मैं पहले भी डॉ बार तुर्की जा चुका हूँ। इस बार मैं तुर्की के अन्ताल्या शहर मे ‘‘राईटर्स एंड जर्नलिस्ट्स फाउंडेशन’’ द्वारा आयोजित संगोष्ठी में भाग लेने वहाँ गया था। तुर्की के अलावा, करीब 60 अन्य देशों से आए 600 प्रतिनिधियों ने 26-27 नवंबर 2010 को आयोजित इस संगोष्ठी में हिस्सा लिया। संगोष्ठी का विषय था, ‘‘इस्लाम और परिवार’’ परंतु इस संगोष्ठी के संबंध में मैं बाद में कुछ कहूँगा।
अपनी पूर्व तुर्की यात्राओं में, समयाभाव के चलते, इस्ताबूल से बाहर नहीं जा सका था। मेरी पहली इस्तांबूल यात्रा सितंबर 2002 में हुई थी। तब मैं ‘‘वैश्वीकरण की नैतिकता’’ विषय पर आयोजित सम्मेलन में हिस्सा लेने गया था। दूसरी बार मैं हैनरिच बॉल फाउंडेशन द्वारा ‘‘ इस्लाम और राज्य’’ विषय पर आयोजित सम्मेलन में हिस्सेदारी के लिए इस्तांबूल गया। इस सम्मेलन में बड़ी संख्या में तुर्की महिलाओं ने भाग लिया था। मजे की बात यह है मेरे द्वारा हिजाब का मुद्दा उठाने के बाद, लगभग सभी महिला वक्ताओं ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए। उनमें से कुछ को छोड़कर सभी ने हिजाब का विरोध किया। यही स्थिति आज भी है।
तुर्की के इस्तांबूल, अन्ताल्या व अन्य शहरों में अधिकांश महिलाएं पश्चिमी परिधान पहनती हैं परन्तु कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में हिजाब ज्यादा दिखलाई पड़ता है। अलबत्ता, बुर्के से सिर से पैर तक ढंकी हुई और अपना चेहरा छुपाए कोई महिला मुझे नहीं दिखी। अरब देशों व भारत के विपरीत, तुर्की महिलाएं केवल काले रंग के कपड़ों से स्वयं को नहीं ढंकती। वे रंग-बिरंगे कोट व स्कार्फ पहनती है और सुंदर दिखती हैं।
तुर्की के लोग श्वेत हैं और वहां का जीवन स्तर जल्दी ही यूरोप के समकक्ष हो जावेगा। तुर्की पहँच ऐसा लगता है मानो हम किसी यूरोपीय देश में पहुंच गए हों। वहां की जो चीज सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह है साफ-सफाई का उच्च स्तर। क्वोनिया जैसे छोटे से शहर और अन्ताल्या के आसपास के ग्रामीण क्षेत्र में भी मैंने किसी को सार्वजनिक स्थान पर कचरा फेंकते नहीं देखा। इसके विपरीत, हमारे देश में साफ-सफाई का नामोनिशान नहीं है। मुंबई शहर में भी जगह-जगह कचरे के ढेर देखे जा सकते हैं। यह सचमुच शर्मनाक है कि तुर्की से आर्थिक व तकनीकी के क्षेत्र में बहुत आगे होने के बावजूद हमारे देश का साफ-सफाई का स्तर इतना निम्न है।
यद्यपि तुर्की की सौ प्रतिशत आबादी मुस्लिम है तथापि वहां धार्मिक अतिवाद ना के बराबर है। इसका एक कारण तो मुस्तफा कमाल अतातुर्क की विचार धारा का प्रभाव है परंतु इसके पीछे आधुनिक कारक भी हैं। फैतुल्लाह गुलैन, सबसे महान आधुनिक इस्लामिक आंदोलन के प्रणेता हैं। एक अमरीकी सर्वेक्षण के अनुसार वे दुनिया के दस सबसे प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक हैं। उन्होंने इस्लामिक दुनिया में यह संदेश फैलाया कि इस्लाम और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं है और मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर विज्ञान के क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ना चाहिए। उनकी प्रेरणा से हजारों आधुनिक शिक्षा केन्द्र स्थापित हुए हैं।
