बृहस्पति कुमार पाण्डेय, सिटीज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
वर्ष २००० में भारत समेत विश्व के 192 देशों ने सहस्त्रादि विकास लक्ष्य के अंतर्गत २०१५ तक कुछ बडे लक्ष्यों को प्राप्त करने का वायदा किया था। इन लक्ष्यों में एक प्रमुख लक्ष्य था मातृ एवं नवजात शिशु मृत्यु दर में कमी लाना। लेकिन उसको प्राप्त करने के लिए जो मानक तय किये गये थे उन्हें प्राप्त करने में भारत समेत कई देश विफल रहे। सितम्बर २०१५ में संयुक्त राष्ट्र संघ के १९३ सदस्य देशों ने १७ सतत विकास लक्ष्यों को पारित किया है जिन्हें वर्ष २०३० तक पूरा करने का समय निर्धारित किया गया है। तय किये गये १७ लक्ष्यों के १६९ टार्गेट्स हैं जो इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगें।
सतत् विकास लक्ष्य ३ का जो सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है वह है अच्छा स्वास्थ्य जिसमें मातृ एवं शिशु मृत्यु में कमी लाना प्रमुख टारगेट हैं। भारत में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए सरकार द्वारा सहस्त्रादि विकास लक्ष्य के समय से ही स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार व उसके ढांचागत विकास को सुदृढ़ किया जा रहा है लेकिन आज भी भारत में मातृ मृत्यु व शिशु मृत्यु में अपेक्षाकृत कमी नही लायी जा सकी है।
नवीनतम आकंड़ों के अनुसार वर्तमान में भारत में मातृ मृत्यु दर १९० प्रति एक लाख जीवित जन्म है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह आँकड़ा २९२ है। ध्यान रहे कि सतत विकास लक्ष्य के अंतर्गत इस संख्या को २०३० तक ७० से कम करना है। शिशु मृत्यु दर के आँकड़े भी काफी चिंताजनक हैं-- भारत के लिए यह दर ४० प्रति १००० जीवित जन्म है तथा उत्तर प्रदेश के लिए यह और भी ज़्यादा है--५३ प्रति १००० जीवित जन्म। सतत विकास लक्ष्य इसे २०३० तक १२ प्रति १००० जीवित जन्म तक लाने की बात करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब देश में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में तेजी से सुधार आया है और लोगो तक इसकी पहुंच भी कुछ हद तक आसान हुई है तो फिर मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में अपेक्षित कमी क्यों नही लायी जा सकी है? इसका एक बड़ा कारण है लड़कियों की कम उम्र में शादी जिसके चलते वे कम उम्र में ही माँ बन जाती हैं जिसका माँ और शिशु के स्वास्थ्य पर न केवल विपरीत प्रभाव पड़ता है वरन दोनों की जान को भी खतरा रहता है।
विडम्बना तो यह है कि सरकार द्वारा कानूनी रूप से लड़कियों की शादी की उम्र कम से कम १८ वर्ष तय की गयी है। परन्तु इस कानून का क्रियान्वयन सही रूप से न होकर उसका खुलेआम उल्लंघन हो रहा है जिसके परिणाम स्वरुप किशोरियों के स्वास्थ्य एवं जान के साथ खिलवाड़ हो रहा है। कम उम्र में लड़कियों के शादी के आँकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत में १०-१४ वर्ष आयु वर्ग की २५% और १५-१९ वर्ष आयु वर्ग की लगभग २०% लड़कियों का विवाह हो चुका था। लड़कियों का कम उम्र में माँ बनना कुपोषण, यौन संक्रमण जैसी समस्याओं को बढ़ावा देने के साथ साथ असामयिक मातृ एवं शिशु मृत्यु को भी आमंत्रण देता है, क्योंकि लडकियां कम उम्र के चलते शारीरिक व मानसिक रूप से बच्चा पैदा करने की स्थिति में नहीं होती हैं।
