अजीत साही
(मौलिक रूप से वरिष्ठ पत्रकार अजीत साही ने यह लेख अंग्रेजी में लिखा है जिसका हिंदी अनुवाद करने की कोशिश की गयी है, त्रुटियों के लिये क्षमा कीजियेगा-सी.एन.एस)
१९ मार्च २०११ को मिस्र की तीन-चौथाई जनता ने जनमत-संग्रह में भाग लिया जिससे कि मिस्र के संविधान में बदलाव लाया जा सके। अरब-दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा जिसने २५ जनवरी से लेकर ११ फरवरी तक ऐतिहासिक जनांदोलन देखा? अनेक युवा 'धर्म-निरपेक्ष' क्रांतिकारी जिन्होंने लाखों लोगों के साथ मिस्र में २९ साल पुरानी होस्नी मुबारक की हुकूमत को ११ फरवरी को सत्ताच्युत करने में भरपूर सहयोग दिया, उनके लिये जनमत-संग्रह में 'हाँ' एक धक्का है। इनमें से अनेक लोग इसलिये बदलाव के लिये संघर्ष कर रहे थे कि मिस्र में एकदम नया संविधान रचित किया जाए, न कि पुराने में ही बदलाव किये जाएँ।
जनमत-संग्रह से तीन दिन पहले, मिस्र की राजधानी काहिरा में मेरे निवास के दौरान बनी मेरी एक मित्र, अमीना खैरात, जो युवा 'ओपेरा' नर्तकी हैं, उन्होंने फोन पर सन्देश भेजा कि 'मिस्र की क्रांति एकदम नए संविधान के लिये थी, इसीलिए पुराने संविधान को पूरा ही हटाना होगा'। अमीना खैरात उस समय मिस्र के सुप्रीम कोर्ट के बाहर दर्जन भर से अधिक मुकदमों के नतीजे का इंतजार कर रही थीं जो जनमत-संग्रह को रोकने के लिये किये गए थे।
मिस्र के सबसे प्रमुख अंग्रेजी अखबार के अनुसार, उनके दो मुख्यधारा के राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले लोग - अरब लीग के महासचिव अमर मौस्सा और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के भूतपूर्व प्रमुख मोहम्मद एल बारादेई - दोनों ने एकदम नए संविधान की मांग का समर्थन किया था। दूसरी तरफ, पिछले ३० साल से अबतक प्रतिबंधित इस्लामिक समूह, 'मुस्लिम भाईचारा', जिसके कट्टरवादी इरादों से पश्चिम के राष्ट्र भी भयभीत रहते हैं, संविधान में संशोधन की मांग का समर्थन कर रहा था।
तो क्या जिस जनमत-संग्रह में तीन-चौथाई मिस्र के नागरिकों ने भाग लिया, उसकी 'हाँ' को धर्म-निरपेक्ष और आधुनिकतावादी लोगों के लिये धक्का ही माना जाए? क्या संशोधित संविधान, धर्म-निरपेक्ष और आधुनिकतावादी लोगों के लिये भारी पड़ेगा? क्या इसका यह मतलब होगा कि व्यवस्था में जो राजनीतिज्ञ हैं - जिनमें से अधिकाँश भ्रष्ट और भूतपूर्व सैन्य अधिकारी हैं - उनके लिये मिस्र की राजनीति और प्रशासन पर पकड़ बनाये रखना मुमकिन रहेगा?