अन्ताल्या में मेरी मुलाकात जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली के पश्चिम एशिया अध्ययन केन्द्र के प्रोफेसर अनवर जमाल से हुई। वे इन दिनों तुर्की में रहकर फैतुल्लाह गुलैन के आंदोलन का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि भारत में ऐसा कोई आंदोलन नहीं उभर सका। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि तुर्की में समाज विज्ञानों के अध्ययन व शोंध का स्तर बहुत ऊँचा है परंतु वहां केवल तुर्की भाषा का इस्तेमाल होता है, अंग्रेजी का नहीं। इस कारण, दुनिया उनकी उपलब्धियों से अनभिज्ञ है।
प्रो. अनवर ने मुझे यह भी बताया कि तुर्की में धार्मिकता की वापसी हो रही है परंतु अब तक, धार्मिकता ने अतिवादी स्वरूप् अख्तियार नहीं किया है। तुर्की में धार्मिकता की वापसी आश्चर्यजनक नहीं है। किसी भी आंदोलन, विचार या विचारधारा को कुचलना कतई व कभी संभव नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं कि कमाल अतातुर्क का आंदोलन अत्यंत प्रभावी व सफल था। कमाल अतातुर्क ने सन 1920 के दशक में तुर्की को आधुनिक बनाने का पुरजोर प्रयास किया था। परंतु यह आधुनिकता समाज पर जबरदस्ती लादी गई थी। सरकार ने धार्मिक गतिविधियों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया, धार्मिक रूढ़ियों को कड़ाई से प्रतिबंधित किया गया और जनता को यूरोपीय परिधान पहनने के लिए मजबूर किया गया। नतीजतन, तुर्की में धर्मनिरपेक्षता व आधुनिकता ने तो जड़ें जमा लीं परंतु धार्मिक कट्टरता को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका। आज के तुर्की में आधुनिकता व धार्मिक कट्टरता का सहअस्तित्व है परंतु दोनों के बीच के संघर्ष ने विस्फोटक स्वरूप नहीं लिया है।
जब यूरोपीय व अमरीकी राष्ट्रों में, जहां धर्मनिरपेक्षता की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं, धार्मिकता की वापसी हो रही है तब हम तुर्की जैसे देशों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं। तुर्की में धार्मिक दकियानूसीपन व कट्टरता को कुचला गया था। यूरोपीय देशों की तरह, आधुनिकता के प्रभाव से धार्मिक कट्टरता कमजोर नहीं हुई थी। इस तथ्य के प्रकाश में यह प्रंशसनीय है कि तुर्की में धार्मिक कट्टरता का पुनरूथान नहीं हो रहा है। ‘‘इस्लाम व परिवार’’ सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिलने पर मैंने ‘‘इंडियालोंग’’ के श्री बिलाल से संपर्क किया। ‘‘इंडियालोंग’’ भारत में कार्यरत एक तुर्की संस्था है जो कई शहरों में स्कूल चलाती है व अंतर्धार्मिकि संवाद के कार्यक्रम भी आयोजित करती है। मैंने श्री बिलाल से अनुरोध किया कि वे मेरी क्वोनिया यात्रा का प्रबंध करवा दें। क्वोनिया में मौलाना जलालुद्दीन रूमी की कब्र है। मैं मौलाना रूमी का जबरदस्त प्रंशसक हूं और मेरी हमेशा से यह इच्छा रही है कि मैं उनकी समाधि दर्शन करूं। ‘‘इंडियालोंग’’ ने कृपापूर्वक न केवल मेरी क्वोनिया यात्रा का प्रबंध करवाया वरन मेरे साथ तुर्की जाने के लिए श्री यासर सुसाकेन को पाबंद भी किया। श्री सुसाकेन मेरे साथ मुबंई से इस्तांबूल, वहां से क्वोनिया व अन्ताल्या गए और फिर मुंबई वापस आए। उनका साथ मेरे लिए बहुत उपयोगी रहा। तुर्क होने के नाते, उनके कारण मुझे भाषा की कोई समस्या नहीं हुई। इसके अलावा तुर्की में उनके व्यापक संपर्क-संबंध भी मेरे बहुत काम आए।