यूनीसेफ के एक अध्ययन से पता चलता है कि कम उम्र में शादी लड़कियों की शिक्षा प्राप्ति में तो बाधा बनती ही है, इसके अलावा कम उम्र में शादी से एस.टी.आई. संक्रमण, खून की कमी, कुपोषण जैसी जटिल समस्यायें भी जन्म ले लेती है। भारत की ५०% आबादी २५ वर्ष से कम आयु की है जिनमें से अधिकतर को अपने यौनिक व प्रजनन स्वास्थ्य तथा उससे जुड़े अधिकारों की सही जानकारी नहीं है। वहीं १५-१९ वर्ष की उम्र वाली लगभग २५% लड़कियां १९ वर्ष पूरा करने के पहले ही गर्भधारण कर लेती हैं जो उनके स्वास्थ्य के लिए जोखिम भरा होता है। इसलिए यह जरूरी है कि लड़कियों की कम उम्र में होने वाली शादी को रोका जाये।
बस्ती जिले के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बनकटी में नियुक्त महिला चिकित्सक डा प्रीती मिश्रा का कहना है कि अक्सर उनके अस्पताल में कम उम्र वाली गर्भवती महिलाओं के प्रसव के मामले आते है जिनमें से ज्यादातर को जटिल होने के चलते बड़े अस्पतालों में रेफर करना पड़ता है। उनका कहना है कि अक्सर कम उम्र में शादी की वजह से जल्दी जल्दी गर्भपात व खून की कमी उनकी मौत का कारण भी बन सकता है। ऐसे में कम उम्र में लडकियों को गर्भवती होने से रोकने का एक ही तरीका है-- लड़कियों की शादी कम उम्र में न की जाये। डा मिश्रा ने बताया कि उनके अस्पताल में कई ऐसी महिलाएं आती हैं जिनकी शादी १९ वर्ष की आयु से पहले हो चुकी होती है और वे तमाम तरह के यौन संक्रमण से जूझ रही होती हैं।
२६ वर्षीय युवा आनन्द शुक्ला का कहना है कि अगर लड़के-लड़कियों को उच्च शिक्षा का अवसर दिया जाये तो कम उम्र में शादी को अपने आप ही रोका जा सकता है। क्योंकि शिक्षित व्यक्ति अपने कैरियर को शादी से अधिक महत्व देता है। शिक्षित होने पर उसकी प्रजनन व यौन स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी रखने की संभावना भी बढ़ जाती है और उससे सम्बंधित समस्याओं से जूझने की क्षमता भी।
सामाजिक कार्यकर्ता राधेश्याम चौधरी का भी मानना है कि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में सतत विकास लक्ष्य के तहत किये वायदों को पूरा करने के लिए कम उम्र में शादी पर पूरी तरह रोक लगानी होगी क्योंकि १७ सतत विकास लक्ष्यों में तीसरे नम्बर का उत्तम स्वास्थ्य व पांचवे नम्बर का महिला समानता का लक्ष्य तभी पूरा किया जाना सम्भव होगा। सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने में सबसे बडी बाधा है लैंगिग भेदभाव व यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य की अनदेखी।
मातृत्व मृत्यु दर व शिशु मृत्यु दर में कमी लाने, प्रजनन व यौन संक्रमण मे कमी लाने, तथा कुपोषण की रोकथाम के लिए कम उम्र में शादी पर रोक लगानी ही होगी। इसके लिए बाल विवाह रोकने के लिए बनाये गये कानून की समीक्षा करके उसको प्रभावी रूप से क्रियान्वित करना होगा। तभी हम बाल विवाह से तबाह होती हुए किशोरावस्था खतरनाक स्थिति से बचा पायेगें और तभी वर्ष २०३० तक देश सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल हो पायेगा।
