28 मई 1931 को अपने अखबार, यंग इण्डिया में राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने एक लेख लिखा जिसका एक छोटा अंश इस प्रकार है-
१. हर पंचायत से यह आशा की जाती है कि वह गांव में निम्न चीजों को सुनिश्चित करेगा- गांव में ही लड़के व लड़कियों को पढ़ने के लिये शिक्षा की व्यवस्था
2. सफाई का प्रबन्ध
3. गांव में कुओं व तालाबों की सफाई की व्यवस्था
4. गांव में रहने वाले गरीबों व अछूतों के उद्धार व उनकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था
आजादी के आन्दोलन के दौरान जो लड़ाई लड़ी जा रही थी, उसका उद्देश्य केवल अंग्रेजों को भारत की सीमा के बाहर खदेड़ना ही नहीं था, वरन आजादी के बाद नये भारत के स्वरूप कैसा होगा, इसका भी रेखा चित्र धीरे-धीरे उभर कर सामने आ रहा था। स्वतंत्रता संग्राम की अगली कतार में रहने वाले नेताओं ने स्वतंत्र भारत के लिये एक विकेन्द्रित व्यवस्था का सपना गढ़ा था। विकेंद्रीकरण का मतलब यह न ही था कि सारे फैसले की सर्वोत्तम राजनैतिक संस्था ‘संसद’ में बैठे लोग लें और इसे नौकरशाही के जरिये दिल्ली से सारे देश में उतारा जाए।
15 अगस्त, 1947 को जब हम आजाद हुए उससे पहले से ही संविधान सभा संविधान बनाने के काम में जुटी हुई थी। 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू हुआ। इसकी उद्देशिका में कहा गया-हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोक तंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक त्याग सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बनाने के लिये वृत्र संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं ‘‘इस संविधान के रचनाकार’’ ‘हम भारत के लोग’ ही तो थे। आर्थिक और राजनैतिक सम्प्रभुत्ता का अर्थ था कि ‘हम भारत के लोग’ कैसा विकास चाहते हैं ? यह भी हम ही भारत के लोगों को ही तय करना था। विकास ऐसा होना चाहिये था जिससे सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय मिलता।
संविधान मात्र कानूनों की किताब नहीं है। राज्य और राजनीति के चरित्र को निर्धारित करने वाला यह राष्ट्र का एक मौलिक दस्तावेज है। भारतीय संविधान की प्रारम्भिक उदघोषणा और चौथा भाग, जिसे निदेशक सिद्धान्त कहा गया है, सर्वाधिक महत्व की चीज है। समाजवाद और समता मूलक मानव विकास की अवधारणा इसमें निहित है।
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान संजोय गये मूल्यों और मान्यताओं तथा जन आकांक्षाओं को समझते हुऐ हमारे देश की संविधान सभा ने देशवासियों को एक संविधान सौंपा जिसमें राज्य संचालन के लिये कुछ संस्थायें दी गई और इस देश के नागरिकों को कुछ मूल अधिकार और देश के संचालन के लिये कुछ मूल नीति निर्देशक संविधान के भाग 4 में दिये गये। संविधान के अध्याय 4 में शामिल किये गये नीति निर्देशक तत्व को एक समय सीमा के अन्तर्गत पूरा करने का संकल्प भी संविधान के अन्दर दिखायी पड़ता है जैसा कि धारा 45 जो कि संविधान के भाग 4 में ही है। इसमें कहा गया है कि राज्य 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु तक के बालकों को प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान करेगा। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुए उसके 10 वर्ष के अन्दर यानी 26 जनवरी 1960 तक देश के उन बालकों को जो उस समय 14 वर्ष की आयु तक पहुंचे होंगे, को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करनी थी। इसके अलावा इन नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत संविधान में ये कहा गया कि राज्य अपनी नीति का विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से :-
(क) पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो,