क्वोनिया एक छोटा परंतु बहुत सुंदर शहर है। तुर्की के अन्य हिस्सों की तरह, क्वोनिया भी बहुत साफ-सुथरा है। इस शहर में तेजी से नए भवन व संस्थाएं बन रहीं हैं। यहाँ इस्तांबूल व अन्ताल्या की तुलना में कहीं अधिक महिलाएं हिजाब पहने नजर आई। मुझे यह कहना होगा कि भारत की तरह, तुर्की के लोग भी अत्यंत मेहमाननवाज हैं। कम से कम इस मामले में वे यूरोपीय नहीं बने हैं ! हम लोग इस्तांबूल से हवाईजहाज द्वारा क्वोनिया पहुंचे। एयरपोर्ट पर हमारा स्वागत, यासर के साथी ओजर ओजसेलिक ने किया। उन्होंने हमें मुंह में पानी लाने वाला शानदार तुर्की डिनर करवाया और अगले दिन क्वोनिया के विभिन्न इलाकों में घुमाया ।
हम मौलाना जलालुद्दीन रूमी की कब्र पर पहुंचे। यह मेरे लिए बरसों पुराने सपने के सच होने जैसा था। मैंने रूमी की मस्नवी (फारसी का कई खंडों का महाकाव्य) सन 1950 के दशक के मध्य में पढ़ी थी। तब मैं मेट्रिक में था। यह मस्नवी इतनी असाधारण कृति है कि उसे फारसी में कुरान भी कहा जाता है। आज भी यह विश्व की महानतम साहित्यिक कृतियों में से एक मानी जाती हैं। मौलाना रूमी अत्यंत उदारमना व व्यापक दृष्टिकोण वाले साहित्यकार थे। वे सारी दुनिया से प्रेम करते थे। धार्मिक भेदभाव उन्हें छू तक नहीं गया। उनकी कब्रगाह के मुख्य द्वार पर लिखा है ‘यह प्रेमियों का काबा है’। प्रेम उनके दर्शन का केन्द्रीय तत्व था। अगर उनके दर्शन को एक पंक्ति में व्यक्त किया जाए तो वह होगी कि ‘प्रेम के बिना मानव हृदय, मुटठी भर धूल से ज्यादा कुछ नहीं है।’
रूमी की कब्रगाह की यात्रा ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। मैं कुछ क्षणों तक शांत खड़ा रहकर उनके प्रेम के शान्ति दर्शन के बारे में सोचता रहा और उनकी मस्नवी के हिस्सों को याद करता रहा। उस स्थल की गरिमा को शब्दों में बयान करना मुश्किल है। और जिस ढंग से आगन्तुक उस स्थल की गरिमा बनाए रखते है, वह सचमुच प्रशंसनीय है। वहां न तो खुद्दाम (सेवक) हैं ओर न ही भेंट चढ़ाने की परंपरा। वहां मुझे एक भी दानपेटी नजर नहीं आई। प्रशंसक वहां आते हैं, शान्तिपूर्वक प्रार्थना करते हैं और चले जाते हैं। भवन का अंदर का हिस्सा इतना सुंदर है कि वहां से बाहर निकलने को जी नहीं करता। वहां बाँसुरी सहित विभिन्न वाद्ययंत्र भी प्रदर्शित किए गए हैं जो कि महफिले समा (संगीत की महफिल) में इस्तेमाल किए जाते थे। मौलाना रूमी की मस्नवी की शुरूवात बाँसुरी के उदास स्वरों से होती है। वहां मौलाना के वस्त्र और उनकी अन्य चीजें भी प्रदर्शित की गई है।
मौलाना रूमी की दरगाह की गरिमा व शाँति की तुलना हमारे देश की सूफी दरगाहों के शोर-शराबे व गंदगी से करने से मैं स्वयं को रोक न सका। हमारे देश में सैकड़ों खुद्दाम हर आगंतुक के पीछे लग जाते हैं और तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ते जब तक वह कुछ भेंट नहीं चढ़ देता। कहने की जरूरत नहीं कि यह भेंट सीधे खुद्दामों की जेब में जाती हैं। कई बार तो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से ही खुद्दाम आपके पीछे पड़ जाते हैं। वे बेहद लालची और बेशर्म होते है।
मौलाना रूमी का उर्स हर वर्ष दिसंबर के महीने में मनाया जाता है पर इस मौके पर चादर चढ़ाने की परंपरा नही है। मुझे बताया गया कि हर दो-तीन साल में, जब चादर गंदी हो जाती है तब उसे बदल दिया जाता है। वहां किसी को भी कब्र को छूने या चूमने की इजाजत नही है। यहां तक कि कब्र पर फूल तक नहीं चढ़ाए जाते। काश, ऐसा ही गंभीरता, शांति व गरिमा का वातावरण हमारे देश की सूफी दरगाहों में होता।
