परिवर्तनकारी कार्यकताओं को दिमागी खुराक नियमित रूप से देने वाली सच्ची-मुच्ची पत्रिका का अप्रैल २०१० का अंक डॉ.बाबा साहब आम्बेडकर विशेषांक प्रकाशित कर बड़ा अच्छा काम किया हैं। ख़ास कर बाबा साहब केवल दलितों के दाता एवं उद्धारकर्ता नहीं थे इस सम्बन्ध में अच्छी जानकारी इस अंक में दी हैं। भारत के प्रजातंत्र को मजबूत राजनीतिक एवं कानूनी नींव पर खड़ा करने का काम बाबा साहेब ने किया । यहाँ के किसानों को कपास के व्यापार में अंग्रेज सत्ताधीश किस तरह ठग रहें थे। इसका पर्दाफाश करने वाली "प्रोब्लम ऑफ़ रुपीज" यह महत्वपूर्ण किताब उन्होंने १९२३ में लिखी थी। प्रांतीय सरकारों को वित्तीय साधन एवं अधिकार बहुत कम दिए जा रहे है यह बात भी अन्य एक किताब द्वारा उन्होंने समाज तथा शासनकर्ता के सामने पेश की थी। स्त्री को सामान्य मानवी अधिकारों से वंचित रखने वाले हिन्दू पर्सनल लौ में क्रांतिकारी सुधार करने के लिए उन्होंने जो अथक प्रयास किये उसे भी अच्छी तरह नवाजा गया हैं। ऐसा एक अच्छा विशेषांक संपादित करने के लियें मैं श्री एस.आर. दारापुरी जी को तहेदिल बधाई देता हूँ।
उनकी सम्पादकीय में पूना पैक्ट का जिक्र हैं। यह बड़ा संवेदनशील मुद्दा हैं। गांधी जी ने दलितों पर बड़ा अन्याय किया ऐसी धारणा कई लोगों की बनी रही हैं उससे गांधी जी के व्यक्तित्व पर धब्बा लगाया जाता है या नही यह मुद्दा मेरी नजर में महत्वपूर्ण नही है। दलित समाज के लिये स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र होना फायदेमंद है या नही यह मुद्दा गंभीर रूप से समझ लेना चाहिये। अंग्रेज साम्राज्य ने उन्नीसवीं सदी में राज चलाने के पूरे अधिकार उनके आला अफसरों को दे रखे थे। इग्लैंड में साधारण जनता को राज कारोबार में शिरकत करने के लिये जैसे अधिकार है वैसे भारतीय नागरिकों को यहां के लिये मिलने चाहिये यह मांग कई नेता तथा संगठनों के द्वारा उठायी गयी थी। दादा भाई नौरोजी तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक आदि ने अंग्रेज सरकार किसानों पर जो जुल्म थोप रही है उन्हें खोल कर जनता के सामने रखने का काम बड़े प्रभावशाली ढंग से चलाया था। १८८५ में बनी कांगेस संगठन की तरफ से अंगेजी सल्तनत के खिलाफ भारतीय जनता में असंतोष फैलाने का काम हो रहा था। हिंदु, मुसलमान आदि धार्मिक समूहों के नहीं बल्कि किसान, मजदूर, कारीगर आदि श्रमिक वर्गों के सवाल उठाये जा रहे थे। धार्मिक भेदभाव को राजनीतिक से अलग रखा जा रहा था भारतीय जनता की व्यापक एकता मजबूत बनेगी तो अपनी हुकूमत नही चल पायेगी यह बात अंग्रेज शासकों को सताने लगी थी। भारतीय जनता में दरार डाले बिना अपनी सत्ता टिक नही पायेगी यह उन्होंने जान लिया।