(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो,
(ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्व साधारण के लिये अहितकारी संकेन्द्रण न हो,
(घ) पुरूषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिये समान वेतन हो,
(ड) पुरूष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों,
(च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दी जाये और बालकों अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।
कई दशकों के बीत जाने पर भी इन उद्देश्यों को कागज से निकाल कर जमीन पर नही उतारा जा सका। इस देश के लोगों के छ: दशकों के कटु अनुभव ने इस सच्चाई को सामने ला दिया है कि जिस प्रतिनिधि मूलक जनतांत्रिक प्रणाली के ढांचे को संविधान के अन्तर्गत निर्मित संस्थाओं के द्वारा सारे देश को चलाया जा रहा है, वह न सिर्फ पूरी तरह विफल हो चुका है बल्कि जिस जनता के लिये इस देश के संविधान की रचना की गयी वह उसके खिलाफ चला गया।
अगर हम एक बार पीछे मुड़कर देखें तो यह साफ दिखायी देता है कि प्रतिनिधिमूलक प्रजातांत्रिक प्रणाली के अन्त की शुरुवात 1971 में हुयी जब इन्दिरा गांधी ने संसद के और विधान सभाओं के चुनाव को, जो उससे पहले एक साथ होते थे, अलग-अलग कर दिया जो कि 1972 में होना था। एक साल पहले जनता को इस बात का अंदेशा पार्टी के पास था, चुनाव में खर्च करने के लिये बांट दिया 1971 और 1991 के बीच की राजनीतिक उथल-पुथल में उन शक्तियों की ही जीत हुई है जो जनता की भागीदारी के प्रजातंत्र के विरोधी हैं। इस बीस वर्ष की राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि 1001 में जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने खजाना खाली पाया। उसके बाद नरसिंहा राव प्रधान मंत्री और डा. सिंह, वित्त मंत्री बने और इस युगल जोड़ीं ने हमारे देश को विश्व बैंक और आई.एम.एस. के मकड़जाल में फंसा दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि हमारी राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता के समाप्त होने का सिलसिला तेजी से शुरू हो गया। इसके बाद जो सरकारें आयी, चाहे केंद्र की या राज्यों की, उनके तरीकें भी वही हो गये जो केंद्र की सरकार के थे और सब सरकारें इन दो बेंकों के कर्जदार होने शुरू हो गये और अपने संसाधनों को उन्होंने गिरवी रखना शुरू कर दिया। राजनीति सिर्फ इस बात की शुरू हो गयी कि इन संसाधनों की लूट में कौन शामिल है। आम आदमी की भागीदारी समाप्त हो गयी। यह बात आज बिल्कुल साफ है कि प्रतिनिधिमूलक प्रजातांत्रिक प्रणाली एक धोखा साबित हुई।
संविधान को जनता के हक में लागू करने के लिये जिस केन्द्रीयकृत व्यवस्था का सहारा लिया गया उसमें आम जनता की भागीदारी को बिल्कुल हाशिये पर ला दिया। प्रतिनिधि मूलक प्रजातांत्रिक प्रणाली ने एक नये प्रकार की संवैधानिक निरंकुशता को आगे बढ़ाया। आम आदमी की भूमिका धीरे-धीरे चुनाव में वोट डाल कर एक सरकार चुनने से ज्यादा कुछ भी नही रहीं। काले धन और बाहुबल को सरकार बनने, बदलने और चुनाव जीतने का हर राजनीतिक दल ने औजार बना लिया है। जल, जंगल, जमीन, कृषि, उद्योग पर आम जनता के हक समाप्त होते जा रहे हैं।
केन्द्रीयकृत शासन व्यवस्था ने नौकरशाही को मजबूत किया है। नौकरशाही शासन पर हावी हो गयी जिसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया और आम आदमी को हासिये पर ला दिया।
आज स्थिति यह है कि सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार भी 75 प्रतिशत लोग 20/- रूपये से भी कम कमाते हैं। मानव संसाधन मंत्रालय की जनवरी 1997 की एक रिपोर्ट के अनुसार 6 और 14 वर्ष की आयु के बीच के 6 करोड़ 30 लाख बच्चे स्कूल नही जा पा रहे थे। 13 करोड़ 50 लाख लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य की सुविधायें भी उपलब्ध नहीं थी। 22 करोड़ 60 लाख लोगों को पीने लायक पानी की सुविधायें भी उपलब्ध नही थी, 64 करोड़ लोगों को बेसिक सेनिटेशन यानि शौच आदि की सुविधायें आदि भी उपलब्ध नही थी।