और अब अन्ताल्या में आयोजित ‘इस्लाम व परिवार’ सम्मेलन के बारे में कुछ सम्मेलन, समुद्र के किनारे स्थित एक लुभावने होटल में आयोजित था। यद्यपि सम्मेलन में 60 देशों के 600 से अधिक प्रतिभागी उपस्थित थे तथापि पूरी कार्यवाही अत्यंत अनुशासित तरीके से संचालित की गई। सम्मेलन के विषय के रूप में ‘परिवार’ को चुना गया था क्योंकि तुर्की सहित पूरी दुनिया में परिवार की संस्था कमजोर हो रही है। मुझे एक सत्र की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया गया और उस सत्र में मैं ही मुख्य वक्ता था। मैंने ‘कुरआन, इस्लाम व महिलाएं’ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए। परिवार संस्था के कमजोर होते जाने के कारणों को विश्लेषण करते हुए मैंने कहा कि इसके लिए मुख्यत: पितृसत्तात्मक मूल्य जिम्मेदार हैं। जब तक महिलाओं पर पितृसत्तात्मक मूल्य लादे जाते रहेंगे, तब तक परिवार, मजबूत व स्थिर नहीं बन सकेगा।
आज की महिला पढ़ी-लिखी व अपने अधिकारों के प्रति जागृत हैं। अगर उसके साथ गरिमापूर्ण व्यवहार नहीं किया गया तो वह पुरूषों के आगे झुकेगी नहीं। कुरआन इस तथ्य से अच्छी तरह से वाकिफ थी और इसलिए वह महिलाओं को न केवल समान अधिकार देती है वरन पुरूषों से जोर देकर यह कहती है कि ऐसा कोई भी निर्णय लेने से पहले, जिसका प्रभाव उनके परिवार पर पड़ने वाला हो, अपनी पत्नी की सलाह अवश्य लें । हमारे देश में भले ही प्रजातंत्र हो परंतु परिवारों में आज भी प्रजातंत्र नहीं है। वहां तो पुरूषों का बोलबाला है। सारे महत्वपूर्ण निर्णय पति लेते है और महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उन निर्णयों को चुपचाप स्वीकार करें। कुरआन में जोर महिलाओं के अधिकारों पर है जबकि शरीयत कानून में केवल उनके कर्तव्यों पर जोर दिया गया है। कुरआन व शरीयत के इस विरोधाभास को खत्म किया जाना चाहिए।
आज महिलाएं कमातीं है और पारिवारिक आय में योगदान देती है फिर भला क्यों वे पुरूषों के आगे झुकें ? पारिवारिक मसलों में एक-दूसरे की भूमिका का पतियों को सम्मान करना चाहिए। पैगंबर साहब ने पुरूषों से आव्हान किया है कि वे आदर्श पति बनें और अपनी पत्नियों को तलाक का डर दिखाने से बाज आवें। कुरआन कहती है कि तलाक के पहले, पति-पत्नी के बीच मेल-मिलाप कराने के प्रयास अवश्य किये जाने चाहिए। इसके विपरीत, आज तलाक के मामले में पुरूष अंतिम व एकमात्र निर्णायक बन बैठा है। यह कुरआन के विरूद्ध है। कोई भी आधुनिक, पढ़ी-लिखी व अपने अधिकारों के प्रति जागृत महिला, इस स्थिति को स्वीकार नहीं करेगी।
सम्मेलन में प्रस्तुत किए गए सभी शोधपत्रों को एक पुस्तक के रूप में संकलित कर प्रकाशित किया गया हैं। इस पुस्तक का शीर्षक है ‘परिवार’। इस पुस्तक में चार सौ से अधिक पृष्ठ है। इन शोधपत्रों के प्रस्तुतकर्ताओं में शिक्षाविद, विभिन्न धर्मों के धर्मशास्त्री व सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। सम्मेलन में सभी प्रमुख धर्मों- ईसाई, यहूदी व इस्लाम- के धर्म शास्त्रियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन काफी दिलचस्प था। अलबत्ता एक शिकायत मुझे है और वह यह कि शोध पत्रों के प्रस्तुतिकरण में ही सारा समय निकल गया और आपसी चर्चा व बहस के लिए बचा ही नहीं।
डॉ. असगर अली इंजीनियर