इक्कसवीं सदी में औरत आदमी से कन्धे से कन्धा मिलाकर तो जरूर चल रही है पर इस सफर में उसके सामने कई चुनौतियां आती हैं। ये हमारे समाज का एक पहलू ही है जो औरत का घर से बाहर निकलकर काम करना स्वीकार नहीं करता। औरत को कई तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है जैसे कि बलात्कार, दहेज प्रथा, बाल विवाह, द्वि विवाह, घरेलू हिंसा, मांसिक शोषण एवं कार्य स्थल पर यौन हिंसा।
1997 में कार्य स्थल पर होने वाली हिंसा के लिए दिशा निर्देष ‘विषाखा’ के नाम से जारी किए गये। इन्हीं निर्देषों को एक सख्त रूप देते हुए इसे कानून बनाने की कोषिष चल रही है। इसके अन्तर्गत कार्य स्थल पर किसी भी तरह की मौखिक हिंसा, अष्लील संकेत या छेड़छाड़ दण्डनीय होगी। कार्य स्थल पर हिंसामुक्त माहौल रखने की पूरी जिम्मेदारी कार्यस्थल के मालिक की होगी। इस कानून के अन्तर्गत यह मान के चलना होगा कि महिला पक्ष निर्दोष है। उच्चतम न्यायालय ने इस पर कई निर्देष जारी किए हैं और कई संगठन इस कानून के लिए काम कर रहें हैं।
इस कानून की एक धारा के मुताबिक घरेलू महिलाएं इसके दायरे में नहीं आयेंगी। उच्च न्यायालय का मानना है कि घर एक निजी क्षेत्र है और निजी मामले कार्य स्थल की श्रेणी में नहीं आते। इसके अलावा अगर कोई भी महिला की याचिका गलत साबित होती है तो उसे दो साल तक की सजा हो सकती है। इन धाराओं से महिला संगठनों में काफी हलचल है। संगठनों की मांग है कि इन धाराओं को कानून से निकाला जाये। राजस्थान की मानवाधिकार एक्जीक्यूटेट व जनरल सेक्रेटरी पी0यू0सी0एल0 सुश्री कविता श्रीवास्तव का कहना है कि ‘‘जितने ज्यादा कानून महिलाओं के लिए बन रहें हैं महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है क्योंकि कोई भी विभाग अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है बल्कि महिलाओं के चरित्र पर ही तरह-तरह के सवाल किए जाते हैं।’’
निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड काम्मुनिकेशन की छात्रा है )
काम काजी महिलाओं का कार्य स्थल पर की जाने वाली छेड़-छाड़ काफी सक्रिय है। महिलाओं को आज भी समाज का एक कमजोर तबका मानते हुए उनके साथ असमान्य व्यवहार किया जाता है। पर कई महिलाओं और संगठनों के आवाज उठाने पर कार्य स्थल पर यौन हिंसा को लेकर एक कानून बनाया जा रहा है।
इस कानून की एक धारा के मुताबिक घरेलू महिलाएं इसके दायरे में नहीं आयेंगी। उच्च न्यायालय का मानना है कि घर एक निजी क्षेत्र है और निजी मामले कार्य स्थल की श्रेणी में नहीं आते। इसके अलावा अगर कोई भी महिला की याचिका गलत साबित होती है तो उसे दो साल तक की सजा हो सकती है। इन धाराओं से महिला संगठनों में काफी हलचल है। संगठनों की मांग है कि इन धाराओं को कानून से निकाला जाये। राजस्थान की मानवाधिकार एक्जीक्यूटेट व जनरल सेक्रेटरी पी0यू0सी0एल0 सुश्री कविता श्रीवास्तव का कहना है कि ‘‘जितने ज्यादा कानून महिलाओं के लिए बन रहें हैं महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है क्योंकि कोई भी विभाग अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है बल्कि महिलाओं के चरित्र पर ही तरह-तरह के सवाल किए जाते हैं।’’
निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड काम्मुनिकेशन की छात्रा है )