इरोम शर्मिला : हमारी लियू जियाओबो

चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता लियू जियाओबो को 2010 का नोबेल शांति पुरस्कार मिला हैं। लियू 1989 के थ्यांनमेन प्रतिरोध के दौरान उसमें हिस्सा लेने के उद्देश्य से जब वे अमरीका से स्वदेश लौटे तो पहली बार उनकी गिरफ्तारी हुई। उन्होंने चीन में लोकतांत्रिक चुनाव, नागरिकों की स्वतंत्रता व सरकार की अपनी गलतियों के लिये लोगों के प्रति जवाबदेही की वकालत की। अब तक के चार बार जेल जा चुके हैं। जब वे जेल के बाहर भी रहे तो सरकार की कड़ी निगाहों के सामने ही।

1989 में थ्यांनमेन प्रतिरोध के बाद उनको प्रति-क्रांति प्रचार व उकसाने के जुर्म में कड़ी सुरक्षा वाले क्विंचेंग कारागार में रखा गया। 1995 में लोकतंत्र व मानवाधिकार के पक्ष में आंदोलन में शामिल होने तथा सार्वजनिक रूप से सरकार से 1989 कांड में हुई गलती को ठीक करने की मांग की वजह से छह माह की सजा हुई। 1996 में सार्वजनिक व्यवस्था में विध्न डालने व चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की आलोचना के जुर्म में उन्हें तीन वर्ष की श्रम के माध्यम से पुनशिक्षा की सजा हुई। 2004 में जब वे चीन में मानवाधिकार पर रपट तैयार कर रहे थे तो उनका कम्प्यूटर, दस्तावेज, इत्यादि सरकार द्वारा जब्त कर लिए गए।

2008 में लियू जियाओबो ने घोषणा पत्र 08 को लिखने में सक्रिय भूमिका निभाई। इस घोषणा पत्र में चीन में मानवाधिकार की स्थिति को सुधारने हेतु निम्नलिखित 19 बदलावों की मांग की गई है :

1 संविधान में संशोधन,
२. शक्तियों को अलग-अलग करना,
३. विधायिका आधारित लोकतंत्र,
४. स्वतंत्र न्यायपालिका,
५. जन सेवकों पर लोक नियंत्रण,
६. मानवाधिकार की गारण्टी,
७. लोक अधिकारियों का चुनाव,
८. ग्रामीण-शहरी बराबरी,
९-संगठन की स्वतंत्रता,
१०-एकत्रित होने की स्वतंत्रता,
११-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
१२-धर्म की स्वतंत्रता,
१३-नागरिक शिक्षा,
१४- निजी सम्पत्ति की सुरक्षा,
१५- वित्तीय एवं कर सुधार
16. सामाजिक सुरक्षा,
१७-पर्यावरण की सुरक्षा,
१८-संघीय लोकतंत्र,
१९-सत्य के आधार पर सुलह।

इस घोषणा पत्र ने एक-दलीय शासन व्यवस्था को समाप्त कर चीन में राजनीतिक लोकतांत्रिक सुधारों की मांग की।

इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन में हेतु आवाज बुलंद करना कोई आसान काम नहीं हैं। थ्यानमेन का दमन सबने देखा है। इसी तरह तिब्बत के लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार भी चीन की सरकार का अपने खिलाफ कोई भी प्रतिरोध न बर्दास्त करने का अच्छा नमूना है।

८ अक्तूबर, २०१० को जब नोबेल समिति ने लियू जियाओबो को चीन में मौलिक मानवाधिकार के लिए लंबे व अहिंसक संघर्ष के लिए पुरस्कृत किया तो चीनी सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की। चीनी सरकार ने लियू जियाओबो को एक अपराधी बताया है जिसने चीन के कानून को तोड़ा है। दुनिया भर से लियू जियाओबो के समर्थन में आए संदेशों के बावजूद चीनी सरकार ने लियू या उनके किसी भी रिश्तेदार को नार्वे जाकर पुरस्कार प्राप्त करने पर पाबंदी लगा दी है।

अपने देश में मणिपुर के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में इरोम शर्मीला को कैद में अनशन करते हुए अब दस वर्ष पूरे हो गए है। वे सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को खारिज करने की मांग को लेकर संघषरत हैं। यह अधिनियम एक काला कानून है जिसकी वजह से पूर्वोत्तर भारत व कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा आम नागरिकों का काफी मानवाधिकार हनन हुआ है।

इरोम शर्मिला भी लियू जियाओबो की तरह लोकतंत्र व मानवाधिकार के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं। लेकिन चीन की ही तरह हमारी सरकार ने भी उसको अनसुना कर कैद में रखा हुआ है। इरोम शर्मिला से किसी को मुलाकात करनी हो तो पांच स्तरों से, जिसमें अंतिम स्तर मुख्य मंत्री का है, की अनुमति लेनी होती है। 2 से 6, नवम्बर, 2010, के दौरान जब देश भर से सामाजिक कार्यकर्ता इरोम के उपवास के दस वर्ष पूरे होने के मौके पर इम्फाल आए हुए थे तो उनको इरोम से नहीं मिलने दिया गया। इसी तरह लगभग एक वर्ष पूर्व जब महाश्वेता देवी इरोम से मिलने इम्फाल पहुंची तो उन्हें भी उससे नहीं मिलने दिया गया।

अपनी बात को रखने का जो तरीका इरोम शर्मिला ने चुना है उससे शांतिपूर्ण शायद ही कोई और तरीका हो। उसने गांधी जी का रास्ता चुना है-अपने को कष्ट देकर अपनी बात कहने का। लेकिन फिर भी सरकार इतनी संवेदनहीन है। जिससे किसी को कोई खतरा हो नहीं सकता उसको इतनी भारी सुरक्षा में रखा है। इसके अपने परिवार वालों के लिए भी उससे मिलना मुश्किल है। जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के बाहर मणिपुर की महिलाओं के पारम्परिक संगठन माइरा पाईबी का भी 10 दिसम्बर, 2008, क्रमिक अनशन चल रहा है। मणिपुर व पूरे पूर्वोत्तर में शर्मिला को व्यापक जन समर्थन प्राप्त है किन्तु फिर भी सरकार इस ऐतिहासिक प्रतिरोध को नजरअंदाज कर रही है। इरोम शर्मिला हमारी लियू जियाओबो है।

संदीप पाण्डेय