भारत में तीन चार हजार वर्षों में कई छोटे-बड़े राज रियासतें चलती रही। राजा या सरदार अपना अधिकार क्षेत्र बढानें के लिये आपस में लड़ते रहे। पश्चिम उत्तर दिशा में कई आक्रमणकारी आये। इसाई धर्म स्थापना होने के पहले ग्रीस का सिकन्दर आया। इस्लाम की स्थापना होने के पहले मंगोलिया, ईरान आदि प्रदेशों से भी आक्रमणकारी आये। उनके इलाके में भूमि तथा आबुहवा खेती के अनुकूल न होने के कारण वहां अनाज पर्याप्त मात्रा में नहीं पकता था। सिन्धु नदी के पूरब में अनाज की फसल अच्छी होती है, तथा दुधहारु जानवर भी अच्छे पलते है। वहाँ तो दूध-घी की नदिया बहती है, ऐसा कहा जाता था। इसलिए पश्चिम-उत्तर की ओर से आक्रमणकारी आते रहे वे किसी धर्मविशेष के प्रसार या फैलाव हेतु नहीं आये थे। लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा इतिहास लिखा कि भारत में प्राचीन काल था। बाद में मुस्लिम राज चला तथा उन्नीसवी सदी में अंग्रेज शासन कायम हुआ।
जिस कालावधि को उन्होंने मुस्लिम राज का नाम दिया उन पांच- छ: शासकों में यहाँ कई राज-रियासतें हिन्दू, सिख आदि की भी चलती थी। हिन्दू तथा मुस्लिम राजाओं में कभी एक दूसरे से लड़ाई, तो कभी तीसरे राजा के खिलाफ हिन्दू, एवं मुस्लिम राजा की साझेदारी ऐसा भी होता रहा। उसे मुस्लिम पीरिअड (अवधि) कहना बिल्कुल अवैज्ञानिक है। वह तो छोटे-बड़े लड़ाकुओं की सामंतशाही थी। लेकिन उसे मुस्लिम पीरिअड कहा गया तो उन्नीसवी सदी के मुस्लिम जमींदार तथा शहरों में बसे व्यापारी वकील आदि को भी लगने लगा कि वे यहाँ के एक समय के राज्यकर्ता थे। इसलिए कांग्रेस के सर्व समावेशक भारतीय जनता की एकता में शामिल होना नहीं चाहते थे। सन १९०६ में प्रिंस आगा खाना की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। व्हाइसरॉय से उनका प्रतिनिधि मंडल मिला। अब भारत में कोलेस्लेटिव कौंसिल बनाने की तथा उसमें अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने का अधिकार भारतीय नागरिकों को देने की बात चली है। तो हम कहना चाहते है कि साधारण चुनाव प्रक्रिया से यहाँ हिन्दुओं का ही बहुमत विधि सभा में होगा। मुस्लिम जनता पर नाइंसाफी होगा। अत: चुनाव क्षेत्र ही अलग हो- सेपरेट इलेक्तोरेट फॉर दि मुस्लिम-यह हमारी मांग हैं। दूसरी यह भी है कि चूंकि हम यहां के एक समय के शासक थे इसलिये हमे ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिये। यानिकी उस समय भारत में मुस्लिमों का संख्या २५ प्रतिशत थी तो लेजिस्लेरिटव कौसिल में 30 प्रतिशत सीटें दी जाय।
और बड़े आश्चर्य की बात है कि पहली ही मुलाकात में व्हाइसरॉय ने वे दोनों मांग कबूल कर दी। साफ है कि वह पहले बनी बनायी साजिश थी। अलग चुनाव क्षेत्र याने सेपरेट इलेक्टोरेट का माने क्या ? तो समझो मुरादाबाद जिले से सटे हुये तीन चार जिलों को मिलाकर दो सीटें दी जानी है। तो उसमें से एक होगी मुसलमानों के लिये तथा दूसरी होगी। आम-याने जनरल मुस्लिम छोड़कर अन्य सभी के लिये मुस्लिम सीट के लिये जो चुनाव होगा उसमें मत देने का अधिकार उस पूरे क्षेत्र के केवल मुसलमानों को होगा। हालांकि मताधिकार बड़े जमीनदार स्नातक, आयकर देने वाले आदि को ही दिया गया था। उनमें भी मुस्लिम मतदाता केवल मुस्लिम सीट के लिये मतदाता जनरल सीट के लिये यानी चुनाव क्षेत्र के स्तर पर मुस्लिम तथा गैर मुस्लिम फाके बनाई गयी। एक क्षेत्र में रहने वाले व्यापार तथा दैनिक जीवन के सभी कामों में एक दूसरे से व्यवहार करने वाले लोगों को चुनाव के लिये मुस्लिम तथा गैर मुस्लिम दो धर्मों में बाटा गया।
