मोदी की जीत से अधिक न प्रभावित हों
दुनो के पत्र से (नीचे देखे दुनु का सवाल दिया हुआ है), ये मूल सवाल उठता है कि लोगों का मूल मकसद चुनाव में भाग लेना मात्र होना चाहिऐ या फिर लोकतंत्र व्यवस्था में रहते हुए समाज में बाहुबल और शक्ति का असंतुलन को चुनौती देना होना चाहिऐ?
मैं यहाँ तक कहूँगा कि मकसद ये भी होना चाहिऐ कि जो समुदाये अभी तक सोषित वर्ग में rआहा है उसी के बीच में से ऐसे प्रतिभागियों को तैयार करना चाहिऐ जो चुनाव व्यवस्था में एक मजबूत जन संगठन के बल पर चुनौती दे सके। सम्भावना है कि जब ऐसे वर्ग के प्रतिभागी चुनाव जीत के सशक्त बनेंगें तो लोगों के मुद्दों को बेहतर समझ सकेंगे और प्राथमिकता भी देंगे।
पिछले ६० सालों में भारत में राजनीति कुछ इस तरह से विकसित हो गयी है कि स्थापित राजनितिक दलों का डबडबा बना रहता है जो बडे उद्योगपतियों के हित को ही प्राथमिकता देते हैं। मैं इस बात में समय नहीं लगना चाहता कि चुनाव या लोकतंत्र में पैसे का बल और बाहुबल की भूमिका क्या है, पर ये सवाल अवश्य उठाना चाहूँगा कि लोगों की भूमिका कितनी सार्थक है। लोगों की भूमिका मात्र वोट डालने तक सीमित हो के रह गयी है। चुनाव के प्रतिभागियों को चुनने में लोगों की भूमिका है ही नहीं, बल्कि चुनाव के प्रतिभागी राजनितिक पार्टी द्वारा थोपे जाते हैं।
लोगों के पास ये भी अधिकार नही है कि जो प्रतिभागी उपयुक्त नही हैं, उनको चुनाव से बहिष्कार कर सके।
यदि सही मायने में जन- प्रधान व्यवस्था स्थापित करनी है तो हमें एक दूसरा वैकिल्पिक प्रक्रिया स्थापित करनी होगी जिसमें जनता मात्र वोट डालने तक अपनी भूमिका को सीमित न रखे बल्कि चुनाव के प्रतिनिधियों को चुनने में, और न चुनने में या बे-दखल करने में, और कानून बनने आदि में भी लोगों की सीधी भूमिका होनी चाहिऐ।
राजनितिक पार्टियों की एक सीमित भूमिका है जैसे कि व्यवस्था आदि में और एक न्याय व्यवस्था कायम रखने में जिससे कि सभी लोग अपने मूल अधिकारों के साथ सम्मान के संग जीवन-यापन कर सकें। परन्तु राजनितिक पार्टी को जनता की जगह नहीं लेनी चाहिऐ।
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प्रकाश
लोक राज संगठन
ईमेल: lokrajsangathan@yahoo.com