20वीं सदी यानी करीब सौ साल पहले, प्रथम विष्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में महिलाओं को वोटिंग का हक नहीं था। पर जब सभी पुरूष युद्ध लड़ने के लिए सीमा पर चले गये तो समाज के बाकी व्यवसाय जैसे डॉक्टरी, दुकानदारी, प्रशासनिक कार्य महिलाओं ने संभाले। यह देखते हुए समाज को यह विश्वास हुआ कि एक नारी भी सशक्त है और समय आने पर लगभग हर वह काम संभाल सकती है जो पुरूष करते हैं। इसके बाद ब्रिटेन में महिलाओं को अपना मत डालने का हक मिल गया।
महिलाओं को हमेशा से समाज का कमजोर वर्ग मानकर दबाया गया है। घर में बेटी पैदा होना तो अभिशाप के बराबर है। समाज के ऐसे दायरे बना दिये गये हैं कि लड़की को बोझ समझा जाता है। 1901 में जब भारत में जनगणना की शुरूआत हुई थी तो लिंग अनुपात ९७०:१००० था, और आज का लिंग अनुपात ९३२:१००० है। यानी हर हजार लड़कों के मुकाबले 932 लड़कियां। जबकि महिलाओं का पैदा होने का स्तर तो पुरूषों के बराबर है, तो यह असमान्यता क्यों? यह इस लिए क्योंकि महिलाओं की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो गयी है। भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, स्वास्थ्य एवं अन्य हिंसा महिलाओं के मौत का कारण है। भ्रूण हत्या जैसा घिनौना पाप न केवल समाज के निचले वर्ग में सक्रिय है, बल्कि पढ़े लिखे लोगों में भी यह चलन तेजी पकड़ रहा है।
चीन में जब मार्क्सवादी शासन था तब कहा गया था कि हमारी जनसंख्या हमारी ताकत है। पर समय के साथ उस देश को भी यह समझ आ गया कि बढ़ती जनसंख्या देश के विकास में रोड़ा बन सकती है। तब से वहां परिवार नियोजन को बढ़ावा दिया जाने लगा और ‘‘हम दो हमारा एक’’ के नारे का सख्ती से पालन होने लगा। परन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि चीन में लड़कियों का पैदा होना तेजी से कम हो गया। अन्तर्राष्ट्रीय युनिवर्सिटी, वर्धा में कार्यरत, इलिना सेन कहती हैं कि ‘‘समाज अगर औरतों को उनका हक नहीं देगा तो औरतों को उसके लिए संघर्ष करना होगा, जैसे यूरोप और अमेरिका में औरतों ने किया। वे आगे आयीं और तब तक लड़ी जब तक उन्हें उनके अधिकार नहीं मिल गये।’’
हम तो यह उम्मीद करते हैं कि कानून के माध्यम से हमें न्याय मिले।
निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्युनिकेशन की छात्रा है )