बृहस्पति कुमार पाण्डेय, सिटीज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
१३ जनवरी २०१६
वर्ष २००० में भारत समेत विश्व के 192 देशों ने सहस्त्रादि विकास लक्ष्य के अंतर्गत २०१५ तक कुछ बडे लक्ष्यों को प्राप्त करने का वायदा किया था। इन लक्ष्यों में एक प्रमुख लक्ष्य था मातृ एवं नवजात शिशु मृत्यु दर में कमी लाना। लेकिन उसको प्राप्त करने के लिए जो मानक तय किये गये थे उन्हें प्राप्त करने में भारत समेत कई देश विफल रहे। सितम्बर २०१५ में संयुक्त राष्ट्र संघ के १९३ सदस्य देशों ने १७ सतत विकास लक्ष्यों को पारित किया है जिन्हें वर्ष २०३० तक पूरा करने का समय निर्धारित किया गया है। तय किये गये १७ लक्ष्यों के १६९ टार्गेट्स हैं जो इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगें।
सतत् विकास लक्ष्य ३ का जो सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है वह है अच्छा स्वास्थ्य जिसमें मातृ एवं शिशु मृत्यु में कमी लाना प्रमुख टारगेट हैं। भारत में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए सरकार द्वारा सहस्त्रादि विकास लक्ष्य के समय से ही स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार व उसके ढांचागत विकास को सुदृढ़ किया जा रहा है लेकिन आज भी भारत में मातृ मृत्यु व शिशु मृत्यु में अपेक्षाकृत कमी नही लायी जा सकी है।
नवीनतम आकंड़ों के अनुसार वर्तमान में भारत में मातृ मृत्यु दर १९० प्रति एक लाख जीवित जन्म है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह आँकड़ा २९२ है। ध्यान रहे कि सतत विकास लक्ष्य के अंतर्गत इस संख्या को २०३० तक ७० से कम करना है। शिशु मृत्यु दर के आँकड़े भी काफी चिंताजनक हैं-- भारत के लिए यह दर ४० प्रति १००० जीवित जन्म है तथा उत्तर प्रदेश के लिए यह और भी ज़्यादा है--५३ प्रति १००० जीवित जन्म। सतत विकास लक्ष्य इसे २०३० तक १२ प्रति १००० जीवित जन्म तक लाने की बात करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब देश में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में तेजी से सुधार आया है और लोगो तक इसकी पहुंच भी कुछ हद तक आसान हुई है तो फिर मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में अपेक्षित कमी क्यों नही लायी जा सकी है? इसका एक बड़ा कारण है लड़कियों की कम उम्र में शादी जिसके चलते वे कम उम्र में ही माँ बन जाती हैं जिसका माँ और शिशु के स्वास्थ्य पर न केवल विपरीत प्रभाव पड़ता है वरन दोनों की जान को भी खतरा रहता है।
विडम्बना तो यह है कि सरकार द्वारा कानूनी रूप से लड़कियों की शादी की उम्र कम से कम १८ वर्ष तय की गयी है। परन्तु इस कानून का क्रियान्वयन सही रूप से न होकर उसका खुलेआम उल्लंघन हो रहा है जिसके परिणाम स्वरुप किशोरियों के स्वास्थ्य एवं जान के साथ खिलवाड़ हो रहा है। कम उम्र में लड़कियों के शादी के आँकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत में १०-१४ वर्ष आयु वर्ग की २५% और १५-१९ वर्ष आयु वर्ग की लगभग २०% लड़कियों का विवाह हो चुका था। लड़कियों का कम उम्र में माँ बनना कुपोषण, यौन संक्रमण जैसी समस्याओं को बढ़ावा देने के साथ साथ असामयिक मातृ एवं शिशु मृत्यु को भी आमंत्रण देता है, क्योंकि लडकियां कम उम्र के चलते शारीरिक व मानसिक रूप से बच्चा पैदा करने की स्थिति में नहीं होती हैं।