मुस्लिम उम्मीदवार केवल मुस्लिम मतदाता को मिलेंगे। जनरल सीट के उम्मीदवार मुस्लिम मतदाता के साथ नहीं मिलेगे। यह बहुत बड़ी दरार डाली गयी। जो आगे चलकर देश के १९४७ में हुये बंटवारे का एक कारण रहा होगा ऐसा राजनीति शास्त्री मानते हैं।
सन 1909 में बने इंडियन कौसिंल एक्ट में सेपरेट इलेक्टोरेट का प्रावाधान किया गया। कांग्रेस के नेताओं ने उसकी मुखालिफत की थी। उस समय में जिन्ना कांग्रेस संगठन में थे। उन्हें भी सेपरेट इलेक्टोरेट पसंद नही था। उसके बावजूद कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन बलशाली बनता गया तो सन 1919 में बने भारत सरकार कानून मुस्लिमों के साथ-साथ सिख युरोपीयनस तथा इंडियन खिश्चचन्स को भी सेपरेट इलेक्टोरेट दिया गया। यानि सभी भारतीय जनता की इकठ्ठा राजनीति न चले इस तरह की व्यवस्था अंग्रेजों ने की। राजनीति सभी जनता को एक मानकर चलानी चाहिये। मतभेद हो तो वे नीतियां तथा कार्यक्रमों को लेकर हो, अलग-अलग पार्टियां बने तो वे जातियां या धर्म के आधार पर नहीं नीतियों के आधार पर बने जिनमें हर किसी में हिंदु, मुस्लिम आदि कोई भी शामिल हो सके यह सभी भी शामिल हो सके यह सभी का जनतांत्रिक राजनीतिक नक्शा होना चाहिए। अंग्रेजों ने मुस्लिमों की अलग पार्टी, सिखों की अलग पार्टी ऐसा नक्शा बनाने की कोशिश की हालांकि आजादी की प्रेरणा सर्व संग्राहक रही। आजादी के आंदोलन में तिरंगा झंडा फहराने तथा वंदे, मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे, पर चढ़ने के लिये सोलापुर के मलपा धनसेठी जगन्नाथ शिंदे, श्री किशन सारदा तथा कुर्बान हुसैन भी थे।
१९२० तथा १९३०-३९ में आजादी के दो बड़े जंग हुये। भारतीय जनता की व्यापक एक जुटता रही थी। नये हथकंडे चलाने के लिये अंग्रेजों ने सन १९२६ में सायमन कमिश्नर नियुक्त किया। जिस में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। उनके सामने बयान देते हुये डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर ने कहा था कि मतदान का अधिकार सभी बालिग स्त्री-पुरूष को दिया जाय। कश्मीर के एक सदस्य ने पूछा- ‘‘क्या आप डिस्प्रेस्ड क्लासेज के लिये सेपरेट इलेक्तोरेट नही मांगेगे।’’ उस पर बाबा साहब ने जवाब दिया-‘‘अगर बालिग मताधिकार दिया जाता है तो उसकी जरूरत नही अगर बालिग मताधिकार नहीं दिया गया तो फिर सेपरेट इलेक्टोरेट की मांग करनी पड़ेगी’’ उसके पीछे की भूमिका समझ में आने वाली हैं अगर स्नातक, आयकर देने वाले तथा बड़ी मात्रा में लगान देने वाले को ही मताधिकार रहेगा तो दलितों में बहुत थोड़े मतदाता बनेंगे। तो साधारण सीट पर दलित उम्मीदवार वार चुने जाने की संभावना बहुत कम होगी। अगर दलितों को सेपरेट इलेक्टोरेट दिया गया जो कोई इने गिने दलित स्नातक होगे, या आयकर देने वाले ठेकेदार होंगे उनके बलबूते पर दलित उम्मीदवार को जीतना आसान होगा।
