वाराणसी धमाकों के बाद आजमगढ़ एक बार फिर सुर्खियों में है। पुलिसिया जांच एजेंसियों का दावा है कि इस ब्लास्ट का मास्टरमाइंड डॉ शाहनवाज आजमगढ़ के संजरपुर का रहने वाला है। लेकिन आजमगढ़ को आतंकवाद से जोड़ने की यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद पहली बार आतंकी घटनाओं के तार आजमगढ़ के संजरपुर गांव से जोड़े गए थे। गौरतलब है कि बाटला हाउस हत्याकांड में मारे गए साजिद और आतिफ आजमगढ़ के संजरपुर के रहने वाले थे।
अब एक बार फिर इन धमाकों के धुएँ से संजरपुर का नाम निकल कर सामने आ रहा है। घटना के ठीक बाद जांच एजेंसियों ने जिस तेजी के साथ धमाकों के मास्टरमाइंड को खोज निकाला वह अब पुरानी बात हो गई है। पिछली तमाम ऐसी घटनाओं से यह साबित हो चुका है कि जांच एजेंसियों के शक की सुई हमेशा आजमगढ़ और संजरपुर पर ही आकर टिकती है। देश में किसी भी आतंकी घटना का तार कहीं न कहीं से आजमगढ़ और संजरपुर से जरूर जोड़ा जाता है। यह पड़ताल जरूरी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है।
गौरतलब है कि करीब दो दशकों पहले तक आतंकवाद की घटनाएं मुख्यतया कश्मीर तक सीमित थीं। उस दौर में किसी भी आतंकवादी घटना के पीछे पाकिस्तान स्थित चरमपंथी संगठनो का हाथ बताया जाता था। पाकिस्तान का खुफिया संगठन आईएसआई और चरमपंथी संगठन लश्कर.ए. तैय्यबा का नाम इसमें सबसे ऊपर आते हैं। यह सरकार की उस अघोषित नीति के अनुरूप ही था जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादियों के ट्रेनिंग सेंटर हैं। पाकिस्तान सरकार और उसकी एजेंसियां इन सेंटरों को धन और ट्रेनिंग मुहैया कराती हैं ताकि ये भारत में जाकर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दे सकें। यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि इस तरह के आरोपों की सत्यता की जांच हो पाना नामुमकिन होता है । क्योंकि किसी संप्रभु देश के अंदर कोई अन्य देश अपनी जांच एजेंसी नहीं भेज सकता। ऐसे मे आरोप लगाने वाले की कोई जवाबदेही नहीं बनती है कि वह अपने आरोपों को पुष्ट करे। आरोप लगाने वाली जांच एजेंसियों के लिए यह सहूलियत की बात होती है कि बिना किसी खास मेहनत वे सामने वाले पर आरोप मढ़ देतीं हैं और उसको सिद्ध करने के लिए कुछ करना भी नहीं पड़ता।
लेकिन कश्मीर की घटनाओं के बाद जब देश के बड़े-बड़े शहरों में आतंकवादी अपनी घटनाओं को अंजाम देने लगे तो स्थानीय जांच एजेंसियों के सामने मुश्किल खड़ी हो गई। सरकार और मीडिया को इसका जवाब देने में उन्हें दिक्कत आने लगी क्योंकि हर वारदात के बाद यह सवाल खड़ा हो जाता था कि आखिर इन घटनाओं के पीछे कौन है और हमारी सुरक्षा एजेंसिया इसे रोक पाने में नाकाम क्यों साबित हो रही हैं। ऐसे में जांच एजेंसियों के लिए जरूरी हो गया कि अपनी जांच को सही साबित करने के लिए वे नए तर्क खोजें।
यह नया तर्क सामने आया हैदराबाद बम धमाकों के बाद जब जांच एजेंसियों ने दावा किया कि इस घटना में देश के ही आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन का हाथ है। जांच एजेंसियों ने ही यह बताया कि इंडियन मुजाहिदीन को स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया यानी सिमी ने बनाया है और इसे लश्कर.ए.तैय्यबा का समर्थन हासिल है। इसके पहले किसी देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रतिबंधित किया जा चुका था। सुरक्षा एजेंसियों का दावा था कि इंडियन मुजाहिदीन भारतीय आतंकवादी संगठन है लेकिन इसके नाम के अलावा जांच एजेंसियां आज तक इसके अस्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं दे पाई हैं।