10 जलाई 2008 के ‘‘हिन्दुस्तान टाइम्स’’ (अंग्रेजी पत्रिका) में एन सी सक्सेना जो योजना आयोग के पूर्व सचिव रहे हैं, ने एक लेख में कहा कि इस देश के 70 करोड़ लोग आज भी सेनिटेशन की सुविधाओं से वंचित हैं। एक हजार बच्चे 5 साल की आयु के पहुँचने के पूर्व ही रोजाना इस देश में सिर्फ डायरिया की वजह से मर जाते हैं और भी बहुत से आंकड़े इस प्रकार के रोजाना बहुत से लेखों में उपलब्ध होते हैं।
समाजवाद और समता मूलक मानव विकास सिर्फ उस लोकतंत्र या जनतंत्र में सम्भव हैं जहां जनता की भागीदारी हो। प्रतिनिधि मूलक प्रजातंत्र में यह असम्भव है। भारत के संविधान की उद्देशिका के अनुसार ‘‘हम भारत के लोग’’ भारत को एक समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये संकल्प लेकर भाग 4 में निहित राज्य की नीति के निदेशक तत्व के अनुसार सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय के लिये प्रतिबद्ध हैं। यही प्रजातांत्रिक समाजवाद है। प्रजातंत्र, जनतंत्र, लोकतन्त्र, तीनों के अर्थ एक है। ध्वनि में कुछ भिन्नता है। प्रजा पुराना शब्द है। ‘जनतंत्र’ या ‘लोकतंत्र’ की ध्वनि ऐसी है कि मानो जन या लोक खुद राज्य संचालन तथा प्रशासन में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। जिस प्रतिनिधि मूलक जनतांत्रिक प्रणाली व्यवस्था में देश की सरकारें चल रही है उसमें जन या लोक की राज्य संचालन तथा प्रशासन में कोई सक्रिय भूमिका संभव नही हैं।
जाने अनजाने जन आकांक्षाओं के काफी नजदीक संविधान के 72 वें और 74 वें संशोधन के जरिये एक नये सामाजिक ढांचे की परिकल्पना की गयी। संविधान में अध्याय 9 और ९(अ) जोड़कर हुए एक विकेन्द्रित शासन-प्रशासन प्रणाली का बीज बोया गया परन्तु जिन सत्ता सरकारों को इन्हें लागू करना था, वे किसी भी कीमत पर अपनी मुट्ठी में समाई हुई ताकत को जनता के हाथों में सौंपने को तैयार नही हैं।
अध्याय 9 व 9(अ) पंचायतों का पुनर्भाषित कर इन्हें स्थानीय स्तर पर शासन की एक इकाई के रूप में गठित करने की परिकल्पना करती है और नगर निकायों को इसी प्रकार नगर विकास के लिये स्थानीय स्तर पर इसी प्रकार की इकाई के रूप में प्रस्तुत करती है।
इस नव निर्मित स्वायत्त शासन को संस्थाओं की ऐसी शक्तियों और अधिकार प्रदान किये गये हैं इसके अन्तर्गत उन्हें स्वायत्त शासन को संस्थाओं के रूप में कार्य करने के लिये आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से सम्बन्धित ऐसे कार्यों को जो उन्हें सौंपा जाना है, जिनके अन्तर्गत वो कार्य भी है, जो ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है। इन्हें कार्यान्वित करने का कार्य भी इन संस्थाओं को सौपा गया है। ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध करने का कार्य भी इन संस्थाओं को सौपा गया है। ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषय बहुत व्यापक है। ये दोनों सूचियां इस दस्तावेज के साथ संलग्न है। कृपया इनको गौर से देखें। ये प्राविधान पंचायतों के बारे में संविधान की धारा 243 छ में हैं। नगर पालिकाओं के लिये धारा 243 ब में ये कार्य दिये गये हैं। ये धारायें भी इस दस्तावेज में पृष्ठ 5 पर अंकित हैं। कृपया इन्हें भी ग्यारहवीं व बारहवीं सूचियों के संदर्भ में गौर से देखें।
