भाजपा और अन्य संकीर्ण मनस्क हिन्दुत्ववादी संगठनों की, संस्कृति कर्मी और प्रतिष्ठित लेखिका अरूंधती राय पर कश्मीर समस्या के बारे में अपने विचार व्यक्त करने के लिये देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग को केवल हास्यास्पद कर टाला नहीं जा सकता, जैसा कि राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता की शिवानंद तिवारी ने कहा हैं। किसी सचमुच के जनतांत्रिक देश में जहाँ विचार-भिन्नता को वास्तव में सम्मान दिया जाता हो, अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिये किसी को सलाह देने की मांग हस्यास्पद ही हो सकती है, लेकिन भारत जैसे में जहां, वैचारिक असहिष्णुता इतनी उत्कृष्ट है कि स्वयं वाल्मीकि रामायण के साक्ष्य पर पिछले दिनों तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि के राम को मद्यपायी कहने पर इतना बावेला मचा कि एक तथाकथित संतमठाधीश वेदान्ती ने मुख्यमंत्री का सिर काट कर लाने वाले को एक करोड़ का ईनाम देने की घोषणा कर दी। जिस देश में एक मुख्यमंत्री का सिर काटने की प्रेरणा देने वाले पर मुकदमा नहीं चलाया जाता, उस की उसी सरकार से कश्मीर की आजादी की हिमायत करने वाली अरूंधती पर मुकदमा चलाने की मांग खैर हास्यास्पद तो है ही पर चिन्ताजनक भी कम नहीं है। क्योंकि इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जो मरियल सी स्थिति इन दिनों है, यह मांग उसकी हालत और भी खराब करने वाली हैं मेरी समझ में नहीं आता कि भारत का कोई नागरिक क्यों इसके किसी क्षम या प्रदेश की जनता के इससे अलग और स्वतंत्रत होने की मांग का समर्थन नहीं कर सकता ? क्योंकि किसी समस्या पर अपने विचार शालीनता से व्यक्त करना भी अपराध है ? हाँ, अगर अरूंधती कश्मीर की आजादी के नाम पर चलती हुई किसी गैरकानूनी या आतंकवादी कारवाई में शामिल हो जाती तो निश्चित ही कानून की दृष्टि से यह उनका अपराध होता और उसकी सजा उन्हें मिलनी चाहिये थी। पर मेरा यह कहना कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, किसी की नजर में एक गलत विचार हो सकता है, पर यह देशद्रोह कैसे हो गया ? वैसे भी भारत की अभिन्न अंग एक सामाजिक स्थिति ही तो है। ब्रिटिश राज्य में और १९४७ के तुरन्त बाद सभी रजवाड़े भारत का अभिन्न अंग नहीं थे, उनमें कुछ को सरदार पटेल ने और सिक्किम को तो बहुत बाद में इन्दिरा गांधी ने भारतीय संघ में मिलाया।
संकीर्ण और दकियानूसी दलीय दृष्टियां ऐसे ही सीधी-सादी बात का बतंगड़ बना देती है। पिछलें दिनों अपनी धर्मनिरपेक्ष मानववादी, स्त्री-स्वातंत्रय-समर्थक दृष्टि के कारण बांग्लादेश से निर्वासित प्रतिष्ठित लेखिका तस्लीमा नसरीन का लेख छापने पर कर्नाटक के शिमोगा और हासन में कुछ कट्टपंथी मुस्लिम गुंडों द्वारा जो तोड़-फोड़ की गयी वह तो शिव सेना की तर्ज पर समझ में आ सकती है, पर उस लेख के लिये जिसमें केवल यह कहा गया था कि पैगंबर हजरत मोहम्मद पर्दें या बुरके के पक्ष में नहीं थे, मुस्लिम कर मुल्लों को संतुष्ट रखनें के लिये कर्नाटक की भाजपा सरकार ने ‘कन्नड़ प्रभा’ के संपादन कर्मियों की जो गिरफ्तारी की और उन पर जो ‘ईश निन्दा’ के बाबा आदम के जमाने के कानून के अन्तर्गत मुकदमें चलाए, उनको कैसा समझा जाए ?
अगर इस तरह के विचारों की अभिक्ति भी ईश निन्दा है, तो सनातन हिन्दू धर्म समर्थित सती प्रथा का विरोध तो ईश-द्रोह ही हो जाएगा और उसकी सजा देने के लिए कोई सरकार कटिबद्ध हो जाय तो उसे कम से कम आधे भारत वासियों की जेल भेजना पड़ेगा। क्या यह गजब की दिलचस्प बिडंबना नहीं है कि ईश के नाम पर सम्पादकों को जेल भेजने वाली भाजपा ही देशद्रोह के नाम पर अरूंधती को जेल भेजने की मांग कर रही है।
डॉ. रणजीत