गौरतलब है इसके बाद लगभग हर बड़ी आतंकी घटना की जिम्मेदारी या तो इंडियन मुजाहिदीन पर डाली गई है या फिर इंडियन मुजाहिदीन ने इसकी जिम्मेदारी ली है। पहले जांच एजेंसियां घटना की प्रकृति को देखकर वारदात में शामिल संगठनो का नाम बताती थी लेकिन पिछले कुछ दिनो में यह ट्रेंड बदला है। हाल की सभी घटनाओं मे देखा गया है कि घटना के बाद इंडियन मुजाहिदीन मीडिया संस्थानो को मेल भेजकर जिम्मेदारी लेता है। इस एक बदलाव ने जांच एजेंसियों की मुसीबत बढ़ा दी है। जो जांच एजेंसियां पहले घटना में शामिल संगठनो का नाम बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेतीं थी इस नए ट्रेंड के बाद उसकी जरूरत ही खत्म हो गई है। अब जांच एजेंसियों को अपनी उपयोगिता साबित करने के लिए कुछ और करना था सो अब एजेंसियों ने घटनाओं के मास्टरमाइंड का नाम बताना शुरू किया। अगर आपको ध्यान हो तो पिछली सभी आतंकी घटनाओं के बाद जांच एजेंसियों ने घटना के मास्टरमाइंड का नाम बताया है।
वाराणसी धमाकों के एक दिन बाद ही पुलिस ने इन धमाकों के मास्टरमाइंड के पता लगने का दावा किया। बताया गया कि इस धमाके का मास्टरमाइंड डॉ शाहनवाज नाम का शख्स है जो आजमगढ़ के संजरपुर का रहने वाला है । गृह मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से आई खबर के मुताबिक इस धमाके को 6 दिसंबर को अंजाम दिया जाना था लेकिन सुरक्षा के कारण 6 दिसंबर को ब्लास्ट को अंजाम नहीं दे पाए। गृह मंत्रालय का आरोप है कि आतंकियों की धर-पकड़ के लिए मारे जाने थे लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य में छापों की इजाजत नहीं दी। आश्चर्य है कि जो सुरक्षा व्यवस्था 6 दिसंबर तक मौजूद थी वो अगले ही दिन इतनी कमजोर कैसे हो गई। जाहिर है ऐसे धमाके एक दिन की तैयारी से नहीं होते तो इसका मतलब है कि इसकी तैयारी काफी पहले से चल रही होगी। ऐसे में गृह मंत्रालय का ये दावा बचकाना लगता है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि अगर जांच एजेंसियों को पहले से पता था कि ऐसा कुछ होने वाला है तो वे इसे रोकने की तैयारी क्यों नहीं कर पाए। विस्फोट के अगले दिन केंद्र और राज्य की खुफिया एजेंसियां एक दूसरे पर जानकारी न देने का आरोप लगातीं नजर आईं। इससे साबित होता है राज्य सरकार और केंद्र सरकार एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा लेना चाहती हैं। लेकिन जांच एजेंसियों के सारे दावे भी संदेहास्पद और मीडिया को संतुष्ट रखने तथा जनता के बीच भ्रम फैलाये रखने वाले प्रतीत होते हैं। इस बारे में एक उदाहरण देना ही काफी होगा। 2007 में यूपी पुलिस और एसटीएफ ने अजीजुर्रहमान नाम के एक शख्स को हूजी का आतंकवादी बताकर कोलकाता से गिरफ्तार करना बताया था। तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह ने बकायदा एक प्रेंस कांफ्रेंस बुलाकर यह बताया अजीजुर्हमान संकट मोचन और श्रमजीवी एक्सप्रेस में बम धमाकों का मास्टमाईंड है। उसकी कथित निशानदेही पर लखनऊ के पास मोहनलाल गंज से पुलिस ने हैंडग्रेनेड और डेटोनेटर जैसे भारी हथियार बरामद किए थे। पुलिस के मुताबिक यह विस्फोटक अजीजुर्हमान और उसके साथियों ने 23 जून 2007 की रात छिपाया था। जबकि हकीकत यह थी कि अजीजुर्हमान 22 जून को न सिर्फ चोरी के आरोप में पश्चिम बंगाल की सीआईडी पुलिस कस्टडी में था बल्कि 23 जून को वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया जा रहा था। जब यह बात खुलकर सामने आ गई तो एसटीएफ और पुलिस के बड़े अधिकारी मुंह छिपाते नजर आए। इस एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि जांच एजेंसियां किस तरह से अपना काम करती हैं। पुलिस के काम काज पर बना एक चुटकुला बताना भी मौजूं होगा। कहते हैं कि अमेरिका ने एक बार भारत से एक शेर मंगवाया। लेकिन वह शेर पिंजड़े से निकल गया और शहर में घूमने लगा। शेर को पकड़ने के अमेरिकी पुलिस के सारे प्रयत्न जब फेल हो गए तो उन्हें हार मानकर भारत से पुलिस को बुलवाना पड़ा। अमेरिकी पत्रकारों जब इंस्पेक्टर से पूछा कि वे शेर को कब तक पकड़ेंगे तो उन्होने 24 घंटे के भीतर पकड़ने का दावा किया। अंत में लोगों ने देखा कि भारत से गया वह इंस्पेक्टर एक हाथी को क्रेन से लटकाकर मार रहा है और हाथी बार – बार चिल्ला रहा है कि मैं ही शेर हूँ, मैं ही शेर हूं।
