भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को न्यूनतम मजदूरी कानून का सम्मान करना चाहिए और महानरेगा श्रमिकों से कम मजदूरी देकर जबरन काम करवाना रोकना चाहिए। भारत ने एक उल्लेखनीय कानून, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी कानून-2005 पास करके ग्रामीण भारत के परिवारों को एक न्यूनतम स्तर की आय प्रदान की है और साथ ही विभिन्न प्रकार के कानूनी हकों को देकर सशक्त किया है। मजदूरी पर 100 दिन काम का अधिकार मिला है। यह कल्पना से भी बाहर है कि सरकार अपने ही काम में न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दे। एक असंवैधानिक व जानबूझ कर लिया गया निर्दयतापूर्ण निर्णय के तहत भारत सरकार ने महानरेगा श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से अलग करके न्यूनतम मजदूरी कानून की महत्ता को नष्ट किया है और जिस चीज को सर्वोच्च न्यायालय ने बेगार या जबरन मजदूरी कहा उसे कानूनी जामा पहनाने का प्रयास किया है। जनवरी 2009 में एक नोटिफिकेशन से भारत ने इस कानून के तहत मजदूरी को 100 रू. पर रोक दिया। धीरे-धीरे कई राज्यों में महानरेगा में मजदूरी कानूनी रूप से मान्य मजदूरी से भी कम होती गई। पिछले साल में खाद्यान की बेतहाशा मूल्य वृद्धि से यह मजदूरी और ज्यादा कम हो गई। बहुत सारी राज्य सरकारों ने, केन्द्र ने जो दिया है उससे ज्यादा मजदूरी देने से इन्कार कर दिया और अब कई राज्य जैसे-आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड व राजस्थान नरेगा श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी का भुगतान कर रहे है। अभी राजस्थान में एक अचम्भित करने वाला मामला उजागर हुआ है जिसमें टोंक जिले में 99 श्रमिकों को 11 दिन काम करने पर 1 रू. रोज के हिसाब से मजदूरी का भुगतान हुआ है। न्यूनतम मजदूरी कानून (१९४८) राज्य सरकारों व केन्द्र सरकारों को यह अधिकार देता है कि वे अधिसूचित रोजगारों में न्यूनतम मजदूरी तय करे। कानून यह कहता है कि 5 साल के अन्दर-अन्दर न्यूनतम मजदूरी में बदलाव होना चाहिए। 15वें राष्ट्रीय श्रमिक सम्मेलन (१९५७) में न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए जरूरत आधारित फार्मूला ईजाद किया गया जो न्यूनतम भोजन आवश्यकता, कपड़े की आवश्यकता जीवन यापन की न्यूनतम जरूरते व ईंधन के खर्चें को ध्यान में रखकर दिया गया। इन सिफारिशों को सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन बनाम केरल सरकार (1961) के मामले में बाध्यकारी बनाया और कामगार बनाम मेनेजमेन्ट ऑफ़ रेप्टोकोस बेट 2005 कम्पनी लिमिटेड (१९९२) के मामले में इन जरूरतों को विस्तार करके सर्वोच्च न्यायालय ने न्यूनतम मजदूरी के आधार को व्यापक व बाध्यकारी बनाया। इससे भी आगे बढ़कर सर्वोच्च न्यायालय ने इन सब आदेशों में यह साफ कहा कि न्यूनतम मजदूरी न देगा बेगार व जबरन श्रम की श्रेणी में आता हैं। जो संविधान की धारा 23 में प्रतिबन्धित है। इससे भी आगे सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जबरन श्रम कई तरीकों से माना जा सकता है जिसमें गरीबी व जरूरतों का पूरा न होना शामिल है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 1 जनवरी, 2009 के सरकारी नोटिफिकेशन को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया है परन्तु भारत सरकार इसे पूरे देश में न मानने पर अड़ी हुई है। आज जब उत्पादकता दर 8 से 10 प्रतिशत है और गरीब व अमीर के बीच अन्तर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में एक मात्र महानरेगा ही ऐसा कानून है जो समाज में सबसे नीचे बैठे लोगों को मूलभूत अधिकार देता है। न्यूनतम मजदूरी को न मानना पूरी तरह असंवैधानिक है। यह भारत के मानवीय अधिकारों व मूल्यों का खुला उल्लंघन है। भारत सरकार को तुरन्त इस असंवैधानिक नोटिफिकेशन को वापिस लेना चाहिए और साथ ही सभी राज्य सरकारों को इस बात के लिये आश्वस्त करना चाहिए कि भारत में हर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान होगा। इस खुले वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने वाले प्रमुख लोग निम्न हैं-
1. न्यायाधीश एस.एन. वेंकटचलैया (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश),
2. न्यायाधीश जे.एस.वर्मा (भारत के पूर्व मुख्यन्यायाधीश),
3. न्यायाधीश वी.आर. कृष्णा अय्यर (भारत के पूर्व न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय),
4. जस्टिस पी.बी. सावन्त (सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश),
5. जस्टिस के रामास्वामी (सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश),
6. जस्टिस सन्तोष हेगड़े (लोकायुक्त कर्नाटक व पूर्व न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय),
7. जस्टिस ए पी शाह (पूर्व मुख्य न्यायाधीश दिल्ली उच्च न्यायालय),
8. जस्टिस वी एस दवे (पूर्व जज, राज, उच्च न्यायालय),
9. डॉ. उपेन्द्र बक्शी (एमरीटस प्रोफेसर ऑफ़ लाव, दिल्ली विद्यालय),
10. डॉ. मोहन गोयल (पूर्व कानून के प्रो. लाव स्कूल ऑफ़ इण्डिया, बेंगलोर),
11. फली एस नरीमन (वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय),
12. कमिनी जायसवाल (वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय),
13. डॉ. राजीव धवन (वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय),
14. प्रशान्त भूषण (वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय),
15. वृन्दा ग्रोवर (अधिवक्ता दिल्ली उच्च न्यायालय)।