वर्तमान चुनौतियाँ और हमारी भूमिका

आज पूरा देश 1970 के दशकवाली गंभीर परिस्थितियों से गुजर रहा है। पूरे देश के जन आन्दोलन और संगठन इन परिस्थितियों पर समग्र रूप से विचार करने और मूलभूत परिवर्तन के लिये तत्पर हुए, यह एक शुभ संकेत है। संपूर्ण क्रांति का एक पहलू सतत क्रांति है, जो हमें सिखाता है कि क्रांति का एक स्थायी ढांचा बनाने के बदले समय-समय पर समग्र चिंतन करके वर्तमान चुनौतियों और भावी लक्ष्य तय करके आगे बढ़ना चाहिये। समाज के हर क्षेत्र में जिस प्रकार संकट बढ़ रहा है और लोकशक्ति कमजोर हो रही हे, ऐसे में यह चिंतन परम आवश्यक है।

आज मंहगाई 90 प्रतिशत लोगों को छूने वाला महासंकट है, जिससे गरीब लोग और गरीब तथा अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं। कुटीर उद्योग उजड़ रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। जल, जंगल जमीन पर बड़ी- बड़ी कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है। बड़े पैमाने पर विस्थापन जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों का व्यापारीकरण हो रहा है। मुख्य रूप से सेना, अधिकारी और बड़े उद्योगों की मदद पर सरकारी पैसा खर्च हो रहा हैं देश के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर होने वाला खर्च मुख्यत: देशी-विदेशी कंपनियों की मदद के लिये किया जा रहा है। इस बजट में भी बड़े उद्योगों की मदद कम करने के बदले जनता पर बोझ बढ़ाया गया है। वित्त मंत्री जनप्रिय (पोपुलरिस्ट) कदम का कड़ाई से विरोध कर रहे हैं। सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्थिति और भी खराब है। शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने से समाज के एक बड़े वर्ग का भविष्य समाप्त हो गया है। चिकित्सा में भी समाज को बाँट दिया है। बाजारवाद के दबाव में टी0वी0, फिल्म, पत्र - पत्रिकायें आदि अपसंस्कृति उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रही है। महिला उत्पीड़न भी बढ़ रहा है और बाजारवादी शोषण भी। समाज में जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद गंभीर संकट के रूप में पनप रहा है । ये संकट दूरगामी तथा व्यापक प्रभाव वाले हैं। उपभोक्तावाद के चलते व्यापक भ्रष्टाचार फैल रहा है जो सर्वव्यापी और सत्ताधारियों का सबसे बड़ा हथियार हैं।

सबके मूल में राजनीति है। एक तो यह संसदीय लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही पर आधारित है, पर चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी के कारण 10 प्रतिशत वोट पाकर भी जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। राजनीति के कारण सम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद आदि तेजी से बढ़ रहे हैं। ऊपर से न्यायपालिका का भ्रटाचार राजनीति में गुण्डागर्दी को बढ़ावा दे रहा है। सबसे दुखद है लोकतंत्र पर पूँजीपतियों का कब्जा। आज आधे से ज्यादा सांसद करोड़पति या अरबपति हैं। ऐसे में 80 प्रतिशत गरीबों को आरक्षण की जरूरत है। चुनाव में होने वाला विशाल खर्च राजनीतिज्ञों को पूंजीपतियों की गुलामी के लिये मजबूर कर रहा है।

प्राय: सभी राजनीतिज्ञ दल पूंजीपतियों, उद्योगपतियों से पैसा लेते हैं, सिर्फ मात्रा का अंतर है। इसलिए नीतियों का अंतर समाप्त होता जा रहा है। नेता जानते है कि पैसा, गुंडा, जाति आदि के आधार पर चुनाव जीता जा सकता है। इसलिए जनता की आवाज का उन पर असर नहीं होता है। ऊपर से पैसा कमाने के लिये नेता और अधिकारी व्यापक भ्रष्टाचार में शामिल रहते हैं, जो नीचे तक जाता है। इससे जनता की आवाज दब जाती है और पैसे वाले लोग जो चाहे करवा लेते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र पर पूंजीतंत्र का संपूर्ण कब्जा हो गया है।

भारत में ही नहीं विदेशो में भी पूंजीपति अपनी इच्छा से लोकतंत्र का दुरूप्रयोग कर रहे हैं। संसदीय लोकतंत्र की जननी इग्लैण्ड में अनेक सांसदों पर पूंजीपतियों के दलाली की जाँच चल रही हैं। अमेरिका ने इराक पर हमला जनता के हित में नहीं पेट्रोल कंपनियों के दबाव में किया था। अनेक छोटे-मोटे लोकतंत्र को तो बनाना (केला जैसा) लोकतंत्र ही कहा जाता है। भारत में तो मात्र एक करोड़ में सांसद बिकते रहे हैं। ऐसे में लोकतंत्र को पूंजीपतियों के कब्जे से निकालना ही सबसे पहले जरूरी है।

पैसा, गुंडा, जातिवाद आदि में फंसे लोकतंत्र को बचाना आज 1974 से ज्यादा कठिन है। जो भी चुनाव जीतना चाहेंगे उन्हें उपरोक्त साधनों का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिये यह जरूरी है कि हम न्यायपालिका, चुनाव प्रक्रिया, सत्ता के विकेन्द्रीयकरण आदि के द्वारा लोकतंत्र में सुधार लाने की कोशिश करें। यदि चुनाव खर्च घटा दिया जाये तथा सरकार चुनाव खर्च का वहन करे तो अमीरों का शिंकजा कमजोर होगा। इसी प्रकार से अन्य सुधारों के लिये राष्ट्र व्यापी आंदोलन करने की जरूरत है। मीडिया पर भी पूंजीपतियों का नियंत्रण कमजोर करना आवश्यक है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने घरौंदो से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय संगठन का निर्माण करें जो आन्दोलनों का एक गठजोड़ मात्र न होकर कार्यकर्ता आधारित केंद्रीय संगठन हो। हम अपने संगठन में पूर्ण लोकतंत्र बनाये रखे तथा आंतरिक मतभेदों को स्वीकार करें, पर आम सहमति के आधार पर राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा करें, लेकिन किसी राजनैतिक दल का समर्थन या विरोध तथा हिंसा से हमें दूर रहना होगा। आज भी देश की जनता का विश्वास गैरदलीय आन्दोलनकारियों पर हैं।

राम शरण गिरधारी