अब सवाल ये उठता है कि आखिर इन धमाकों में आजमगढ़ का नाम ही क्यों आता है। दरअसल आज आतंकवाद का सीधा अर्थ एक खास संप्रदाय से लगाया जाता है। आज एक खास संप्रदाय की छवि आतंकी या उसके समर्थकों की बना दी गई है। इसमें मीडिया ने एक बड़ी भूमिका निभाई है। मीडिया ने हर उस आरोपी को अपराधी बना दिया है, जिसे पुलिस शक के आधार पर पकड़ती है। पुलिसिया बयान को मीडिया ने हमेशा इस तरह प्रस्तुत किया है मानो अदालत ने उस पर अपनी मुहर लगा दी हो। मीडिया की इस मूर्खता ने जांच एजेंसियों और सांप्रदायिक ताकतों को बहुत ज्यादा फायदा पहुंचाया है। जिस पुलिस की हिरासत में दिए बयान को अदालतें कोई महत्व नहीं देती हैं, उन्ही बयानो को मीडिया ने फैसला बनाकर सुनाया है। इस पूरी प्रक्रिया ने लंबे समय एक कौम की खास छवि बना दी है। ऐसे में जबकि किसी खास संप्रदाय का कोई शख्स आतंकवादी घटनाओं के आरोप में पकड़ा जाता है तो लोगों को ऐसा प्रतीत होता है मानो सचमुच कोई आतंकी पकड़ लिया गया है। और सुरक्षा एजेंसियों की बदौलत हम कुछ ज्यादा सुरक्षित हो गए हैं। आतंकी घटनाओं में आजमगढ का नाम आना भी इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। मुंबई के बड़े गैंगस्टरों दाउद इब्राहिम और अबू सलेम का नाम काफी पहले से आजमगढ़ से जोड़ा जाता रहा है। आजमगढ़ की एक बड़ी आबादी खाड़ी देशों मे रोजगार के लिए पलायन करती है। एक ऐसे समय में जब पूरा विश्व एक खास संप्रदाय को शक की दृष्टी से देख रहा है किसी खास जगह को लक्ष्य बनाकर उसे आतंक की नर्सरी का नाम देना कोई कठिन कार्य नहीं है।
ऐसा नहीं है कि आजमगढ़ का कोई पहले से आतंकी इतिहास रहा है। इसके उलट आजमगढ़ बहुत पहले से विचारकों और बुद्धिजीवियों की धरती रहा है। अल्लामा शिब्ली नोमानी राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरियौध, जामी चिरैयाकोटी, कैफ़ी आजमी और शबाना आजमी जैसी शख्सियतों को जन्म देने वाले आजमगढ़ की धरती वैचारिक रूप से काफी उर्वर रही है। लेकिन सांप्रदायिक ताकतों सुरक्षा एजेंसियों और मीडिया ने मिलकर एक झटके में इसे आतंकगढ़ बना डाला है। आजमगढ़ में शिब्ली नोमानी ने शिक्षा का केंद्र बनाया, जो अब भी यहां के नवयुवकों के लिए बेहतर शिक्षा प्राप्त करने का केंद्र रहा है। इसके अलावा लोगो में शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा देने के लिए उन्होने एक लाइब्रेरी बनवाई जो पूरे इलाके में अपना एक अलग स्थान रखती है। राहुल सांकृत्यायन का नाम विश्व प्रसिद्ध है। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा लिखने वाले सांकृत्यायन ने करीब ढाई सौ से अधिक किताबें लिखीं। कैफी आजमी जैसे शायर और विचारक भी आजमगढ़ की धरती पर ही पैदा हुए। जाहिर है आजमगढ़ के एक गांव को आतंक की नर्सरी के रूप में प्रचारित करना कहीं से भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। लेकिन सुरक्षा एजेंसियों के लिए यह एक मुनासिब चीज है। लोगों के दिमाग में एक खास संप्रदाय, एक खास जगह की आतंकवादी छवि बनाने से जांच एजेंसियों के लिए यह सहूलियत हो गई है कि वे अपनी जांच को लाकर उसी जगह पर टिका दें। इससे वारदातों में कमी आए या न आए कम से कम कोई ये तो नहीं कहता कि पुलिस कुछ नहीं कर रही है। अब तक पुलिस या जांच एजेंसियां किसी भी कोने से संजरपुर के किसी भी युवक पर आरोप सिद्ध नहीं कर पाई है। बाटला हाउस में मारे गए दोनो लड़कों पर जो आरोप लगे हैं उनकी सफाई देने के लिए वे अब इस दुनिया में नहीं है। जाहिर है कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ तो है।
-अवनीश कुमार राय