सायमन कमिश्नर कोई अच्छी रिपोर्ट नहीं दे पाया तब अंगेजों ने लंदन में दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में कांग्रेस उम्मीदवार को भी बुलाया। उस सम्मेलन मे भारत के रियासतों के नुमाइदें भी बुलाये गये थे। उस पर गांधी जी ने आपत्ति उठायी। फिर अल्पसंख्यको का मामला आया। मुस्लिम, सिख, युरोपियन, इंडियन क्रिश्चन तथा एग्लो इंडियन इनके साथ दलितों के नुमाइंदे इनकी मिलकर अलग बैठक बुलाई गयी है। जिसमें उस हर समूह के लियें सेपरेट इलेक्टोरेट मांगा गया। सम्मेलन की आम सभा मे गांधी जी ने उसका विरोध करते हुये यह तर्क कि मुस्लिम, सिख ये मजहब मिटाये जाये ऐसा तो हम नहीं कह सकते। लेकिन दलितो का दलितपन मिटाया जाये, उन्हें समानता का अधिकार मिले ऐसी हमारी भूमिका है तथा कोशिश भी चल रही है। कांग्रेस के 1917 के सम्मेलन में अछूत प्रथा मिटा देने का प्रस्ताव बिठ्ठल रामजी शिंदे ने रखा था जो सर्वसम्मती से पारित हुआ था। पारंपारिक मानसवाले कट्टरपंथी लोगों का विरोध हो रहा था, लेकिन ज्यादा से ज्यादा लोग अछूत प्रथा मिटाने को समर्थन देने लगे थे। और वही सही दिशा है। अछूतों को हमेशा के लिये अछूत नहीं रखना है। तो फिर उनके लिये सेपरेट इलेक्टोरेट क्यों दिया जाए ? गाँधी जी ने दूसरी बात उठायी दलित लोग देहातों में ज्यादा बसते हैं। रोजगार आदि मामलें में सवर्णों से उनका व्यवहार चलता हैं। अगर उन्हें सेपरेट इलेक्टोरेट दिया जायेगा तो ग्रामीण इलाके उन पर अत्याचार बढ़ेगें, यह अच्छा नहीं होगा।
खैर गाँधी जी का बात नही मानी गयी। अगस्त १९३२ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री का कम्युनल अवार्ड घोषित हुआ। दलितों के लिये केन्द्रीय कौंसिल में ७३ सीटें सेपरेट इलेक्टोरेट के रूप में रखी गयी। प्रांतीय कौंसिलों में एक भी सीट नही दिखाई गयी थी। तब गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। सितम्बर में जो पूना पैक्ट हुआ उसके दलितों के लिये १९२ आरक्षित सीटें दी गयी। प्रांतीय कौंसिल में भी जनसंख्या अनुपात पर आरक्षित सीटें देने का प्राविधान किया गया। सरकारी नौकरियों में आरक्षण का समर्थन किया गया। तथा पंडित मदनमोहन मालवीय जो अभा. सनातन हिन्दू, सभा के अध्यक्ष थे, ने आहवान किया कि गाँव-गाँव के मंदिर तथा पनघट दलितों के लिये खुले किये जाय।
गांधी जी ने सेपरेट इलेक्टोरेट का विरोध किया लेकिन आरक्षित सीटों को समर्थन दिया। आगे चलकर भारत का संविधान बनाते समय स्वयं बाबा साहब ने भी सेपरेट इलेक्टोरेट का आग्रह नहीं रखा। विधि सभा में फैसले होते है बहुमत से अगर अल्पसंख्यक अपने प्रतिनिधियों के आधार पर ही अपने हक में फैसला करवाना चाहेंगे तो वह कभी नही संभव होगा। अन्य लोगों में से ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधियों का समर्थन जुटना ही पड़ेगा। समाज की एकता अक्षुण्ण रखते हुयें सामाजिक न्याय की स्थापना की दिशा में भी कदम उठाने है तो आरक्षण से ही काम चलाना होगा। दलितों पर गांधी जी ने अन्याय किया ऐसा बार-बार कहने से अपनी बुद्धि को ही गुमराह करना होगा।
पन्नालाल सुराणा