलाने वाली कुपोषण का शिकार है तो भविष्य में इस देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी किनके कंधों पर होगी ? याद रहे, बचपन में मनुष्य का विकासशील शरीर अगर पर्याप्त पोषण जुटा नहीं पाता है तो इसका खामियाजा उसे ताउम्र भुगतना पड़ता है। भारतीय बच्चों में व्याप्त कुपोषण दरअसल देश की इंसानी नस्ल को शारीरिक और मानसिक तौर पर लाचार और कमजोर बना रहा है और इस कारण देश की सुरक्षा ही क्या, अब उसके पूरे अस्तित्व पर मंडराते ख़तरे को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि देश में होने वाली कुल बीमारियों में से २२ फीसदी बचपन में हुए कुपोषण के कारण होती हैं। सोचिए अब ऐसे हालात हैं तो क्या है इस देश का भविष्य ? यही नहीं, कुपोषण का मामला इतना सपाट भी नहीं है, समाज के अलग-अलग तबकों की अलग-अलग कहानी है। ग़ौर करने वाली बात है कि देश में बच्चियाँ बच्चों से अधिक कुपोषित हैं और अनुसूचित जातियों जनजातियों में कुपोषण का आँकड़ा सामान्य से कहीं अधिक है।

देश में भूख की इस गंभीर स्थिति के बाद भी सरकार के जानिब से बार बार इस तरह की बयानबाज़ी सुनने को मिलती रहती है कि हिंदुस्तान एक ताक़तवर मुल्क बनने की राह में बड़ी तेज़ी से कदम बढ़ा रहा है। इन सरकारी दावों को विश्व अर्थव्यवस्था के नुमाइंदे भी खूब हवा देते हैं। मीडिया का एक धड़ा भी इनके हाँ में हाँ मिलाता है। वाकई भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूती के पायदानों पर नित नई ऊँचाईयाँ हासिल कर रही है और इसके मद्देनज़र इस तरह की बातों का होना लाज़िमी भी है। लेकिन, आश्चर्य यह है कि आँकड़े तो कुछ और ही हाल बयान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक पाँच साल पहले तक देश की ४१.१ फीसदी आबादी दिन भर में एक डॉलर याने चालीस-पैंतालिस रूपये से अधिक कमा नहीं पाती थी। यह स्थिति कमोबेश बरकरार है।

मगर, गौरतलब है कि अब भारत सरकार की बढ़ती कूवत की कई उदाहरण मिलने लगे हैं। ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों का है, जिसमें सरकार लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धनराशि और संसाधन खर्च कर रही है। किंतु, भारत की तुलना एक ऐसे परिवार से की जा सकती है, जहाँ बच्चे भूख से बिलख रहे हों और पिता अतिथियों को आमंत्रित करके स्वागत में राजसी भोजन परोस रहा है। हालाँकि इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के राजसत्ता की हैसियत पिछले दशकों के बरअक्स बहुत बढ़ी है, पर इसका फायदा अधिकतर जनता के नसीब में नहीं है। देश की ज्यादातर जनता अकाल जैसी स्थितियों में अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने के लिए कोल्हू का बैल बनी हुई है। जाहिर है उस देश की अमीरी का क्या मतलब, जिस देश में लोगों का स्वास्थ्य विश्व मानकों से बहुत नीचे हो। यह तो बिल्कुल वही बात हुई कि महँगे कपडों से अपने कोढ़ को छुपाने की कोशिश की जा रही हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस साल जारी किए आँकड़ों से पता चलता है कि आज भी भारत में बच्चे को जन्म देते वक्त हर एक लाख माँओं में से साढ़े चार सौ माँएँ स्वर्ग सिधार जाती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति जलवायु के कारण नहीं है, क्योंकि अपने पड़ोस में बसा देश श्रीलंका प्रसव के दौरान एक लाख में केवल अठावन माँओं की जान को बचा पाने में चूकता है। यही संख्या पाकिस्तान में तीन सौ बीस माँएँ प्रति लाख माँ है, जो अधिक होने के बाद भी भारत से कम ही है। चीन में भी एक लाख माँओं में से पैंतालिस माँएँ मरने को विवश हैं, याने यह दर भारत में मरने वाली माँओं का दसवाँ हिस्सा मात्र है। खाद्य एवं कृषि संगठन से प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक सन २००७ में हुई गणना में यह पाया गया कि भारत में दस हज़ार बच्चों में से औसतन ५४३ बच्चे जन्मते ही मर जाते हैं और ७१८ बच्चे पाँच साल की उम्र भी पार नहीं कर पाते हैं। यह सारे आँकड़े देशभर का औसत हैं और गाँवों की स्थिति तो और भी विभत्स है।

स्वास्थ्य संबंधी तकनीकियों का तड़ित गति से विकास होने के बाद भी यह सवाल क्यों खड़ा है कि देश में कुपोषण, बीमारियों और देखभाल की कमी के कारण अकाल मृत्युओं की संख्या आसपास के अन्य देशों से अधिक है ? जवाब जाहिर है कि भारत में विदेशियों को भले ही स्वास्थ्य पर्यटन पर आने के लिए रिझाया जा रहा हो, आम लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ या तो नदारद हैं या नाकाफी। मौज़ूदा दशक पर एक नज़र दौड़ाए तो पायेंगे कि शहरी और ग्रामीण इलाकों को एक साथ मिलाकर भारत में औसतन १६६७ लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी एक चिकित्सक पर हैं। औसत का गणित यह है तो कहना न होगा कि ग्रामीण इलाकों मे जहाँ चिकित्सकों की कमी जगजाहिर है, वहाँ इस औसत से कितने अधिक लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा एक चिकित्सक पर होगा। याद रहे कि विश्वशक्ति बनने के होड़ में शामिल चीन और पाकिस्तान की स्थिति इस मामले में भारत से बेहतर ही है।

देश में आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के कमी के क्या कारण है ? सरकार जहाँ सैन्यीकरण पर पानी की तरह पैसा बहा रही है, वही विश्व स्वास्थ्य संगठन के रपट के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद का ४.१ फीसदी खर्चा स्वास्थ्य पर किया जाता है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का २६.2 फीसदी बोझ ही सरकारी ख़जाने पर पड़ता है बाकी ७३.८ फीसदी देनदारी जनता की होती है। कुल मिलाकर देखे तो भारत में स्वास्थ्य के लिए सालाना १०९ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किए जाते हैं और इसमें भी सरकारी हिस्सेदारी अत्यल्प है। चीन में स्वास्थ्य पर होने वाले प्रति व्यक्ति खर्च के २३३ डॉलर की राशि की भारत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। अरे ! भारत से अधिक तो भूटान स्वास्थ्य मद में १८८ डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च करता है।

कुल मिलाकर देखें तो एक बड़ा सवाल उभर के सामने आता है कि जहाँ की बीस फीसदी आबादी कुपोषित हो और बीमारियों का गिरफ़्त इतना विभत्स हो, वह देश किन आधारों पर किन लोगों के हित में विश्वशक्ति बनने के दावे पेश कर रहा है ?

देवाशीष प्रसून