अब हम लोग एक नजर डाल लें कि मिस्र के संविधान में क्या संशोधन प्रस्तावित हैं। कुल मिला कर ११ संशोधन प्रस्तावित हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रपति के कार्यकाल की समय-सीमा ४ साल निर्धारित हो जिसके पश्चात पुनः चुनाव होंगे और राष्ट्रपति को भी दोबारा चुनाव लड़ने दिया जाएगा। राष्ट्रपति के पद पर दो बार से अधिक कोई भी नहीं रह सकेगा - जिसका सीधा तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति का राष्ट्रपति कार्यकाल ८ साल से अधिक हो ही नहीं सकेगा। यह बहुत बड़ा बदलाव है क्योंकि अक्टूबर १९८१ में मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादत की हत्या के बाद पुराने संविधान की आड़ में होस्नी मुबारक ने लगभग ३० साल तक बिना किसी अवरोध के राज्य किया।
हालाँकि जो पात्रताएं राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के दावेदारों के लिये रखी गयीं हैं, वो ऐसी हैं कि आम मिस्र के नागरिक का यह चुनाव लड़ना असंभव सा है। अधिकाँश पात्रताएं ऐसी है कि जो लोग पहले से ही राजनीति में हैं, उनके लिये ही यह चुनाव लड़ना संभव हो सकेगा। उदाहरण के तौर पर एक पात्रता यह है कि राष्ट्रपति पद के दावेदार को संसद के सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो। नए संशोधित संविधान में यह भी प्रावधान है कि कोई भी मिस्र का नागरिक राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ सकती (या सकता) है यदि उसको अनेक शहरों से ३०,००० मिस्र के मतदाता नागरिकों का हस्ताक्षर के साथ समर्थन प्राप्त हों। न्यूनतम उम्र राष्ट्रपति पद के लिये ४० साल निर्धारित की गयी है जिसकी वजह से अधिकाँश मिस्र के नागरिक यूँ भी राष्ट्रपति पद का चुनाव नहीं लड़ सकते क्योंकि मिस्र की ८.५० करोड़ की जनता में से तीन-चौथाई की उम्र ३० साल से कम है। अन्य नए नियमों में से एक है जो मिस्र में राजनीतिक पार्टियाँ बनाने की अनुमति प्रदान करता हैं।
मिस्र में क्या घटित हुआ है यह समझने के लिये सबसे बेहतर तरीका संवैधानिक संशोधनों को बूझना नहीं है, बल्कि यह समझने की आवश्यकता है कि उन १८ दिनों की क्रांति के दौरान आम नागरिक की सोच पर कितना गहरा असर पड़ा है। जब २५ जनवरी २०११ को मिस्र क्रांति आरंभ हुई थी, तब की यदि आप विश्वव्यापी मीडिया में पुरानी रपट और समाचार विश्लेषण पढ़ें तो आप देखेंगे कि कोई यह मानने को ही तैयार नहीं था कि इस क्रांति से कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव आ सकेगा। परन्तु, मेरी तरह, यदि आप तहरीर चौक में होते, जो काहिरा शहर के केंद्र में है, और जिसके विशाल क्षेत्र में १८ दिन की क्रांति के दौरान लाखों लोगों ने एक नए मिस्र की धुन को ले कर डेरा डाला हुआ था, तो आपको स्वयं ही आभास हो जाता कि दुनिया की कोई भी ताकत अब मिस्र में होने वाले इस अवश्यम्भावी लोकतान्त्रिक बदलाव को नहीं रोक पायेगी।