अगर इन विषय सूचियों को गौर से देखा जाये तो लगेगा कि अगर पंचायत स्तर पर जनता को सक्रिय किया जाये तो वह बुनियादी जनतंत्र की इस इकाई को विकास व समतामूलक राजनीति का केंद्र बना सकती है। पंचायतें न सिर्फ सड़क, दीवार, सीवर, पानी, स्कूल, कुटीर उद्योग के लिये जिम्मेदार होगी वरन यह जनवितरण प्रणाली से लेकर पंचायत स्तर पर सारी शिक्षा प्रणाली, गरीबी उन्मूलन, जन वितरण प्रणाली, सांस्कृति किया कलाप, तकनीकी प्रशिक्षण आदि सारी योजनाओं को बनाने व उसे लागू करने के लिये जिम्मेदार होगी। जनभागीदारिता व जवाबदेही पर आधारित राजनीति के इस प्रयोग को अगर देश की जमीन पर सफलतापूर्वक उतार लिया गया तो एक ऐसे विकास का द्वारा खुल सकता है जो लूट खसोट, भ्रष्टाचार व मुनाफे पर आधारित नही रहेगा और रोजगार के अवसर मुहैया कराने से लेकर विकास के लाभ को जनता के पास तक पहुंचाने का काम करेगा। हमारे सामने दो ही विकल्प हैं, एक है- ग्लोबलाईजेशन ‘भूमण्डलीकरण’ की दानवी शक्तियों के आगे घुटने टेक दें और उसका चारा बन जायें और दूसरा है- आम जनता को निर्णय लेने से निर्माण तक की हर प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाकर जनतंत्र की बुनियादी इकाई से विकास का अभियान शुरू करना। आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी हम सभ्य समाज की न्यूनतम जरूरतों से अभी वंचित है और इस पूरा करने का संकल्प व शक्ति शासक पार्टियों में नही हैं।
संविधान की धारायें 243 छ व 243 ब
243छ : पंचायतों की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व- संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान मण्डल, विधि द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियां व प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप् में कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हो और ऐसी विधि से पंचायतों को उपयुक्त स्तर पर, ऐसी शर्तों के अधीन रखते हुए, जो उसमें निर्दिष्ट की जायें, निम्नलिखित के सम्बन्ध में शक्तियां और उत्तरदायित्व न्यायगत करने के लिये उपबन्ध किये जा सकेंगे, अर्थात-
क. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनायें तैयार करना।
ख. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय ऐसी स्कीमों को, जो उन्हें सौंपी जाये, जिनके अन्तर्गत वो स्कीमे भी है, जो ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में है, कार्यान्वित करना।
243ब : नगरपालिकाओं, आदि की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व-
इस संविधान के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान मण्डल्, विधि द्वारा :
१. (क.) नगर पालिकाओं को ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हों और ऐसी विधि से नगर पालिकाओं को उपयुक्त स्तर पर ऐसी शर्तों के अधीन रखते हुए जो उसमें निर्दिष्ट की जाये, निम्नलिखित के सम्बन्ध मे शक्तियां और उत्तरदायित्व न्यागत करने के लिये उपबन्ध किये जा सकेंगे, अर्थात-
1. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिये योजनायें तैयार करना।
2. ऐसे कृत्यों का पालन करना और सामाजिक न्याय की ऐसी स्कीमों को जो उन्हें सौंपी जाये, जिनके अन्तर्गत व स्कीमें भी हैं जो बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में हैं, कार्यान्वित करना।
ख. समितियों को ऐसी शक्तियां व प्राधिकार प्रदान कर सकेगा जो उन्हें अपने को प्रदत्त उत्तरदायित्वों को, जिनके अन्तर्गत वे उत्तरदायित्व भी है जो बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों के सम्बन्ध में हैं, कार्यान्वित करने में समर्थ बनाने के लिये आवश्यक हो।
ग्यारहवीं अनुसूची : अनुच्छेद 243छ
1. कृषि जिसके अन्तर्गत कृषि विस्तार है।
2. भूमि विकास, भूमि सुधार का कार्यान्वयन, चकबन्दी और संरक्षण।
3. लघु सिंचाई, जल प्रबन्ध और जल विभाजक क्षेत्र का विकास।
4. पशुपालन, डेरी उद्योग और कुक्कुट पालन।
5. मत्स्य पालन।
6. सामाजिक वानिका और फार्म वानिका।