यूनीसेफ के एक अध्ययन से पता चलता है कि कम उम्र में शादी लड़कियों की शिक्षा प्राप्ति में तो बाधा बनती ही है, इसके अलावा कम उम्र में शादी से एस.टी.आई. संक्रमण, खून की कमी, कुपोषण जैसी जटिल समस्यायें भी जन्म ले लेती है। भारत की ५०% आबादी २५ वर्ष से कम आयु की है जिनमें से अधिकतर को अपने यौनिक व प्रजनन स्वास्थ्य तथा उससे जुड़े अधिकारों की सही जानकारी नहीं है। वहीं १५-१९ वर्ष की उम्र वाली लगभग २५% लड़कियां १९ वर्ष पूरा करने के पहले ही गर्भधारण कर लेती हैं जो उनके स्वास्थ्य के लिए जोखिम भरा होता है। इसलिए यह जरूरी है कि लड़कियों की कम उम्र में होने वाली शादी को रोका जाये।
बस्ती जिले के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बनकटी में नियुक्त महिला चिकित्सक डा प्रीती मिश्रा का कहना है कि अक्सर उनके अस्पताल में कम उम्र वाली गर्भवती महिलाओं के प्रसव के मामले आते है जिनमें से ज्यादातर को जटिल होने के चलते बड़े अस्पतालों में रेफर करना पड़ता है। उनका कहना है कि अक्सर कम उम्र में शादी की वजह से जल्दी जल्दी गर्भपात व खून की कमी उनकी मौत का कारण भी बन सकता है। ऐसे में कम उम्र में लडकियों को गर्भवती होने से रोकने का एक ही तरीका है-- लड़कियों की शादी कम उम्र में न की जाये। डा मिश्रा ने बताया कि उनके अस्पताल में कई ऐसी महिलाएं आती हैं जिनकी शादी १९ वर्ष की आयु से पहले हो चुकी होती है और वे तमाम तरह के यौन संक्रमण से जूझ रही होती हैं।
२६ वर्षीय युवा आनन्द शुक्ला का कहना है कि अगर लड़के-लड़कियों को उच्च शिक्षा का अवसर दिया जाये तो कम उम्र में शादी को अपने आप ही रोका जा सकता है। क्योंकि शिक्षित व्यक्ति अपने कैरियर को शादी से अधिक महत्व देता है। शिक्षित होने पर उसकी प्रजनन व यौन स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी रखने की संभावना भी बढ़ जाती है और उससे सम्बंधित समस्याओं से जूझने की क्षमता भी।
सामाजिक कार्यकर्ता राधेश्याम चौधरी का भी मानना है कि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में सतत विकास लक्ष्य के तहत किये वायदों को पूरा करने के लिए कम उम्र में शादी पर पूरी तरह रोक लगानी होगी क्योंकि १७ सतत विकास लक्ष्यों में तीसरे नम्बर का उत्तम स्वास्थ्य व पांचवे नम्बर का महिला समानता का लक्ष्य तभी पूरा किया जाना सम्भव होगा। सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने में सबसे बडी बाधा है लैंगिग भेदभाव व यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य की अनदेखी।
मातृत्व मृत्यु दर व शिशु मृत्यु दर में कमी लाने, प्रजनन व यौन संक्रमण मे कमी लाने, तथा कुपोषण की रोकथाम के लिए कम उम्र में शादी पर रोक लगानी ही होगी। इसके लिए बाल विवाह रोकने के लिए बनाये गये कानून की समीक्षा करके उसको प्रभावी रूप से क्रियान्वित करना होगा। तभी हम बाल विवाह से तबाह होती हुए किशोरावस्था खतरनाक स्थिति से बचा पायेगें और तभी वर्ष २०३० तक देश सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल हो पायेगा।
बृहस्पति कुमार पाण्डेय, सिटीज़न न्यूज़ सर्विस - सीएनएस
१३ जनवरी २०१६