मैं मिस्र ४ फरवरी को पहुंचा जो क्रांति आरंभ होने के बाद का दूसरा शुक्रवार था। पहले शुक्रवार को (२८ जनवरी २०११) मिस्र पुलिस ने हमला कर शांतिप्रिय प्रदर्शनकारियों को बेरहमी से जान से मार दिया था। मेरे मिस्र पहुँचने के दो दिन पहले भी इससे भी अधिक नृशंस घटना में घोड़े और ऊंट पर सवार सादे-कपड़ों में सैन्यबलों ने हमला बोला था जिससे कि क्रांति को कुचला जा सके। परन्तु इन सब हमलों का विपरीत प्रभाव पड़ा व क्रांतिकारी और अधिक संघर्षशील और दृढ-संकल्पी हो गए। तहरीर चौक पर, जहां मैंने कई दिन और कुछ रात भी बितायी हैं, मैं अनेक लोगों से मिला जो भोजन की तलाश में एक भूखे शेर के समान थे जिन्होंने निश्चय कर लिया था कि क्रांति के अंत तक वो अडिग रहेंगे और होस्नी मुबारक की पीठ ही देख कर दम लेंगे जब उन्हें २९ साल पुराना राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ेगा। मिस्र के इन क्रांतिकारियों और बाकी विश्व में जो अंदाजा लगाया जा रहा था, उसमें काफी अंतर था। एक ओर इन क्रांतिकारियों को पूरा विश्वास था कि होस्नी मुबारक को हटा कर ही दम लेंगे, वहीं दूसरी ओर पश्चमी विश्लेषक और सरकारें यह मानने से ही इन्कार कर रही थीं कि जिस होस्नी मुबारक ने २९ साल तक तानाशाह की तरह राज किया है, उसको हटाना मुमकिन होगा। बिडेन ने कहा था कि मुबारक 'तानाशाह' नहीं है। अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि होस्नी मुबारक का राजकाल स्थिर रहा है (इन्हीं हिलेरी क्लिंटन ने बिना शर्म के मध्य-मार्च में तहरीर चौक पर क्रांति के गीत गाए)।
हम सबको, मिस्र के अलावा विश्व को, यह समझने की जरुरत है कि मिस्र का भविष्य संविधान में नहीं है। संशोधित हो या नया संविधान हो. मिस्र का भविष्य वहाँ के लोगों की नई चेतना में है जिनमें दबाये जाने का डर कई पीढ़ियों तक समाप्त हो चुका है। बीसों साल तक मिस्र के लोग सर झुकाए इस भय से आतंकित रहते थे कि कब उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए, डराया-धमकाया जाए, जेल भेज दिया जाए या अन्य प्रताड़नाओं का सामना करना पड़े। आपातकालीन कानून जो मुबारक ने १९८१ में पद सँभालते ही बनाया था, वे अब जा कर समाप्ति की ओर है। इन २९ सालों में यदि ५ लोग एक साथ सड़क पर पैदल जाते दिख जाते थे, तो खतरा मंडराता था कि उन्हें गैर-कानूनी सभा के जुर्म में गिरफ्तार किया जा सकता है।
अब और नहीं. 'हमें तहरीर चौक का रास्ता पता चल गया है' कहना है अशरफ तमन्ज का, जो ३० वर्षीय भूतपूर्व राष्ट्रीय दर्जे के बास्केटबाल खिलाड़ी हैं और वर्तमान में क्रांतिकारी, जिनसे मेरा संवाद मुबारक हुकूमत के विस्थापन के बाद हुआ।
यह तो निश्चित है कि लोकतंत्र की राह पथरीली होती है और मिस्र की क्रांतिकारी सभाओं में संख्या और बढ़ेगी। सालों-साल तक, मुबारक की हुकूमत से भी पहले से पश्चिमी ताकतों ने, खासकर तेल के लिये, पश्चिम एशिया के देशों पर नियंत्रण रखा है। मिस्र के सन्दर्भ में अमरीका विशेष परेशान है क्योंकि उसको यह डर है कि मिस्र में पहले से अधिक लोकतान्त्रिक और राष्ट्रवादी सरकार आएगी वो उत्तर में रेड और 'मेडीटेरिनियन' समुद्र को जोड़ने वाली 'सुएज