7. लघु वन उपज
8. लघु उद्योग, जिनके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी है।
९. खादी ग्रामोद्योग और कुटीर उद्योग।
10. ग्रामीण आवासन
11. पेय जल
12. ईंधन और जल।
13. सड़कें, पुलिया, पुल, फेरी, जलमार्ग और अन्य संचार साधन।
14. ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण है।
15. अपारम्परिक ऊर्जा स्त्रोत।
16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
17. शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी हैं।
18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यवसायिक शिक्षा।
19. प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा।
20. पुस्तकालय।
21. सांस्कृतिक क्रिया कलाप।
22. बाजार और मैल
23. स्वास्थ्य और स्वच्छता जिनके अन्तर्गत अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय भी है।
24. परिवार कल्याण।
25. महिला और बाल विकास।
26. समाज कल्याण, जिसके अन्तर्गत विकलांगों और मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों का कल्याण भी है।
27. दुर्बल वर्गों का और विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण।
28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
29. सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण।
बारहवीं अनुसूची : अनुच्छेद 243छ
1. नगरीय योजना, जिसके अन्तर्गत नगर योजना भी हैं।
2. भूमि उपयोग का विनिमयन और भवनों का निर्माण।
3. आर्थिक और सामाजिक विकास योजना।
4. सड़के और पुल।
5. घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिये जल प्रदाय।
6. लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई और कूड़ा-करकट प्रबन्धन।
7. अग्नि शमन सेवायें
8. नगरीय वानिकी, पर्यावरण का संरक्षण और परिस्थितिकीय आयामों की अभिवृद्धि।
9. समाज के दुर्बल वर्गों के, जिनके अन्तर्गत विकलांगों और मानसिक रूप से मंद व्यक्ति भी हैं, हितों की रक्षा।
10. गंदी बस्ती सुधार और प्रोन्नयन।
11. नगरीय निर्धनता उन्मूलन।
12. नगरीय सुख सुविधाओं और सुविधाओं जैसे पार्क, उद्यान, खेल के मैदानों की व्यवस्था।
13. सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौन्दर्यपरक आयामों की अभिवृद्धि।
14. शव गाड़ना और कब्रिस्तान, शव दाह और शमशान और विद्युत शवदाह गृह
15. काजा हाउस, पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण।
16. जन्म मरण सांख्यिकी, जिसके अन्तर्गत जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण भी है।
17. सार्वजनिक सुख सुविधायें, जिनके अन्तर्गत सड़कों पर प्रकाश, पार्किग स्थल, बस स्टाप और जन सुविधायें भी हैं।
18. वधशालाओं और चर्मशोधन शालाओं का विनियमन।
पंचायतों और नगर निकायों के स्तर पर एक निरन्तर जन आंदोलन केन्द्रीयकरण के खिलाफ विकेंद्रीकरण विकास के लिये करना होगा। इन नव निर्मित स्वायत्त शासन की संस्थाओं को ऐसी शक्तियां प्रदान करने के लिये मांग करनी होगी ताकि जन आकांक्षाओं की पूर्ति का इन संस्थाओं को वाहक बनाया जाये। अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्यात्मक राजनीति के विकल्प के रूप में विकेंद्रीकृत एवं पारदर्शी नौकरशाही से मुक्त जनभागीदारी युक्त राजनीति के लिये मुहिम चलानी होगी। महिलायें देश और समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकती हैं। विकास की राजनीति की प्राथमिताओं में सबसे पहले हर गांव को पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और बिजली जैसी प्राथमिकताओं को वास्तविक अर्थ में मुहैया कराना होगा। स्थानीय संसाधनों की संभावनाओं पर विकास अर्जित करना होगा। यह सब पंचायत राज संस्थाओं के द्वारा लोगों की भागीदारी द्वारा ही सम्भव है।
डॉ. रवि किरण जैन