कैनाल' पर अधिक नियंत्रण रखेगी, जो दक्षिण में यूरोप का प्रवेश बिंदु है। उत्तरी अमरीका एवं यूरोप के देशों ने 'सुएज कैनाल' का इस्तेमाल कर के सैंकड़ों बिलियन डालर बचाए हैं, वर्ना उन्हें पूरे अफ्रीका का चक्कर लगा कर जाना पड़ता। उसी तरह से अमरीका और उसके दबदबे में आने वाले पश्चिम एशिया के देश जैसे कि इजराइल को भी डर है कि मिस्र में कहीं राष्ट्रवादी और अधिक-स्वतंत्र सरकार न स्थापित हो जाए। ३० साल से मिस्र ने, अरब दुनिया के अन्य राष्ट्रों को निराश कर, अमरीका और इजराइल के हितों की पूर्ति की है। अरब देशों को यह तक लगता है कि मिस्र ने फिलीस्तीन के मामले में धोखा दिया है।
यह नासमझी ही होगी यदि हम यह मान लें कि अमरीका-इजराइल और यूरोप यूँ ही हार मान कर बैठ जायेंगे। आप देखिये कि वें लीबिया में क्या कर रहे हैं - पहले 'क्रांतिकारियों' को अस्त्र-शास्त्र दिए और फिर ऐसी स्थिति पैदा की कि उनको सैन्य हस्तक्षेप करने का मौका मिला जिससे कि मिस्र के पश्चिम पड़ोसी राज्य (लीबिया) पर नियंत्रण रह सके जिसके पास काफी मात्र में तेल है और यूरोपी देशों, विशेषकर इटली के लिये, वो एक प्रमुख पेट्रोल आपूर्तिकर्ता हैं। यह तो बिलकुल साफ है कि अमरीका और यूरोप दोनों ही मिस्र के कामकाज में हस्तक्षेप करते रहेंगे।
दुनिया को, विशेषकर कि पश्चिम राष्ट्रों को, यह साफ समझ लेना चाहिए कि मिस्र में खेल के नियम अब हमेशा के लिये बदल गए हैं। जैसा कि तमन्ज ने कहा, ‘हमें तहरीर चौक का रास्ता पता चल गया है’। जन शक्ति अब हमेशा मिस्र की सरकार पर निगरानी रखेगी। इसीलिए मिस्र के बाहर व्याप्त खौफ, कि कहीं सैन्य शक्ति उभर कर न आ जाए, के बावजूद, सैन्य शक्तियां ऐसा कुछ भी करने में असफल रहीं और अब चुनाव करवा के लोगों के हाथ में ही हुकूमत देने को हैं। लोकतंत्र एक रात में नहीं कायम हो जाता, और निःसंदेह १८ दिन की क्रांति में तो यह संभव नहीं है। परन्तु, मैं अब और भी अधिक विश्वास के साथ कह सकता हूँ, कि जो हमने १८ दिनों में देखा है वो आने वाले २० साल की क्रांति की शुरुआत है।
मैंने अपने पड़ाव के दौरान काहिरा में अनेक लोगों से बात की और पाया कि लोकतंत्र से उनको क्या हासिल होगा इसकी लोगों में बहुत ही कम समझ है। लगभग सभी लोगों को पूरा यकीन था कि जैसे ही चुनाव हो जायेंगे, और राष्ट्रवादी सरकार केंद्र में आ जाएगी, सब ठीक हो जायेगा। एक मिस्र नागरिक ने यह तक मुझसे कहा कि 'हम आपके भारत जैसा बनना चाहते हैं'। मैंने तुरंत जवाब दिया, 'मैं मनाता हूँ कि ऐसा न हो!'. पर यह पाठ तो मिस्र के लोगों को स्वयं ही सीखना पड़ेगा जिसके लिये वो अपना समय लेंगे, और अधिक कुरबानी देंगे, काफी संघर्ष करेंगे जिससे कि जनवरी २०११ की क्रांति का फल आने वाले सालों में एक नीव बन सके।
और इसके लिये, आज और आने वाले कल में, उनको कोई भी नहीं रोक सकेगा।
अजीत साही
(मौलिक रूप से वरिष्ठ पत्रकार अजीत साही ने यह लेख अंग्रेजी में लिखा है जिसका हिंदी अनुवाद करने की कोशिश की गयी है, त्रुटियों के लिये क्षमा कीजियेगा-सी.एन.एस)